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जेपी और संघ-जनसंघ – राज खन्ना

राज खन्ना

(जयप्रकाशजी (जेपी) की जयंती 11 अक्टूबर पर विशेष)

जेपी -जनसंघ एक आशे ( जेपी -जनसंघ एक हैं )।तब कलकत्ता में लगे ये पोस्टर कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी ) की जेपी के प्रति नाराजगी का इजहार कर रहे थे। पार्टी के तत्कालीन महासचिव ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद जयप्रकाश नारायण ( जेपी) से मुलाकात में याद दिला रहे थे कि 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध की मांग करने वाले अभियान में आप आगे-आगे थे। आपने आर्गेनाइजर ( संघ का मुखपत्र ) के दफ़्तर के सामने प्रदर्शन का नेतृत्व भी किया था। आपसे ऐसी उम्मीद नही थी ? यह एक विश्वासघात है।
संघ और जनसंघ ( भाजपा ) के वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों का एक बड़ा हिस्सा आज भी इस राय का है कि उसके विस्तार में जेपी के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन और उसके जरिये जनता पार्टी में प्रवेश ने बड़ी भूमिका निभाई। वे इसे जेपी की ऐतिहासिक भूल बताते हैं। इस राय का समूह जेपी आंदोलन के पहले 1967 की संविद सरकारों को तरज़ीह नही देता, जब सोशलिस्ट और कम्युनिस्टों ने जनसंघ के साथ कई राज्यों में सत्ता में हिस्सेदारी की थी।
कौन थे जेपी ? संघ-जनसंघ का उनका निकट पहुंचना उनके जीवन में और जाने के बाद भी क्यों बहस का विषय रहा है ? उन्हें गुजरे चार दशक बीत चुके हैं। इस बीच दो पीढियां जवान हो चुकी हैं। बहुत से उन्हें नही जानते या सिर्फ नाम सुना है। जिन्होंने देखा-सुना उनकी स्मृतियों पर वक्त की धुंधली चादर तनी है। फिर भी जो याद करते हैं , वे रोमांचित होते है। आजादी की लड़ाई के नायक जेपी के लिए अंग्रजों के हजारीबाग जेल की सत्रह फ़ीट ऊंची दीवार बौनी थी। 9 नवम्बर 1942 । अमावस की निपट अंधेरी रात। दीवाली का त्योहार। जेपी और पांच साथी आजादी की मशाल लिए जेल की दीवार फांद गए थे। आजादी के लिए लड़ने वालों के लिए जयप्रकाश नारायण (जेपी ) का क्या मतलब था, इस पर खूब लिखा-कहा गया है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की उन पर कालजयी रचना आज भी दोहराई जाती है,

लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की
आशा भरी कुर्बानी का
अब जय प्रकाश है नाम देश की
आतुर हठी जवानी का
कहते हैं उसको जय प्रकाश
जो नही मरण से डरता है
ज्वाला को बुझते देख कुंड में
स्वयं जो कूद पड़ता है
है जय प्रकाश वह टिकी हुई
जिस पर स्वदेश की आशा है
हाँ जय प्रकाश है नाम समय की
करवट का अंगड़ाई का
भूचाल बवंडर के ख्वाबों से
भरी हुई तरूणाई का।

जेपी आजादी की लड़ाई के वह सिपाही थे, जिन्होंने नेहरू जी की मंत्रिपद की पेशकश ठुकरा दी थी। सत्ता लिप्सा से दूर। पांचवें दशक की शुरुआत में राजनीति से खुद को विलग कर लिया। जवानी में साम्यवादी। कांग्रेस के समाजवादी धड़े की अगली कतार में। विनोवा जी के भूदान आंदोलन में सक्रिय। किसानों-मजदूरों-वंचितों के लिए सतत संघर्ष। चम्बल के डाकुओं के आत्मसमर्पण का अनूठा प्रयोग। 1974 में गुजरात में छात्रों का नवनिर्माण आंदोलन। फिर बिहार के भ्रष्टाचार विरोधी छात्र-युवा आंदोलन की अगुवाई, जो राज्यों से गुजरता दिल्ली के सिंहासन को हिलाने लगा था। 1942 में जवान जेपी अंग्रेजी हुकूमत के लिए खतरा थे। 1974-75 में बूढ़े जेपी शरीर से अशक्त थे । पर अपनी नैतिक ताकत से सब पर भारी थे। सबको उनकी जरूरत थी। उनकी शक्ति में लोगों का विश्वास अपार। वह उम्मीदों के केंद्र थे। धर्मवीर भारती ने तब लिखा,

खलक खुदा का मुल्क बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो आम को आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें

अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ाकर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर साल का बूढा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सच बोलता हुआ निकल पड़ा है।

फ़िर 1975 की इमरजेंसी। 19 महीने का वह घटाघोप अंधियारा। जेपी सहित तमाम विपक्षी जेलों में। बोलने-लिखने-छपने पर पाबंदी। मुँह पर ताला। सभी बुनियादी अधिकार निलंबित। तब भी उजियारे की उम्मीद जेपी ही थे। दुष्यंत कुमार लिख रहे थे,

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।

ये जेपी थे जिन्होंने 1977 में जनसंघ,लोकदल,कांग्रेस(ओ) और सोशलिस्ट पार्टी का विलय कराके जनता पार्टी बनवा दी। ये दूसरी आजादी की लड़ाई थी। नायक जेपी थे। इंदिराजी सत्ता से बाहर हुईं । जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार और पार्टी पर जेपी की नकेल मुमकिन नही थी। निष्क्रिय गुर्दों ने उन्हें जसलोक अस्पताल तक सीमित कर दिया। सरकार अल्पजीवी थी। जनता पार्टी भी नही चली। क्यों-कैसे ? कौन दोषी ? वह अलग कथा है। पर उसका एक घटक जनसंघ 1984 के शुरुआती झटके के बाद भारतीय जनता पार्टी के नए अवतार में आगे ही बढ़ता गया।
आडवाणी जी जनसंघ के लिए जेपी के निकट आने का मतलब अपनी आत्मकथा , ” मेरा देश मेरा जीवन ” में बयान करते हैं ,” इस आंदोलन (1974-75 ) के दौरान जयप्रकाशजी समझ गए थे कि किसी एक गैर राजनीतिक छात्र संगठन या किसी एक गैर कांग्रेसी पार्टी के वश की बात नही है कि वह अकेले भ्रष्टाचार और दमनकारी तंत्र के विरुद्ध संघर्ष कर सके। इस समझ ने उन्हें सभी विपक्षी दलों के साथ एक साझा लोकतंत्र समर्थक और भ्रष्टाचार विरोधी साझा मंच की स्थापना के उद्देश्य से प्रेरित किया। वे कई गैर कांग्रेस दलों , विशेषकर साम्यवादियों के मन में जनसंघ के प्रति जो घृणा थी, उससे परिचित थे। तथापि उन्होंने मन बना लिया था कि कांग्रेस शासन के विरुद्ध व्यापक संघर्ष में जनसंघ को शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जाए। एक दिन उन्होंने अटल जी एवम मुझसे बात की और कहा ,” मुझे आपके सहयोग की आवश्यकता है। आपको मेरे आंदोलन में शामिल होना चाहिए।”
आडवाणी जी खुलकर स्वीकार करते हैं , ” वास्तव में मैंने जेपी आंदोलन के माध्यम से सम्पूर्ण देश में जनसंघ की लोकप्रियता और जनाधार फैलाने का अवसर देखा।” हैदराबाद में वरिष्ठ नेताओं की बैठक बुलाई और जयप्रकाश जी की पेशकश स्वीकार किये जाने के पक्ष में दलील दी, ” हम जनसंघ के लोग अपनी राजनीतिक यात्रा में उस बिंदु पर पहुंच चुके हैं, जहां आगे हमारा विस्तार और कांग्रेस के वर्चस्व काअंत तभी सम्भव है जब हम दूसरे उन लोगों से हाथ मिलाएं, जिनके उद्देश्य समान हैं।” हैदराबाद में पार्टी ने उनके प्रस्ताव को अनुमोदित कर दिया। परिणामस्वरूप, जनसंघ पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर और कई गैरकांग्रेसी और गैर कम्युनिस्ट पार्टियों से निकट संबंध बनाने में सक्षम हुआ। खुद आडवाणी जी ने इन पार्टियों के बड़े नेताओं जार्ज फर्नांडीज, मधु लिमये, मधु दंडवते, चरण सिंह, देवेगौड़ा और कर्पूरी ठाकुर आदि से बातचीत की और निकट संपर्क बनाए।
आडवाणी जी लिखते हैं , ” अपनी युवावस्था में कट्टर मार्क्सवादी रहे जयप्रकाश जी यह मानते थे कि गांधी जी की हत्या में संघ का हाथ था। 1948 में दिल्ली में आर्गेनाइजर कार्यालय के सामने संघ के विरोध में उन्होंने एक प्रदर्शन भी किया। इसलिए उन जैसे व्यक्ति के लिए जनसंघ से हाथ मिलाना बहुत आसान नही था। फिर भी ऐसा दो कारणों से संभव हुआ। वे राष्ट्रीय हित में विशेषकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए , सभी गैरकांग्रेसी ताकतों को एक मंच पर लाने के निश्चित मत के थे। दूसरी ओर वे एक महान बौद्धिक निष्ठा सम्पन्न व्यक्ति थे तथा राजनीति में अवसरवाद से घृणा करते थे। इसलिए वे खुले संवाद के माध्यम से संघ और जनसंघ के प्रति पहले अपनी शंकाओं का समाधान चाहते थे। इस संदर्भ में हम उन्हें पूर्ण रूप से संतुष्ट करने में सफल रहे।”
7 मार्च 1975 को दिल्ली में जनसंघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में विशेष अतिथि के रुप में जयप्रकाश जी की मौजूदगी ने देश के राजनीतिक क्षेत्रों में हलचल मचा दी थी। कई लोगों ने उन्हें रोकने की कोशिश करते हुए कहा था ,” आप जनसंघ जैसी फासीवादी पार्टी के बहुत नजदीक होते जा रहे हैं।” जेपी ने जबाब दिया था ,” मैं इस सत्र में देश को यह बताने के लिये आया हूँ कि जनसंघ न तो फासिस्ट पार्टी है और न ही प्रतिक्रियावादी। इस बात को मैं जनसंघ के मंच से ही घोषित करना चाहता हूं। यदि जनसंघ फासिस्ट है तो जयप्रकाश नारायण भी एक फासिस्ट हैं। ” तब उन्होंने इंदिरा जी की सरकार पर हमला बोलते हुए कहा था ,” फासीवाद के सूरज का अन्यत्र उदय हो रहा है।”
जेपी को संघ-जनसंघ के नजदीक लाने में तीन बड़े नेताओं आडवाणी जी, नाना जी देशमुख और अटल जी की बड़ी भूमिका थी। खुद इन नेताओं पर भी जेपी ने अपना बड़ा प्रभाव छोड़ा। आडवाणी जी याद करते हैं ,” जयप्रकाश नारायण के साहचर्य का हमारी नई विचारधारा पर काफी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। हम उनके व्यक्तित्व और मान्यताओं से बहुत प्रभावित थे। वह प्रभाव इसलिए और भी गहरा था, क्योंकि उन्होंने स्वंय हमारे संबंध में अपनी भ्रमित धारणा को बदल दिया और एक आदर व पारस्परिक विश्वास का रिश्ता जोड़ा। हमारी नई सोच नई पार्टी ( भाजपा ) के चिन्ह से भी स्पष्ट होती थी। कोटला मैदान ( 5,6 अप्रैल 1980 नई पार्टी के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन ) में मंच के पीछे जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुकर्जी और विचारक और आदर्श पंडित दीन दयाल उपाध्याय के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण का भी चित्र था।” 1986 में अध्यक्ष के रुप में आडवाणी जी ने एक बार फिर जेपी को पार्टी की प्रेरक शख्सियतों में शामिल किया। राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्होंने कहा ,” भाजपा कटुता को मिटाकर अपने कार्य-व्यवहार , सेवा व त्याग से यह सिद्ध कर दिखाए कि गांधी और जयप्रकाश , मुकर्जी और उपाध्याय से प्रेरित यह पार्टी सचमुच सब पार्टियों से अलग है।”
जेपी से प्रभावित जनसंघ के दूसरे बड़े नेता नानाजी देशमुख का जन्मदिन भी उन्ही की भांति 11 अक्टूबर है। उन्होंने 4 नवम्बर 1975 को पटना में पुलिस लाठीचार्ज में घायल होकर गिरे जेपी को और चोटों से बचाने के लिए खुद लाठियों के प्रहार झेले। जनता पार्टी सरकार में मंत्रिपद ठुकराया । साठ साल की उम्र पूरी होने पर राजनीति को अलविदा कहा। फिर जीवन पर्यन्त सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित रहे। उनके अनेक सेवा प्रकल्पों में जयप्रकाश जी और उनकी पत्नी प्रभावती की याद में गोंडा का जयप्रभा ग्राम शामिल है।
और अटलजी ने 8 अक्टूबर 1979 को जेपी के महाप्रयाण के बाद कहा,” जेपी केवल एक व्यक्ति मात्र का नाम नही था, वह मानवता का प्रतीक था। जब लोग उन्हें याद करते हैं तो उनके मन में दो तस्वीरें आती हैं। एक शरशैय्या पर लेटे भीष्म पितामह की याद दिलाती है। भीष्म पितामह और जेपी में एकमात्र अंतर था- पितामह ने महाभारत की लड़ाई कौरवों के लिए लड़ी थी, जबकि जेपी ने आपातकाल के विरुद्ध युद्ध में न्याय के लिए लड़ाई लड़ी। दूसरी तसवीर जो याद आती है, वह सूली पर चढ़े ईसा मसीह की है। जेपी का जीवन ईसा मसीह के बलिदानों की याद दिलाता है।”

 

सम्प्रति-लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।