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आदिवासी सत्य : विश्व आदिवासी दिवस पर आत्मचिंतन- डॉ.राजाराम त्रिपाठी

   सभी जनजातीय क्षेत्रों में 09 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस तीर-कमान, ढोल-मृदंग और पारंपरिक वेशभूषा तथा पारंपारिक नृत्य के साथ मनाया गया। खूब भाषणबाज़ी हुई। जैसे अन्य ‘दिवसों’ पर होती है, वही शाश्वत वादे, वही पुरानी घोषणाएँ, वही भावनात्मक नारों की गूंज। लेकिन आज, एक दिन बाद, जब उत्सव की थकान उतर चुकी है, सवाल यह है कि क्या हमने इस अवसर पर असली आत्मचिंतन किया, या फिर इसे भी कैलेंडर पर एक और ‘त्योहार’ बनाकर छोड़ दिया?

धरती पर जब पहली बार मानव ने आँख खोली थी, तब उसके हाथ में न मोबाइल था, न मशीन! बस एक बीज था और आकाश में टकटकी लगाए विश्वास की दृष्टि। उसने पेड़ों को अपना देवता माना, नदियों को माता और पर्वतों को रक्षक। यह आदिम दर्शन आज भी हमारे आदिवासी समाज के रक्त में बहता है। वे वृक्षों को अपना कुल-गोत्र कहते हैं, हर पशु पक्षी में अपना पूर्वज ढूँढ़ते हैं, और हर नदी में माँ का आशीष। पर विडंबना यह कि हम, स्वयं को ‘सभ्य’ कहने वाले, उसी धरती और जंगल को बेचकर अपनी तरक्की के महल खड़े कर रहे हैं। हमारे विकास की चकाचौंध ने उनकी सादगी और प्रकृति की पूजा को न केवल मिटाया है, बल्कि उस जीवन दर्शन को भी खाई के मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहाँ होमो सेपियंस की आख़िरी प्रजाति के बचे रहने की संभावना भी सवालों में है।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) कुल जनसंख्या का 8.6% यानी करीब 10.4 करोड़ हैं। पर NCRB के आँकड़े कहते हैं कि 2019 से 2022 के बीच इनके खिलाफ अपराधों में 33% की वृद्धि हुई। वर्ष 2022 में ही 10,055 मामले दर्ज हुए ; जिनमें ज़मीन हड़पने, शोषण, बलात्कार और हत्या के मामले शामिल हैं। सबसे अधिक मामले मध्य प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा में सामने आए। आदिवासी महिलाएं बलात्कार के कुल मामलों में 15% शिकार बनीं। यह आँकड़े केवल अपराध नहीं, बल्कि उस संवेदनहीनता के प्रमाण हैं, जिसे हमारा वोट-आधारित राजनीतिक तंत्र पाल-पोस रहा है।

क्षुद्र वोट की राजनीति ने आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच कृत्रिम ‘लगाव’ और ‘बिलगाव’ दोनों को एक साथ पैदा किया है। पाँचवीं और छठी अनुसूची के जिलों में दशकों से यह धारणा बोई गई है कि सभी गैर-आदिवासी उनके दुश्मन हैं। जबकि सच्चाई यह है कि कई पीढ़ियों से बसे राजवंशों, सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों, डाक्टरों, व्यापारियों,किसानों और कारीगरों ने आदिवासी समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेत, खदान, सड़क और स्कूल खड़े किए। विकास की जो भी रौनक आज इन इलाकों में दिखती है, उसमें गैर-आदिवासियों की भूमिका को नकारना इतिहास से धोखा है। यहाँ सवाल उठना चाहिए कि क्या बाकी जो समाज है, बाकी जो धरती पर मनुष्य हैं, वे मंगल ग्रह से आए हैं? वे भी तो इसी धरती के मूल निवासी हैं। इस बिलगाव को रोकना होगा, वरना भारत एक बड़े अराजकता और गृहयुद्ध की ओर खिंच जाएगा।

नफरत का यह बीज किसके खेत में बोया जा रहा है, यह पहचानना ज़रूरी है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत को अस्थिर करने में लगी ताकतें, अपने एजेंटों के जरिए इस विलगाव प्रक्रिया को हवा दे रही हैं। हालत यह है कि दक्षिण बस्तर के सदियों पुराने गांव ‘रामाराम’, जिसके बगल से ‘सबरी’ नदी बहती है, कइयों के तो नाम के अंत में भी राम जुड़ा हुआ है पर आज वहाँ भी कुछ लोग राम का नाम लेने में संकोच नहीं, बल्कि उन्हें गाली देने में गर्व महसूस करते हैं। यह बदलाव किसी ‘स्वाभाविक’ सामाजिक विकास का परिणाम नहीं, बल्कि सुनियोजित मानसिक प्रदूषण है।

आदिवासी जीवन का मूलमंत्र रहा है, “संतोषं परम सुखम्”। उनका हर उत्सव प्रकृति का उत्सव है, हर गीत पर्यावरण का गीत। लेकिन तथाकथित ‘विकसित’ समाज ने इस दर्शन को पिछड़ेपन का तमगा पहना दिया। जंगल के पेड़ों को पूजने वाले इन लोगों को हमने अपनी योजनाओं और नीतियों से उखाड़कर, शहर की झुग्गियों, खदानों और कारखानों की दहलीज़ पर पटक दिया। नतीजा..! एक ओर जंगल उजड़ते गए, दूसरी ओर आदिवासी अपनी जड़ों से कटते गए।

  दूसरी ओर, ‘आदिवासी संरक्षण’ के नाम पर बने ज्यादातर कानून, जैसे कि आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासी न खरीद सके,, अक्सर उलटे असर डालते हैं। अनुसूची-5 के क्षेत्रों में, जैसे कि बस्तर में, जिस जगह गैर-आदिवासी की ज़मीन 30–40 लाख रुपये प्रति एकड़ बिक रही है, वहीं उसके बगल की आदिवासी जमीन का मालिक जरूरतमंद आदिवासी अपनी ज़मीन मात्र 2–3 लाख रुपये में बेचने को मजबूर है। और यह कानूनी खरीददारी के नाम पर ₹30 लाख रुपए मूल्य की भूमि को मात्र तीन लाख रुपए में खरीदने वाले कोई बाहरी व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि वही आदिवासी हैं, जो विकास क्रम में आदिवासी समाज से निकलकर नेता, सरपंच, अफ़सर, व्यापारी बन गए हैं। सोचने वाली बात है कि, बेचने वाले बेचारे जरूरतमंद मजबूर आदिवासी को भला क्या फर्क पड़ता है कि खरीदने वाला कौन है, उसे तो अपनी जरूरत की पूर्ति के लिए येन केन प्रकरेण जमीन बेचना ही होगा, क्योंकि सरकार ने ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं बनाई है कि ऐसी स्थिति में कोई उसे पर्याप्त नगदी सरकारी सहायता दी जाए जिससे कि वह अपनी अनिवार्य जरूरतें पूरी करने के लिए जमीन बेचने से बाज आए? ऐसी स्थिति में तो उसे अपनी भूमि का यथासंभव अधिकतम बाज़ार मूल्य प्राप्त करने का अधिकार भला क्यों नहीं मिलना चाहिए।

सोचने का विषय यह भी है कि क्या यह कानून जरूरतमंद आदिवासी के अपने जमीन को गैर आदिवासी की जमीन के मूल्य के बराबरी पर बेचने के  नैसर्गिक अधिकार का हनन नहीं कर रहा है? और क्या ₹10 मूल्य की वस्तु का ज्यादा मूल्य देने वाले खरीददारों की नैसर्गिक खुली प्रतियोगिता को कानून बनाकर बाधित करते हुए, विशिष्ट अधिकार प्राप्त लोगों द्वारा ₹1 में खरीदना संगठित लूट की श्रेणी में नहीं आता? यदि इस कानून के लागू होने के बाद से  आज प्रयन्त  आदिवासियों की जमीन की खरीदी बिक्री के मूल्य तथा गैर आदिवासियों की खरीदी बिक्री की गई जमीनों का मूल्य की यह जाँच की जाए कि आदिवासियों की ज़मीनें किस किसने और किस-किस भाव में खरीदीं, तो यह भेद खुल जाएगा कि इस कानून से गरीब और मजबूर आदिवासी का कोई भला नहीं हुआ, बल्कि उल्टे उन्हें उनके अपने कहलाने वालों ने ही जी भर के लूटा है। और गजब बात किया कि यह कानूनी लूट जिसे लूटा जा रहा है, उसी की भलाई के नामपर आज भी धड़ल्ले से जारी है। आदिवासी दिवस पर इस कानून को हटाने की मांग क्यों नहीं उठती यह भी सोचने का विषय है।

     एक और बात यह कि यदि यह लोग आदिवासियों के सच्चे हितैषी हैं, तो फिर यह कानून क्यों नहीं बना देते कि चाहे जो भी हो, आदिवासी की ज़मीन भी समकक्षी गैर-आदिवासी की ज़मीन के बराबर मूल्य पर ही बिकेगी, और उससे कम पर रजिस्ट्री ही नहीं होगी?

    यह भी आदिवासियों के लिए भी गंभीर समस्या है कि जब दो व्यक्ति, दो गवाहों और शासन के प्रतिनिधि (रजिस्ट्रार) के सामने राज़ी-ख़ुशी अपनी मर्ज़ी से ज़मीन का सौदा करें, तो उचित एवं पर्याप्त मूल्य देकर जरूरतमंद आदिवासी की भूमि खरीदने वाले गैर-आदिवासी को केवल इसलिए अपराधी क्यों बना दिया जाता है, ताकि उनकी ज़मीनें इन्हीं के बीच से निकले मुट्ठीभर संपन्न आदिवासी, जो कानून बनाने वाली सभा में भी बैठे हैं और कानून लागू कराने वाले अधिकारी वर्ग में भी,, औने-पौने दामों में खरीद सकें?

  यह भी विचारणीय है कि क्या यह कानून हमारे संविधान की मूल अवधारणा समानता तथा स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में बाधा है ? और अगर ऐसा है तो इसकी तत्काल समीक्षा तथा संशोधन जरूरी है।

       इसी कार्यक्रम में यह भी सोचनीय प्रश्न है कि जब-जब इस कानून को बहुसंख्यक आदिवासियों के हित में संशोधित करने की बात उठती है, तो वह कौन सा वर्ग लोग जो इसमें अड़ंगा लगाता है। दुर्भाग्य से, आज भी अपना भला-बुरा समझने में असमर्थ आम आदिवासी ऐसे समय पर अपने ही लुटेरों के साथ खड़ा होकर, अपने ही हितों के खिलाफ बने कानून को बनाए रखने के लिए उनका समर्थन करता है। उसी कुल्हाड़ी की बेंट बन जाता है जो कुल्हाड़ी अंततः उसे ही काटने वाली है।

    और फिर आती है सबसे कटु सच्चाई, गौरवशाली ‘परंपरा-संपन्न’ आदिवासी समाज का आंतरिक विघटन। पढ़-लिखकर ‘नव धनसंपन्न’ हुए युवाओं में अपनी वेशभूषा और भाषा को लेकर कहीं न कहीं हीन भावना है। एक और गजब बात किया है कि अन्य वर्गों की भांति ही सफल संपन्न आदिवासी भी प्राय: जिस सीढ़ी से वे ऊपर आए, उसे तोड़कर अपने पीछे वालों के रास्ते बंद कर देते हैं। राजनीतिक नेता अपने ही समाज की वोट-तिजारत में दलाल बन गए हैं। उनकी राजनीति अपने तथा अपने परिवार तक ही अधिकतम फायदा पहुंचाने तक की सीमित हो जाती है।हर चुनाव में वही आश्वासन, वही हेराफेरी। “यथा राजा तथा प्रजा” का शास्त्रीय सत्य यहाँ विकृत रूप में सामने है।

प्रकृति के साथ आदिवासियों का रिश्ता केवल भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। लेकिन इस रिश्ते को तोड़ने का अपराध बाहरी भी कर रहे हैं और भीतरी भी। और तब तक, जब तक आदिवासी समाज अपने असली शत्रु की पहचान नहीं करेगा, अपनी कमियों और कमजोरियों को स्वीकार कर उन्हें दूर नहीं करेगा,, कोई भी आरक्षण, अनुदान या कानून उन्हें वास्तविक विकास की ओर नहीं ले जा सकता।

दुनिया का सबसे खूबसूरत और रहने योग्य ग्रह, पृथ्वी हमारे हाथों ‘नर्क’ में बदलने को तैयार है। और जो लोग इसे बचा सकते थे, वे जंगल, नदियों और जमीन की रक्षा करने के बजाय राजनीतिक लालच और विकास के झूठे वादों के आगे हथियार डाल चुके हैं।

विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ आदिवासी अधिकारों की याद, रैली और भाषणबाजी का दिन नहीं होना चाहिए बल्कि यह दिन हमें अपने असली सभ्यता-परीक्षण, आदिम जीवन दर्शन का दर्पण दिखाना चाहिए। आज आदिवासी समाज ही मानवता की अंतिम उम्मीद के रूप में थोड़ा बहुत बचा है।  सवाल यह है कि क्या हम इनसे अब भी कुछ सीखेंगे,,,,  संयम, प्रकृति से जुड़ाव, पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति के साथ सहजीवन के शाश्वत सूत्र और संतोष का आदिम जीवन दर्शन? या फिर वोट, और सर्वग्राही विनाशक विकास ? और वर्चस्व की अंधी दौड़ में, आखिरी उम्मीद, अंतिम हरे पत्ते को भी अपने हाथों से नोच देंगे?

लेखक: डॉ राजाराम त्रिपाठी ‘जनजातीय कल्याण एवं शोध संस्थान (TWRF)’ के संस्थापक तथा जनजातीय सरोकारों की मासिक पत्रिका ‘ककसाड़’ के संपादक हैं।