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 वनजन कला शिविर में हुआ ताड़पत्र शैली का चित्रांकन

अष्ट दिवसीय वनजन कला शिविर का शुभारम्भ कालिदास संस्कृत अकादमी के अभिज्ञानशाकुन्तलम कलावीथिका में हुआ। इस वर्ष ओडिशा की ताड़पत्र शैली पर यह चित्रांकन महाकवि कालिदास के महाकाव्य रघुवंशम पर आधारित होगा। यह शिविर आगामी 21 अक्टूबर तक प्रात: 10 बजे से सायं 5 बजे तक प्रतिदिन रहेगा।

शिविर संयोजक डॉ. सन्दीप नागर ने बताया कि सर्वप्रथम अतिथियों द्वारा माँ वीणापाणी के चित्र पर दीप-दीपन एवं माल्यर्पण किया गया। स्वागत वक्तव्य अकादमी के निदेशक डॉ. गोविन्द गन्धे ने दिया। उन्होने कहा कि वनवासी क्षेत्र के पारम्परिक कलाकारों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से वनजन कलाशिविर का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष ओडिशा की ताड़पत्र शैली पर यह चित्रांकन महाकवि कालिदास के महाकाव्य रघुवंशम पर आधारित होगा। यह शिविर 21 अक्टूबर तक प्रात: 10 बजे से सायं 5 बजे तक प्रतिदिन रहेगा। शुभारम्भ विधि में मुख्य अतिथि के रूप में संस्कार भारती के राष्ट्रीय नाट्यविधा संयोजक श्रीपाद जोशी ने बताया कि ओडिशा की इस विधा का शिविर आयोजित किया जाना स्तुत्य है।

विशिष्ट अतिथि के रूप में महाराष्ट्र समाज के अध्यक्ष डॉ. पंकज चांदोरकर ने कहा कि पारम्परिक चित्रकारी को सहजने का जो कार्य अकादमी द्वारा किया जा रहा है वह प्रशंसनीय है। विशिष्ट अतिथि के रूप में मराठी साहित्य अकादमी, भोपाल के निदेशक सन्तोष गोड़बोले ने कहा कि सुदूर ओडिशा की इस पारम्परिक शैली का कार्य अतुलनीय है। वरिष्ठ चित्रकार बी.एल. सिंहरोडिया ने कहा कि ताड़पत्र शैली का पहली बार उज्जैन में शिविर आयोजित किया जा रहा है, इस हेतु अकादमी साधुवाद की पात्र है। इस शिविर में इच्छुक प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण ताड़पत्र शैली का प्रशिक्षण भी आमन्त्रित कलाकारों द्वारा प्रदान किया जा रहा है जिससे उज्जैन के चित्रकार इस पारम्परिक शैली से परिचित होकर लाभ प्राप्त कर सकेंगे। शिविर में ओडिशा से आए वरिष्ठ कलाकार अशेषचन्द्र स्वेन ने ताड़पत्र शैली में किए जाने वाले चित्रांकन के बारे में विस्तार से जानकारी प्रदान की।

जानिए क्या है ताड़पत्र शैली
प्रकृति प्रेम भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला दोनों में ही दृष्टिगोचर होता है। भारत में जब ग्रंथ लिखे जाने लगे उसी समय से ही पांडुलिपियों में कथात्मक शैली में लघु चित्रण का विकास हुआ। गुफाओं की भित्ति से उतर कला ताड़पत्रों, कपड़े, काष्ठ के साथ-साथ धार्मिक स्थलों और भवनों पर सृजित होने लगी। 10वीं शती के प्रारंभ में हमें पाल शैली में बंगाल, बिहार (नालंदा और भागलपुर के निकट विक्रमशिला के पास) और नेपाल में महायान बौद्ध पोथी चित्र लकड़ी के पटरों पर मिलें हैं। जिनकी शैली बौद्ध गुफा चित्रों के समान है। इन चित्रों में लाल (सिंदूर, हिंगुल और महावर), नीला (लाजवर्दी तथा नील), इनके मिश्रण से बने हरा, गुलाबी, और बैंगनी, श्वेत और श्याम रंगों का प्रयोग मिलता है। जैन धर्मावलंबियों (सन् 1100 ई से 15वीं सदी के मध्य तक) ने ताड़ पत्रों और कागज पर कई ग्रंथों में सुन्दर लेखांकन (कैलीग्राफ़ी) किया। इन सचित्र पोथियों पर अजंता चित्र शैली में ही चित्र बने जिनपर जैन तीर्थंकरों, मुनियों और साध्वियों को ही पेड़-पौधे, फूलों आदि के साथ चित्रित किया गया है। यद्यपि इन चित्रों में समृद्ध भारतीय चित्र शैली का ह्रास ही दिखता है।