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 देवी काली और रक्तबीज की पौराणिक कहानी से जुड़ी है ‘मां’? तमाम मसालों के बावजूद मेकर्स से हुई गलती

हॉरर फिल्‍म का लक्ष्‍य ही होता है दर्शकों में भय पैदा करना। शैतान या भूत की गतिविधियों से रोंगटे खड़े हो जाना। एक शक्तिशाली मां का अपनी बेटी को शैतानी ताकतों से बचाने का माइथोलॉजिकल हॉरर फिल्‍म मां का यह आइडिया रोचक है, लेकिन सिर्फ कागजों, कल्‍पना और पौराणिकता के बीच रची कहानी भावनाओं को कहीं भी जगा नहीं पाती है। भय का तनिक भी आभास नहीं कराती।

पश्चिम बंगाल के चंद्रपुर में सेट है कहानी
कहानी पश्चिम बंगाल के चंद्रपुर में सेट है। एक नवजात बच्‍ची की बलि के बाद कहानी 40 साल आगे आती है। शुभांकर (इंद्रनील सेन गुप्ता) अपनी पत्‍नी अंबिका (काजोल) और 12 साल की बेटी श्‍वेता (खेरिन शर्मा) के साथ खुशहाल जीवन बिता रहा होता है। अपने पिता के निधन की खबर मिलने पर शुभांकर गांव आता है। लौटते समय शैतानी ताकत उसे मार देती है। तीन महीने बाद गांव का सरपंच जायदेव (रोनित बोस रॉय) उनकी पैतृक हवेली को बेचने के लिए अंबिका को गांव बुलाता है। अंबिका अपनी बेटी के साथ वहां जाती है। उसे पता चलता है कि यह श्रापित हवेली है।

हवेली के पीछे खंडहर को लेकर मान्‍यता है वहां पर एक पेड़ के पास जाना मना है। उसमें राक्षस रहता है। वह पहली बार माहवारी आने वाली लड़कियों को उठा ले जाता है। श्‍वेता हवेली के नौकर की बेटी दीपिका (रूपकथा चक्रवर्ती) के साथ वहां चली जाती है। उसके बाद दैत्‍य दीपिका को उठाकर ले जाता है। अंबिका पुलिस के साथ उसकी खोज में लगती है। इस दौरान कई अजीबोगरीब चीजें देखती है। दीपिका वापस आ जाती है। अब दैत्‍य द्वारा वश में की गई लड़कियां श्‍वेता को ले जाने का प्रयास करती हैं। दैत्‍य आखिर क्‍यों श्‍वेता को अपने साथ ले जाना चाहता है? क्‍या अंबिका उसकी रक्षा कर पाएगी? कहानी इस संबंध में है।

देवी काली और रक्तबीज के पौराणिक कथा पर आधारित है कहानी?
सैवयन रिदना क्वाद्रास द्वारा लिखी कहानी और स्‍क्रीन प्‍ले पौराणिक ( mythological horror) कहानी देवी काली और रक्तबीज से जोड़ी गई है। देवताओं और राक्षस के युद्ध में रक्‍तबीज के खून की एक बूंद, धरती पर गिरने से तमाम राक्षस पैदा हो जाते थे। इसकी एक बूंद चंद्रपुर गांव में भी गिरती है, जो दशकों तक गांव को आतंकित करती है। इस राक्षस से मुक्ति का आइडिया शानदार है, लेकिन फिल्‍म डर और रहस्‍य को गहराई से गढ़ नहीं पाई है।

छोरियों को बचाने के चक्कर में छोड़ दी कहानी
छोरी, छोरी 2 जैसी हॉरर फिल्‍में निर्देशित कर चुके विशाल फुरिया फिल्म मां में भी छोरियों को ही बचाने की बात कर रहे हैं, लेकिन राक्षस की महत्‍वाकांक्षाओं के बीच अंबिका के दीवार बनने की प्रक्रिया को प्रभावशाली बना पाने में नाकाम रहे हैं। मध्यांतर से पहले कहानी को स्‍थापित करने में काफी समय लिया गया है। फिल्‍म का अहम हिस्‍सा दैत्‍य है, जिसकी उपस्थिति से डर पैदा होना चाहिए, लेकिन उसे देखकर लगता है कि यह किसी टीवी सीरियल का भूत है। उसकी ताकत और गतिविधियां कहीं से हॉरर की अनुभूति नहीं देती। फिल्‍म का वीएफएक्‍स भी कमजोर है। यहां भी साउंड के जरिए ही हॉरर पैदा करने का घिसा पिटा प्रयास है।

घटनाक्रम चौंकाते नहीं हैं। संवाद भी बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाए हैं। हालांकि क्लाइमेक्स में एक हताश मां के काली मां बनने के विचार को समुचित तरीके से निभाया गया है। वास्‍तव में यह एकमात्र हिस्सा है जहां आप थोड़ा बंधे नजर आते हैं। फिल्‍म में एक बूढ़ी औरत दैत्‍य द्वारा वश में की गई लड़कियों से श्‍वेता को कैसे बचा लेती है? अंबिका को देखकर पुराना नौकर बिमल (दिब्‍येंदु भट्टाचार्य) क्‍यों बोलने लगता है? अंबिका को अजीबोगरीब चीजें खटकती क्‍यों नहीं है? खंडहर के पास जाना मना है फिर दीपिका को कैसे पता है कि वहां पर पेड़ है? इन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे।

बेटी के साथ नहीं दिखी काजोल की इमोशनल केमिस्ट्री
फिल्‍म का पूरा दारोमदार काजोल (Kajol performance) के कंधे पर है। हालांकि उनका अभिनय एक आयामी लगता है। उनका किरदार किसी भी बिंदु पर साधारण से विस्मयकारी नहीं बनता है। उनकी ऑन-स्क्रीन बेटी खेरिन के साथ केमिस्ट्री भी बहुत भावनात्‍मक नहीं बन पाई है। रोनित रॉय को यहां प्रयोग करने का मौका मिलता है, उसमें उन्‍होंने बेहतर प्रदर्शन किया हैं। बहरहाल इसमें तमाम मसाले हैं जो हॉरर फिल्‍म के लिए जरूरी है, लेकिन उनका मिश्रण बेमेल हो गया जिसकी वजह से यह स्वादिष्ट नहीं बन पाई है।