
इन दिनों ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ जिसे सामान्य बोलचाल में आजकल ‘एमएसपी’ कहा जाता है, को कथित अर्थशास्त्रियों, सरकारी विशेषज्ञों तथा मीडिया के एक विशेष धड़े ने अंधों का हाथी बना डाला है। हाल ही में अशोक गुलाटी जैसे “कथित” अर्थशास्त्री ने देश को दो टूक ज्ञान दिया है कि “कानूनी एमएसपी असम्भव है ; जो सरकार इसे लागू करेगी “डूब जाएगी।” हमारा स्पष्ट रूप से मानना है कि यह घोषणा मात्र भय-शास्त्र है, अर्थशास्त्र तो कतई नहीं।
*उपलब्ध आँकड़े, वैश्विक व्यवहार और भारत के अपने क़ानून बताते हैं कि कानूनी एमएसपी न केवल सम्भव है, बल्कि अनिवार्य है, यदि डिज़ाइन तथा क्रियान्वयन इमानदारी तथा बुद्धिमत्ता से हो।
इस मुद्दे को हम निम्न बिंदुओं से और ज्यादा स्पष्ट करना चाहेंगे:-
(1) हमारा मूल प्रस्ताव: सरकार मजबूर खरीदार नहीं, न्याय का मजबूत रेफरी बने :-
अखिल भारतीय किसान महासंघ आईफा का स्पष्ट मत है: सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। *हम सरकार से यह कहते ही नहीं कि “आप हमारा सारा उत्पादन खरीद लें।” हम कहते हैं , सरकार ‘न्यूनतम न्यायपूर्ण मूल्य’ का नियम बनाए और कड़ाई से लागू करे कि उसे मूल्य से कम मूल्य पर कहीं भी खरीदी ना हो।
हर वर्ष, स्वामीनाथन फार्मूला (कम-से-कम C2+50%) के अनुरूप सभी फसलों का एमएसपी तय हो।इसके बाद बाज़ार में एक ग्राम फसल भी एमएसपी से नीचे कोई व्यापारी न खरीद सके, यह दंडनीय अपराध हो।निजी व्यापार, प्रोसेसिंग, निर्यात,, सब पूर्ववत चलें; फर्क बस इतना कि किसान की मेहनत और लागत के नीचे ‘क़ीमत की छत’ न टूटे।यह प्रस्तावित ढाँचा सरकार-नियंत्रित खरीद पर नहीं, बल्कि सरकार-नियंत्रित न्यूनतम कीमत-पालन पर आधारित है। इसकी लागत है, निगरानी और प्रवर्तन; अनाज खरीदना , उठाना, ढोना , गोदाम भरना नहीं।
(2) भारत में उदाहरण मौजूद—गन्ना-FRP एक वैधानिक मिसाल है:-
कृषि क़ीमत की कानूनी बाध्यता भारत में नई नहीं। गन्ने का FRP क़ानूनन देय है; 14 दिनों में भुगतान का नियम, देरी पर 15% वार्षिक ब्याज और वसूली के राजस्व-अधिनियम जैसे दंडात्मक रास्ते विद्यमान हैं। यही “कानूनी गारंटी” का सांचा है, जिसे खाद्यान्न-दाल-तिलहन सहित अन्य फसलों पर भी स्मार्ट तरीके से लागू किया जा सकता है।
*(3)ओईसीडी का विश्लेषण बताता है कि भारत में किसानों को मिला नेट सपोर्ट कई वर्षों तक नकारात्मक रहा। यानि नीतियों और बाज़ार संरचना के चलते किसान अप्रत्यक्ष कर/दाम-दमन झेलते रहे। यह किसान का “अनिवार्य बोझ” नहीं, उसके हक़ की कटौती है। कानूनी एमएसपी गारंटी इस नकारात्मक समर्थन को आय-सुरक्षा में बदल सकता है।
(4) सवाल किया जाता है कि ऐसा “दुनिया में कहाँ होता है?”
तो देखिए अमेरिका-यूरोप की नीतियों को :-
अमेरिका में ARC/PLC जैसे प्रोग्राम क़ीमत/राजस्व गिरने पर सीधे सुरक्षा-कवच देते हैं ! क़ानूनन, हर साल।
यूरोप की CAP किसानों को आय-सहायता, बाज़ार-स्थिरीकरण, संकट-हस्तक्षेप तक की व्यवस्था देती है। स्पष्ट है: आय/क़ीमत-सुरक्षा और मुक्त बाज़ार विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं।
(5) भारत का मौजूदा टूलकिट, खरीद की सीमा, परंतु ‘क़ीमत-फ्लोर’ की कमी :-
तिलहन-दालों में वर्षों से PSS/PM-AASHA के तहत NAFED आदि द्वारा सीमित और टार्गेटेड खरीद होती है; हालिया नीतिगत ढाँचे में PSS के तहत राष्ट्रीय उत्पादन के अधिकतम 25% तक खरीद का स्पष्ट उल्लेख है। यानी “असीमित खरीद से सरकार डूब जाएगी” यह भय तथ्य-विरोधी है; नीतियाँ पहले ही ‘सीमित-खरीद’ का रास्ता दिखाती हैं।
असल सवाल यह है कि जहाँ सरकार खरीद नहीं करती, वहाँ किसान एमएसपी से नीचे बिकवाली से कैसे बचें? यहीं ‘कानूनी एमएसपी-गारंटी’ , यानी ‘एमएसपी से नीचे खरीद पर दंड’ की व्यवस्था की जरूरत है।
(6) “ख़ज़ाने पर बोझ ? बिल्कुल नहीं,₹1 भी नहीं, बल्कि उल्टे सरकारी आमदनी बढ़ाने का है यह माडल”,
खरीद करना ही नहीं, कानून-पालन की लागत जीरो, उल्टे सरकार की आमदनी बढ़ेगी : –
कानूनी एमएसपी-गारंटी में सरकारी खरीद अनिवार्य नहीं; अतः उठान-भंडारण-लीकेज वाला बड़ा खर्च नहीं बनेगा। निगरानी/प्रवर्तन कार्य में सरकार के वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था को बड़े आराम से लगाया जा सकता है जिससे इस कार्य में कोई अतिरिक्त प्रशासनिक लागत भी नहीं होगी, नियम तोड़ने वाले व्यापारियों को डैंड्रफ आर्थिक जुर्माना से सरकार की आमदनी भी बढ़ेगी और सरकारी खजाना भी भरेगा तथा देश के किसानों की आय-स्थिरता बढ़ेगी। इससे देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।
याद रहे सरकार बड़े पैमाने पर खाद्यान्न मुफ़्त/सब्सिडी पर पहले ही दे रही है; PMGKAY को पाँच वर्ष (1 जनवरी 2024 से) बढ़ाने के साथ कुल सब्सिडी अनुमान ₹11.8 लाख करोड़ बताई गई। किसान को न्यूनतम न्याय दिलाने वाला क़ानून इस कल्याण-व्यय का विकल्प नहीं बल्कि पूरक सुधार है।
( 7) “एमएसपी से उपभोक्ता महँगाई बढ़ेगी ?”
जरा इन आँकड़ों पर नज़र डालें:-
आज गेहूँ का एमएसपी (RMS 2025-26) ₹2425/क्विंटल है (₹24.25/किलो), जबकि खुदरा बाजार में आटा अक्सर ₹35–₹50/किलो (कई ब्रांडेड पैक ₹55–₹60) के दायरे में बिकता है; सरकार का ‘भारत आटा’ तो ₹30/kg की कैप पर चल रहा है। किसान-से-उपभोक्ता मार्जिन भारी है,, परंतु यह मार्जिन किसान को नहीं, बीच की शृंखलाओं को मिलता है। एमएसपी-गारंटी किसान की बॉटम-लाइन सुरक्षित करती है; ऊपर के मार्जिन में दक्षता-सुधार, लॉजिस्टिक्स और प्रतिस्पर्धा से जगह बनती है।
(8)यह “कैसे लागू होगा? तीन-स्तरीय, वित्त-अनुशासित मॉडल :-
(क) वैधानिक फ्लोर + दंड:-
एमएसपी से नीचे खरीद निषिद्ध होगा । उल्लंघन पर भारी जुर्माना/लाइसेंस निलंबन/फौजदारी कार्यवाही की व्यवस्था होगी; गन्ना-FRP के समान समयबद्ध भुगतान और देरी पर ब्याज/रिकवरी का स्पष्ट प्रावधान रखा जाएगा।
(ख) ‘दाम-अंतर भुगतान’ (Price Deficiency Payment) जहाँ खरीद व्यवहार्य नहीं:
जहाँ लॉजिस्टिकली सरकारी उठान कठिन हो, वहाँ सीधे किसान के खाते में एमएसपी–हकीकती दाम के अंतर राशि का भुगतान (जैसे म.प्र. का ‘भावांतर’ मॉडल; केंद्र के PDPS/PM-AASHA दिशानिर्देश)। इससे गोदाम/स्टॉक-लागत नहीं बढ़ती, और निजी व्यापार चलता रहता है।
(ग) बाज़ार और सुधार साथ-साथ:-
E-NAM, भंडारण-कोल्ड-चेन, परिवहन, FPOs, प्रोसेसिंग, इन पर समांतर निवेश हो। इससे बीच के मार्जिन सिकुड़ते हैं, और उपभोक्ता तक अनाज-आटा या अन्य जरूरी उत्पाद बेहतर दक्षता से पहुँचेगा। (यूरोप/अमेरिका भी आय-सुरक्षा + बाज़ार दक्षता साथ लेकर चलते हैं।)
(9) “सिर्फ़ पंजाब-हरियाणा का खेल?” क्या हो विस्तार की दशा-दिशा :-
आज सरकारी खरीद कुछ राज्यों/कुछ फसलों में सिमटी है; यह कानूनी एमएसपी के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि इसके पक्ष में ठोस तर्क है। कानूनी फ़्लोर के साथ पूर्वी/दक्षिणी भारत, मिलेट्स, दाल-तिलहन तक आय-सुरक्षा का विस्तार। हाल के वर्षों में दाल-तिलहन में PSS/PM-AASHA की पहुँच बढ़ी है; कानूनी फ़्लोर इसे सर्व-फसली और सर्व-राज्य बनाता है।
*(10) वर्तमान सरकारी खरीद नीति का नैतिक आधार भारत जैसे विशाल देश में गरीबों के लिए आवश्यक कल्याण-नीति है और वैधानिक NFSA/PMGKAY के तहत चल भी रही है; किंतु देश के बहुसंख्य मजबूर किसानों के उत्पाद का वाजिब मूल्य दिलाना कल्याण का विकल्प नहीं, न्याय का कर्तव्य है। सरकार यदि उपभोक्ता-पक्ष के लिए इतना बड़ा बजट वहन कर सकती है, तो उत्पादक-पक्ष के लिए न्यूनतम न्याय का क़ानून लागू कराना तो और भी युक्तिसंगत है।
11) “दिल्ली की कॉफी बनाम खेत की मिट्टी”—एक स्पष्ट आमंत्रण :-
एसी कमरों की थ्योरी से धान की नमी नहीं सूखती और न दालों की बोआई होती है । मैं देश के अर्थशास्त्रियों/नीतिनिर्माताओं , जिनमें गुलाटी जी भी शामिल हैं को बड़े सम्मान के साथ बस्तर हमारे अथवा हमारे साथी किसानों को खेतों पर आमंत्रित करता हूँ : बस दो सीज़न खेत में साथ काम कीजिए, फिर बताइए कि क़ीमत का फ़्लोर “आडंबर” है या आय-सुरक्षा की रोटी। महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के कृषक संकट हमारे सामने हैं; काग़ज़ी औसत तथा मोटापा घटाने के लिए इंटरमीडिएट फास्टिंग करने वाले विशेषज्ञ, आधा पेट भोजन और अधूरे भुगतान का दर्द नहीं माप सकते ते। यह व्यक्तिगत आरोप नहीं, व्यवहारिक आग्रह है, नीति आयोग के वर्तमान कुलित कमरों में एवं इंडिया हैबिटेट सेंटर में बैठकर नहीं बस्तर की धरती पर खेतों में बैठकर नीति बनाइए। तभी आपकी नीतियां किसान के काम की होंगी। नीति बनाने से पहले नीयत ठीक करना भी उतना ही जरूरी है। जब आपकी हर नीति का अंतिम लक्ष्य उसके जरिए वोट बटोर ना होता है वहां अर्थशास्त्र एक साथ अंधा और लंगड़ा दोनों हो जाता है।
12) “अंतिम तर्क”: एमएसपी गारंटी कानून बाज़ार को बाँधना नहीं, बाज़ार को सभ्य बनाना है
कानूनी एमएसपी गारंटी निजी व्यापार के ख़िलाफ़ नहीं; यह न्यूनतम सभ्यता-रेखा है,, जिसके नीचे बेचना-कानूनन अवैध हो। अमेरिका-यूरोप में यह सभ्यता किसी न किसी रूप में दशकों से क़ानून है; भारत में गन्ना-FRP इसका प्रमाण है। PSS/PM-AASHA जैसे टूल बताते हैं कि सीमित और टार्गेटेड हस्तक्षेप फ़िस्कली प्रूडेंट ढंग से चलाए जा सकते हैं; हमें बस एक समेकित, दंड-सक्षम एमएसपी-गारंटी कानून चाहिए।
प्रस्ताव—एमएसपी-गारंटी कानून / AIFA का व्यवहारिक ड्राफ़्ट- मसौदा:-
1. कानूनी फ़्लोर: C2+50% के मानक पर तय MSP से नीचे खरीद दंडनीय अपराध, समुचित जुर्माना, लाइसेंस निलंबन, और पुनरावृत्ति पर वाणिज्यिक प्रतिबंध, तथा आपराधिक मामला दर्ज हो।
2. समयबद्ध भुगतान: गन्ना-FRP की तर्ज़ पर T+14 दिन में भुगतान, देरी पर दंडात्मक ब्याज और राजस्व-रिकवरी का प्रावधान।
3. दाम-अंतर भुगतान (PDP): जहाँ उठान संभव नहीं, वहाँ सीधे अंतर की भरपाई। भावांतर/PDPS की राष्ट्रीयकृत, पारदर्शी व्यवस्था कायम की जाय।
4. सीमित-खरीद/बफ़र: PSS के तहत टार्गेटेड, समय-सीमित उठान; दाल-तिलहन में आत्मनिर्भरता से आयात-बिल भी घटेगा।
5. बाज़ार-सुधार: E-NAM, वेयरहाउसिंग, कोल्ड-चेन, FPOs, प्रोसेसिंग पर निवेश और प्रतिस्पर्धा; किसान-से-उपभोक्ता मार्जिन तर्कसंगत बनाएं।
6. पारदर्शिता: MSP शेड्यूल समय पर, सभी मंडियों/पोर्टलों पर रियल-टाइम प्रवर्तन मॉनिटरिंग; शिकायतों के लिए 180-दिन में निपटान की वैधानिक समय सीमा निर्धारित हो।
“यह बहस “ख़ौफ़” नहीं “डाटा” पर टिकी है” पेश है इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण तथ्य तथा आंकड़े:-
MSP (2025-26): गेहूँ ₹2425/क्विंटल; धान (कॉमन) ₹2369, ग्रेड-A ₹2389।
खुदरा आटा: अखिल-भारतीय औसत 2025 की पहली छमाही में ~₹40/kg के आस-पास; सरकारी ‘भारत आटा’ ₹30/kg पर कैप्ड; ब्रांडेड पैक अनेक जगह ₹50–₹60/kg। (प्राइस रेंज का संकेत)
PMGKAY: नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण को 1 जनवरी 2024 से पाँच वर्ष बढ़ाया गया; अनुमानित कुल सब्सिडी ~₹11.8 लाख करोड़।
गन्ना-FRP: भुगतान 14 दिन में; देरी पर 15% ब्याज; रिकवरी के वैधानिक प्रावधान।
PSS/PM-AASHA: दाल-तिलहन/कोप्रा में सीमित और अनुमोदित खरीद (राष्ट्रीय उत्पादन के 25% तक)—टार्गेटेड सपोर्ट का मौजूदा ढाँचा।
अंतरराष्ट्रीय साक्ष्य: US-ARC/PLC और EU-CAP—क़ीमत/आय सुरक्षा की दशकों पुरानी कानूनी संरचनाएँ।
अंत में मै यह बात खम ठोक कर कहना चाहूंगा कि कानूनी एमएसपी बाज़ार पर हमला नहीं; शोषण पर रोक है, जैसे न्यूनतम मज़दूरी, वैसा ही न्यूनतम फ़सल-मूल्य। यह एहसान नहीं, अधिकार है; सरकार से हमारा आग्रह हमारा उत्पादन खरीदने का नहीं,बल्कि सालों साल से लगातार लूट के शिकार देश के किसानों के पक्ष में न्याय-प्रवर्तन का है। जो इसे “डूबने” का ख़तरा बताते हैं, उनसे विनम्र निवेदन है, कागजों , कंप्यूटर लैपटॉप से से दो क़दम आगे बढ़िए, खेत की मेड़ तक आइए; तब समझ आएगा कि एमएसपी-गारंटी कितनी आर्थिक रूप से तर्कसंगत और नैतिक रूप से अपरिहार्य है। भारत के किसान दान नहीं, दाम माँगते हैं,,, और वह क़ानून से ही सुनिश्चित होगा।
सम्प्रति- लेखक डॉ.राजाराम त्रिपाठी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ तथा अखिल भारतीय किसान महासंघ (AIFA) के राष्ट्रीय संयोजक हैं।