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राष्ट्रीय एकता के लिये एक राष्ट्र भाषा जरूरी -रघु ठाकुर

(हिंदी दिवस पर विशेष)

  फिर से एक बार देश में हिन्दी विरोधी अभियान शुरु हुआ है। कुछ शैक्षणिक संस्थाओं ने शोध कार्य के लिये अंग्रेजी की अनिवार्यता तय की है। निजी शिक्षण संस्थाओं में विशेषतः बाल शिक्षा (के.जी) और प्राथमिक शिक्षा में न केवल अंग्रेजी को अनिवार्य रुप से पढ़ाया जाता है बल्कि स्कूल के अन्दर अंग्रेजी में ही बात-चीत करना अलिखित तौर पर अनिवार्य कर दिया गया है यानि शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी ज्ञान के साथ-साथ अंग्रेज भी तैयार किये जा रहे है। बच्चों को स्कूल के अन्दर हिन्दी बोलने पर दण्डित व अपमानित किया जाता है। इन शिक्षण संस्थाओं में हिन्दी बोलना असभ्यता का पर्याय माना जाता है। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता भी गर्व के साथ बताते है कि उनका बच्चा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ रहा है और वे भी बच्चों से दैनिक जीवन में अंग्रेजी में बातचीत का प्रयास करते है। कुछ अंग्रेजी पढ़े माँ-बाप तो हिंग्लिश का प्रयोग करते है। यानि कुछ शब्द हिन्दी कुछ अंग्रेजी। रेल यात्रा में अक्सर इस हिग्लिंश का प्रयोग सुनता हूँ। जहाँ माता-पिता बच्चे से कहते है बेटे शू पहना दूँ आदि। और फिर कुछ शान के साथ बताते कि मेरा बेटा तो अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय मे पढ़ता है। नौजवान जो अंग्रेजी स्कूल में पढ़े लिखे व अंग्रेजी के उच्चारण को कुछ इस प्रकार से अटक-अटक कर करते हैं जिस प्रकार यूरोप या अमेरिकी लोग करते हैं। यानि भाषा और उच्चारण दोनों में नकल है। स्थिति यहाँ तक पहुँची है कि महानगरों में अंग्रेजी के अमेरिकी, एवं ब्रिटिश उच्चारणों के तरीकों को भी सिखाने वाली संस्थायें शुरु हो गई है। इन देशों में नौकरी के लिये जाने वाले या नौकरी तलाशने वाले नौजवान इस अटकउल अंग्रेजी सीखने पर पैसा भी खर्च करते हैं और गौरवान्वित होते हैं!

    पिछला विश्व हिन्दी सम्मेलन म.प्र. की राजधानी भोपाल में हुआ था। जिसका उद्घाटन करने के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी आये थे। इस सम्मेलन में काफी सरकारी पैसा भी खर्च हुआ था। भले ही यह विश्व हिन्दी सम्मेलन संकीर्ण मानसिकताओं की वजह से भा.ज.पा सत्तापक्षी हिन्दी सम्मेलन या सरकारी सम्मेलन जैसा बन गया था, तथा गाँधी से लेकर गॉव तक इस सम्मेलन में उपेक्षित थे। फिर भी यह उम्मीद लोगों के मन में थी कि इस सम्मेलन के बाद सरकार हिन्दी व राष्ट्रभाषा के लिये कुछ करेगी। परन्तु सदा की तरह लोगों को निराशा ही हाथ लगी। और सरकारी तंत्र में हिन्दी का स्थान बढ़ने के बजाय कम ही होता गया। अगर सरकार ने थोड़ा भी प्रयास किया होता तो कम से कम सरकारी सूचनाओं में तथा सूचना तकनीक में हिन्दी का स्थान बन सकता था। परन्तु पिछले लगभग दो ढाई वर्षो में जितनी भी सरकारी योजनाओं की चर्चा हुई है उनके तो नाम तक हिन्दी में नहीं है। वे चाहे मेक इन इंडिया हो, एमएसएमई हो, कैशलेश हो इत्यादि-इत्यादि। न्यायपालिका में भी अगर सरकार ने पहले चरण में अंग्रेजी के साथ हिन्दी भाषा की अनिवार्यता को लागू कर दिया होता तो भी हिन्दी का मार्ग प्रशस्त होता तथा व्यक्ति अपनी इच्छा से अपनी भाषा का चयन कर सकता था। देश के अंग्रेजी समर्थकों ने संभव है कि वैश्वीकरण की ताकतों और कारपोरेट के इशारों पर हिंदी के खिलाफ अंग्रेजी के पक्ष में सुनियोजित अभियान चलाया है। कांग्रेस पार्टी के तिरुवनंतपुरम के सांसद व पूर्व मंत्री शशि थरूर जो देश में सुनंदा पुष्कर कांड से ज्यादा चर्चित हैं, ने हिंदी के विरुद्ध एक नई बहस शुरू की थी। उन्होंने अपने लेख में चार बिंदु उठाये थे-

1.  हिन्दी भाषा जाति का रूप ले रही है और हिन्दी जाति बन रही है।

2.  राष्ट्र भाषा या हिन्दी की चर्चा करना, यह हिन्दी के द्वारा दूसरी भाषाओं का दमन करना है।

3.  हिन्दी देश के मात्र 50 प्रतिशत की भाषा है वह भी तब जब 47 बोलियों को जैसे कि भोजपुरी, मगधीं, बुंदेली आदि को इसमें शामिल माना जाये। हिन्दी बोलियों को पीछे कर रही है।

4.  तमिलनाडु या कलकत्ता में कोई हिन्दी बोलने वाला या समझने वाला नही है तथा हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने से एक नई भाषा का बोझ बढ़ेगा।

5.  एक राज्य दूसरे राज्य के लिये अगर अपनी भाषा में पत्र लिखेगा तो वह दूसरे राज्य के लिये कठिन होगा। उन्होंने तमिलनाडु के द्वारा उड़ीसा राज्य को पत्र लिखने तथा स्व.ज्योति बसु के द्वारा प. बंगाल की ओर से तत्कालीन रक्षामंत्री श्री मुलायम सिंह यादव को बंगला भाषा में पत्र लिखने का उल्लेख किया था।

उनके  संशयों के निराकरण के लिये निम्न पर ध्यान देना जरुरी हैरू-

(अ.) हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नही है और न जाति की बल्कि हिन्दी देश के बड़े इलाके में बोली व समझी जाने वाली भाषा है। गुजरात, महाराष्ट्र, जैसे गैर हिन्दी भाषी प्रदेश में भी अगर हिंदी बोली समझती जाती है तो इसका अर्थ है कि हिंदी किसी जाति की भाषा नहीं है, अगर हिंदी जाति की भाषा होती हो, तो समूचे यूरोप की भाषा अंग्रेजी होती, परंतु फ्रांस, जर्मनी, तुर्की, स्पेन आदि कितने ही देशों की भाषा अंग्रेजी नहीं है वरन उनकी अपनी राष्ट्रीय भाषायें हैं और देश की बड़ी आबादी के द्वारा बोली व समझी जाने वाली भाषा है। श्री थरुर को क्या इतना भी ज्ञान नही है कि भाषा जातियों की नही होती बल्कि क्षेत्रों की होती है। गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने का समर्थन किया था। बंगला भाषा का अधिकांश साहित्य हिन्दी में अनुवादित भी है और पढ़ा जाता है। बंगाल के काफी बड़ी संख्या में लोग छत्तीसगढ़, बिहार, उ.प्र. के इलाकों में और विशेषतः बनारस, इलाहाबाद आदि में भी बसे है। आजादी के बाद राजधानी दिल्ली में बड़ी संख्या में बंगाली परिवार आ कर बसे हैं। ये सब हिन्दी समझते और हिन्दी में बात करते है। महात्मा गांधी ने जो स्वतः गुजराती भाषी थे, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक मराठी भाषी थे, ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव किया था। हिंदी देश की एक बड़ी आबादी व क्षेत्र में बोली और समझी जाने वाली भाषा है।

(ब) दुनिया में सभी जगह क्षेत्रीय भाषायें तो होती हैं परंतु एक राष्ट्रभाषा भी होती है जो समूचे देश के लिए होती है। रूस, चीन, ब्रिटेन, अमेरिका, आदि कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग करने से दूसरी भाषाओं का दमन कैसे होता है? अंग्रेजी कोई तमिलनाडु, केरल या दक्षिण के प्रदेशों की क्षेत्रीय भाषा नहीं है बल्कि अंग्रेजी यहां ब्रिटिश हुकूमत के बाद ही आई। आदि-शंकराचार्य व तमिल तेलगू, मलयाली, कन्नड़ भाषी लोगों का आना जाना उत्तर भारत में हजारों साल से होता रहा है। जब श्री राम लंका गये थे तब क्या वे अंग्रेजी में संवाद करते थे? क्या रावण व लक्ष्मण का संवाद, विभीषण और राम का संवाद अंग्रेजी में हुआ था। देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं व हिंदी के ज्यादातर शब्द एक जैसे है। बंगाल का जल या हिंदी का पानी समझने में किसी को दिक्कत नहीं होती।

     केरल, तमिलनाडु या आंध्रप्रदेश कर्नाटक के ग्रामीण अचंलों के लोग हिंदी की फिल्में देखते हैं, हिंदी के गाने सुनते हैं और इन प्रदेशों के ग्रामीणजनों को आज भी अंग्रेजी सीखना पड़ती है। दमन तो सही अर्थों में अंग्रेजी कर रही है, जो देशज योग्यता और उसके अवसरों को भाषा की कटौती के आधार पर अवसर पाने के पूर्व ही प्रतिभा को नष्ट कर देती है। अगर अंग्रेजी हुकुमत आने के बाद लोगों ने अंग्रेजी सीख ली तो वे हिंदी भी सीख सकते हैं। अंग्रेजी भाषा देश के 80-90 करोड़ लोगों की योग्यता व अवसरों का दमन है। दरअसल प्रतिभा क्षमता और योग्यता से आम भारतीय को पृथक करने वाली ताकतें अंग्रेजी भाषा की तलवार का इस्तेमाल कर रही है।

(स) यह दुखद है कि महाराष्ट्र में शिवसेना के विरोध से डरकर भाजपा सरकार ने प्राथमिक शिक्षा से हिंदी की पढ़ाई रोक दी है और जो संघ व भाजपा हिंदी हिंदु हिंदुस्तान का नारा लगाते थे अब मुँह में सत्ता का घी पीकर चुप बैठे हैं।

(द) हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने का मतलब एक राष्ट्रीयता के भाव को पोषित व पल्लवित करना भी है। 1930 के दशक में जब स्व राजगोपालाचार्य ने तमिलनाडु में हिंदी शुरू की थी तब भी कुछ अंग्रेजी समर्थकों ने प्रांतीय भाषा और प्रांतीयता का सवाल उठाया था। तब महात्मा गांधी ने स्व राजगोपालाचार्य का समर्थन करते हुये कहा था कि-राष्ट्रीयता के प्रसार के लिये प्रांतीयता को भेदना आवश्यक है और हिंदी और प्रांतीय भाषायें या तमिल आदि एक साथ चलकर राष्ट्र को मजबूत करेगी।

(य) श्री शशि थरूर देश की 47 उन बोलियों का समर्थक बनने का छदम प्रयास कर रहे हैं जो हिंदी की शक्ति व जान है, वे हिंदी का अंग है। भाषा और बोली का फर्क क्षेत्रीय शब्दावली से नहीं होता है बल्कि लिपि के आधार पर होता है। हिंदी भाषा की इन बोलियों की लिपि देवनागरी है। दरअसल बोलियों के पक्षधर बनकर श्री थरूर अंग्रेजी का बहुमत बनाना चाहते हैं। अगर बोलियों को भाषा मान लिया जायेगा तो हिंदी खण्ड खण्ड हो जायेगी। अंग्रेजी देश की सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा बन जायेगी और फिर अगले चरण में बहुत संभव है कि ये अंग्रेजी समर्थक लोग अंग्रेजी को ही भारत की राष्ट्र भाषा बनाने की मुहिम चलायें।

   मैं भारत की क्षेत्रीय व प्रान्तीय भाषा वालों से कहना चाहूँगा, कि अंग्रेजी समर्थकों के इस कपट  षडंयन्त्र को समझें व सावधान हो जाये। बोलियों को अगर भाषायें मान लिया जायेगा तो प्रान्तीय भाषायें भी टूट कर बिखरेगी। विदर्भ की मराठी, व पुणे की मराठी, कोकणी, आंध्र की तेलगू छ.ग. में बस्तर की गौडी व हल्बी आदि के उच्चारणों के आधार पर यहाँ के लोगों को भड़काया जायेगा तथा फूट डालो राज करो जो आजादी के पहले अंग्रेजी सिद्धांत था वह फिर सफल हो जायेगा। बोली भाषा नहीं है बल्कि एक भाषा का क्षेत्रीय प्रयोग है, उसके शब्द व उच्चारण है। बोलियों के लिए भी सरकार को संरक्षण देना चाहिये परन्तु बोलियों के रूप में, न की भाषा के रूप में। इसके लिये संविधान में एक पृथक प्रावधान जोड़ना चाहिये ताकि बोलियों के साहित्य व संस्कृति को सुरक्षित रखा जा सके ।

मैं भारत सरकार से अपील करूँगा –

1. भारतीय संविधान में संशोधन कर बोलियो के संरक्षण के लिये पृथक प्रावधान जोड़ा जाये।

2. व्यक्ति विवरण में भाषा का कॉलम पृथक रहे जो लिपि आधारित हो और बोली के लिये पृथक कॉलम बनाया जा सकता है।

3. सरकार शिक्षण संस्थाओं में हिंदी और एक अन्य प्रादेशिक भाषा का ज्ञान अनिवार्य करें तथा अंग्रेजी एच्छिक भाषा रहे।

4. न्यायपालिका की भाषा फिलहाल कुछ समय के लिये प्रायेागिक व प्राथमिक तौर पर हिंदी व अंग्रेजी दोनों मुवक्किल की इच्छा से रखी जा सकती है।

5. राज्य व केंद्र का पत्र व्यवहार हिंदी व प्रांतीय भाषा में आरंभ करें तथा अखिल भारतीय सेवाओं के चयन में सी सेट टू के माध्यम से, अंग्रेजी व का अनिवार्य पर्चा समाप्त हो।

      राष्ट्रीय एकता के लिये एक राष्ट्र भाषा जरूरी है और उसका स्थान लेने की क्षमता सारे संकटों के बावजूद अभी भी केवल हिंदी भाषी के पास ही है।

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक और स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं।श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के भी संस्थापक अध्यक्ष हैं।