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राष्ट्रपति से वनवासियों को वन अपराधी बनाने वाली अधिसूचना निरस्त करने की मांग

रायपुर 20 जुलाई।कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव राजेश तिवारी ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के हितों के विपरीत केन्द्र सरकार के केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा गत 28 जून को जारी अधिसूचना क्रमांक 459 को निरस्त किए जाने की मांग की हैं।

श्री तिवारी ने आज भेजे पत्र में राष्ट्रपति को बताया हैं कि इस अधिसूचना से अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग के के हितों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा एवं उनके मौलिक अधिकार समाप्त हो जाएंगे।इससे आदिवासी एवं दलितों को बेघर बार होना पड़ेगा और उनको वन अपराधी बना दिया जाएगा।उन्होने पत्र में कहा हैं कि आप स्वयं इस वर्ग से आते हैं इसलिए आपको इन वर्गों की पीड़ा का एहसास होगा।

उन्होने पत्र में लिखा हैं कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, एक ऐतिहासिक कानून है जिसे संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित किया गया था। यह देश के वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी, दलित और अन्य परिवारों को व्यक्तिगत और सामुदायिक दोनों स्तर पर भूमि और आजीविका के अधिकार प्रदान करता है।अगस्त 2009 में, इस कानून के अक्षरशः अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए, तत्कालीन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एक परिपत्र जारी किया, जिसमें कहा गया था कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत वन भूमि के अन्यत्र उपयोग के लिए किसी भी मंजूरी पर तब तक विचार नहीं किया जाएगा जब तक वन अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का सर्वप्रथम निपटान नहीं कर लिया जाता है। पारंपरिक रूप से वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी और अन्य समुदायों के हितों के संरक्षण और संवर्धन के लिए यह प्रावधान किया गया था।

श्री तिवारी ने पत्र में कहा हैं कि इस परिपत्र के अनुसार, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन और पर्यावरण मंजूरी पर कोई भी निर्णय लेने से पहले आदिवासी और अन्य समुदायों के अधिकारों का निपटान करना जरुरी होगा। परिपत्र में कहा गया है कि इस तरह के किसी भी प्रयोजन को कानून सम्मत होने के लिए प्रभावित परिवारों की स्वतंत्र, पूर्व और सुविज्ञ सहमति प्राप्त करना बाध्यकारी होगा।

उन्होने राष्ट्रपति को बताया हैं कि गत 28 जून को मोदी सरकार द्वारा जारी नियमों के अनुसार अंतिम रुप से वन मंजूरी मिलने के बाद वन अधिकारों के निपटारे की अनुमति दे दी है। जाहिर तौर पर यह प्रावधान कुछ चुनिंदा लोगों को जंगल बेचने या जंगल का नीजिकरण करने के नाम पर किया गया है।परंतु यह निर्णय उस विशाल जन समुदाय के लिए ‘जीवन की सुगमता’ को समाप्त कर देगा, जो आजीविका के लिए वन भूमि पर निर्भर है। यह वन अधिकार अधिनियम, 2006 के मूल उद्देश्य और वन भूमि के अन्यत्र उपयोग के प्रस्तावों पर विचार करते समय इसके सार्थक उपयोग के उद्देश्य को नष्ट कर देता है। एक बार वन मंजूरी मिलने के बाद, बाकी सब कुछ एक औपचारिकता मात्र बनकर रह जाएगा, और लगभग अपरिहार्य रूप से किसी भी दावे को स्वीकार नहीं किया जाएगा और उसका निपटान नहीं किया जाएगा। वन भूमि के अन्यत्र उपयोग की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए राज्य सरकारों पर केंद्र की ओर से और भी अधिक दबाव होगा।

उन्होने आरोप लगाया कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 को, वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अनुरूप लागू करना सुनिश्चित करने के संसद द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्व को मोदी सरकार ने तिलांजलि दे दी है। इन नए नियमों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय संबंधी संसद की स्थायी समितियों सहित अन्य संबद्ध हितधारकों से बिना कोई विचार विमर्श और चर्चा किए प्रख्यापित कर दिया गया है।यह अधिसूचना पेसा कानून (अनुसूचित क्षेत्र में पंचायत उपबंध का विस्तार) का भी उल्लंघन करता है। जिसमें यह प्रावधान है कि ग्राम सभा की अनुमति के बगैर जल, जंगल और जमीन का अधिग्रहण केन्द्र या राज्य की सरकार नही कर सकती है।

उन्होने श्री कोविंद से आग्रह किया हैं कि आपका कार्यकाल आगामी 24 जुलाई को समाप्त हो रहा है, इस कारण आपसे अपेक्षा है कि इन बिन्दुओं पर विचार कर इस विधेयक को निरस्त करने का कष्ट करें।