हाल ही में बच्चों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया है कि सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार कानून लागू करने के बावजूद भारत में 13 वर्ष आयु के 60 फीसदी छात्र तीसरी कक्षा पास करने के पहले ही अपनी पढ़ाई छोड़ रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 124 मिलियन से ज्यादा बच्चे शिक्षा से वंचित है इनमें 17.7 मिलियन यानि 14 फीसदी बच्चे भारत के हैं।ये बच्चे निम्न, मध्यम और निम्न आय वर्ग परिवार से ताल्लुकात रखते हैं।
हालांकि यूनिसेफ की रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि भारत में बुनियादी शिक्षा की बेहतरी के लिए उठाये जा रहे सरकारी कदमों के फलस्वरूप पहले और अब की स्थिति में अंतर आया है। देश में साल 2009 में 13 साल की उम्र में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या जहां 88 लाख थी वहीं अब घटकर यह संख्या छह लाख रह गयी है। बहरहाल शिक्षा के अधिकार वाले देश में हालिया रिपोर्ट देश के नीति-नियंताओं के लिए निश्चय ही चौंकाने वाला है।क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकार बुनियादी शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने और बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित करने के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। सरकार द्वारा इस दिशा में आंगनबाड़ी केन्द्र, सर्वशिक्षा अभियान, बच्चों को निःशुल्क मिड-डे-मील, गणवेश, पाठ्य पुस्तकें तथा लड़कियों को सायकिल देने जैसी योजनाएं लागू की गयी है जिसमें हर साल अरबों रूपये खर्च की जा रही है।
अकेले सर्व शिक्षा अभियान के लिए सरकार द्वारा 2014-15 में 26,635 करोड़ रूपये, 2015-16 के बजट में 22,000 करोड़ रूपये तथा चालू वित्तीय वर्ष में 22,500 करोड़ रूपये आबंटित किए गए हैं। लेकिन विडंबना है कि इस बजट का अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा है। दूसरी ओर एनुअल स्टैटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के अनुसार सरकार के उक्त प्रयासों का अच्छा प्रतिसाद मिला है। ‘असर’ के अनुसार हमारे देश में इस समय सरकारी क्षेत्रों के प्रायमरी स्कूलों में नामांकन का प्रतिशत 26 प्रतिशत है। लेकिन इस रिपोर्ट का निराशाजनक पहलू यह भी है कि इनमें से 60 फीसदी छात्र तीसरी कक्षा के पहले ही अपनी पढ़ाई छोड़ रहे हैं जबकि 90 फीसदी छात्रों को दसवीं और बारहवीं कक्षा के बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पढ़ रही है।छत्तीसगढ़ राज्य के शिक्षा विभाग की मानें तो बीते सत्र 2015-16 में प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल स्तर पर लगभग 50 हजार छात्रों ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।
बहरहाल आज के बच्चे जो कल के देश के भविष्य हैं का स्कूलों से दूर होना भारत जैसे विकासशील देश के लिए चिंतनीय है।शिक्षा केवल व्यक्तिगत आवश्यकता नहीं अपितु देश के सर्वांगीण विकास के लिए भी जरूरी है। क्योंकि देश का आवाम महज इंसान नहीं अपितु यह विकास के लिए अनिवार्य मानव संसाधन भी है। गरीब बच्चों के स्कूल से विमुख होने का दुष्परिणाम देश की साक्षरता पर भी पड़ेगा जो सीधे तौर पर अर्थव्यवस्था पर असर डालेगी।ग्लोबल मानिटरिंग रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वयस्क निरक्षरों की संख्या 28 करोड़ 70 लाख है जो दुनिया भर के कुल निरक्षरों की संख्या का 37 फीसदी है। दूसरी ओर आज के दौर में भी भारत के दो तिहाई गरीब बच्चे बुनियादी शिक्षा से वंचित है।ये गरीब अशिक्षित बच्चे ही भविष्य में निरक्षरों की एक बड़ी फौज खड़ी करेंगे।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एन.एस.एस.ओ.) के अनुसार निरक्षरता के कारण भारत को हर साल तकरीबन 53 अरब डालर यानि करीब 27 खरब रूपए का नुकसान उठाना पड़ रहा है।यह स्थिति उस देश की है जहां हर वर्ष 25 लाख से ज्यादा लोग भूख से मरते हैं तथा 20 करोड़ से ज्यादा लोग रोज रात को भूखे सोने के लिए मजबूर हैं, जहां दुनिया के कुल गरीब लोगों में से 33 फीसदी लोग रहते हैं। दरअसल गरीब बच्चों के स्कूल छोड़ने की विवशता का अहम कारण गरीबी और भुखमरी भी है। गरीबी के चलते देश में 14 साल के कम उम्र के 15 करोड़ बच्चे पढ़ाई-लिखाई छोड़कर बाल श्रम के लिए मजबूर हैं। गरीब तबके में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ीवादी परंपरा तथा पुरूष प्रधान मानसिकता के चलते लैंगिक असमानता भी शिक्षा के विकास में बाधक बनी हुई है। रोजगार के लिए पलायन के लिए मजबूर गरीब परिवारों के बच्चे और बच्चियां स्कूल से दूर हैं। सरकार के तमाम योजनाओं और कोशिशों के बावजूद अभी भी ग्रामीण और गरीब बस्तियों की लड़कियां बुनियादी शिक्षा से दूर हैं।ग्रामीण भारत में 47.5 फीसदी तथा शहरी भारत में 22.6 फीसदी महिलाऐं निरक्षर हैं।
दरअसल भारत की बदहाल बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था और सरकारी निर्णय तथा अदूरदर्शी गरीब बच्चों को स्कूल से दूर कर रही है। कहा जाता है कि बुनियादी शिक्षा देश के लिए बुनियाद का काम करती है तथा किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक सेहत उसकी बुनियादी शिक्षा पर ही निर्भर करती है। लेकिन भारत में स्कूली शिक्षा के मामले में यह बात ठीक उलट है। देश में खासकर ग्रामीण भारत में प्राथमिक शिक्षा के हालात बहुत ही खराब है। शिक्षा के अधिकार दिलाने वाले देश में स्कूली शिक्षा सरकारी-निजी, शहरी-ग्रामीण और अमीरी-गरीबी के गहरी खाई में बंटी हुई है। एक तरफ मूलभूत सुविधाओं और शिक्षकों से वंचित सरकारी स्कूल हैं जिस पर गरीब तबका निर्भर है वहीं दूसरी ओर सर्व सुविधायुक्त-अत्याधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण अभिजात्य वर्गों के लिए पांच सितारा निजी स्कूल है। इन परिस्थितियों में समतामूलक बेहतर शिक्षा की कल्पना सहज ही की जा सकती है।
सरकारी योजनाओं एवं क्रियान्वयन में विरोधाभाष का आलम यह कि एक तरफ तो सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत लगातार स्कूल खोल रही है वहीं कई राज्य सरकारों द्वारा इन स्कूलों में शिक्षकों की कमी या अतिशेष शिक्षकों का तर्क देकर स्कूल बंद किया जा रहा है।छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों के हजारों सरकारी स्कूलों को युक्तियुक्तकरण के नाम पर बंद किया जा चुका है। सरकार के इन निर्णयों के चलते भी ग्रामीण बच्चे स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं वहीं शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। बहरहाल शिक्षा और स्वास्थ्य हर नागरिक का मौलिक अधिकार है यदि समाज का कोई भी तबका इससे वंचित रहता है तो यह निश्चय ही चिंताजनक है। सरकार और समाज का दायित्व है कि गरीब बच्चों को भी शिक्षा के मुख्यधारा में लाया जावे ताकि अंत्योदय और समावेशी विकास की अवधारणा फलीभूत हो सके।
सम्प्रति-लेखक डा.संजय शुक्ला शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में लेक्चरर है।
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