साल 2007 में आई अनुराग बासु निर्देशित फिल्म लाइफ इन ए मेट्रो में मेट्रो शहरों में अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों की कहानी दर्शायी गई थी। उसमें सच्चे प्यार की तलाश, लंबे वैवाहिक जीवन में पति पत्नी के रिश्तों में बढ़ती दूरी, विवाहेतर संबंध, रिश्तों में बेवफाई, पति की गलती को माफ कर दूसरा मौके देने जैसे मुद्दों को उठाया गया था। संगीत उसका अहम हिस्सा था। करीब 18 साल बाद अनुराग बासु मेट्रो… इन दिनों में डिजिटल युग में प्यार के प्रति बदलता नजरिया और जरूरत से ज़्यादा जानकारी ने किस प्रकार रिश्तों को प्रभावित किया है? जैसे मुद्दों को संबोधित करने की कोशिश की है।
इस बार मुंबई के अलावा बाकी मेट्रो शहर दिल्ली, बेंगलूर, कोलकाता और पुणे को भी एक्सप्लोर किया गया है। भले ही इसे सीक्वल फिल्म के तौर पर प्रचारित नहीं किया गया है, लेकिन यह मूल फिल्म की याद दिला जाती है। इस बार पात्रों की संख्या बढ़ी है तो फिल्म की अवधि भी।
पात्रों के जरिए खंगाले अलग-अलग पहलू
कहानी कोलकाता में रहने वाली शिवानी (नीना गुप्ता) और संजीव (शाश्वत चटर्जी) की दो बेटियों और उनसे जुड़े लोगों के आसपास की है। बड़ी बेटी काजोल (कोंकणा सेन शर्मा) की पति मांटी (पंकज त्रिपाठी) के साथ शादी को 19 साल हो चुके हैं। बाहर से उनकी जिंदगी परफेक्ट दिखती है पर है नहीं। उनकी 15 साल की बेटी की अपनी दुविधा है। काजोल की छोटी बहन चुमकी (सारा अली खान) यूं तो एचआर कंसल्टेंट है, लेकिन दब्बू मिजाज की है। आते जाते उसका अधेड़ उम्र का बास यहां वहां छूता है। गुस्सा आने के बावजूद वह बर्दाश्त करती है। चुमकी अपने सहकर्मी से प्यार करती है और जल्द ही दोनों की मंगनी होने वाली है।
एक नाटकीय घटनाक्रम में उसकी मुलाकात ट्रैवल ब्लागर पार्थ (आदित्य राय कपूर) से होती है। दोनों के बीच मेलजोल बढ़ता है। बिंदास पार्थ का दोस्त आकाश (अली फजल) म्यूजीशियन बनना चाहता है, लेकिन श्रुति (फातिमा सना शेख) से शादी और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उसके सपने पीछे छूट गए हैं। उधर, शिवानी के भी शादी से पहले सपने थे, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों में दबकर रह गए। कॉलेज की रीयूनियन पार्टी में वह अपने पूर्व प्रेमी परिमल (अनुपम खेर) से मिलती है। इन पात्रों के जरिए रिश्तों के अलग-अलग पहलू खंगाले गए हैं।
कहां कमजोर पड़ी कहानी?
ढेर सारे पात्रों के साथ कहानी कहने में महारत रखने वाले अनुराग बासु कहानी पर अपनी पकड़ कायम रखते हैं। भले ही इसे सीक्वल फिल्म के तौर पर प्रचारित नहीं किया गया है, लेकिन यह कहीं-कहीं मूल फिल्म की याद दिला जाती है। जैसे पार्थ का चुमकी को अपने अंदर के गुबार को निकालने के लिए चिल्लाने को कहना। मूल फिल्म में यह काम इरफान और कोंकणा करते हैं। मूल फिल्म में इरफान का पात्र लड़कियों को घूरता था। इस बार कुछ वैसा ही अंदाज पंकज त्रिपाठी के पात्र का है। फिल्म की अवधि भी ज्यादा है। बहरहाल, तमाम पात्र और उनकी जटिताओं के बावजूद अनुराग ने फिल्म को इंटेंस नहीं बनने दिया है।
बीच-बीच में प्रीतम, पापोन और राघव चैतन्य अपने संगीत के माध्यम से कहानी के प्रवाह को बढ़ाते हैं, इसलिए गानों की अधिकता है। शुरुआती में रोचक तरीके से पात्रों को स्थापित किया गया है। मध्यांतर के बाद कहानी थोड़ा खिंची हुई लगती है। काजोल और शिवानी से जुड़े प्रसंग को गहराई से छूने की जरूरत थी। श्रुति का झुकाव सहकर्मी की तरफ होता है, लेकिन बाद में उस पर बात नहीं होती।
कलाकारों ने कितनी निभाई अपनी ड्यूटी?
फिल्म में मंझे हुए कलाकार हैं। अनुराग बासु को उनका पूरा सहयोग मिला है। पति पत्नी की भूमिका में पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की केमिस्ट्री शानदार है। दोनों ने अपने पात्रों को बेहतरीन तरीके से जिया है। सारा अली पात्र के अनुरूप दब्बू नहीं लगी है। उनके पात्र से ज्यादा जुड़ाव नहीं महसूस होगा। आदित्य राय कपूर का किरदार बिंदास है। वह उसे खुले दिल से आत्मसात करते दिखते हैं। अली फजल ने संघर्षरत गायक और निजी रिश्तों में बढ़ती दूरी के दर्द को सहजता से आत्मसात किया है।
वहीं श्रुति के मनोभावों को फातिमा सना शेख ने खूबसूरती से दर्शाया है। नीना गुप्ता और अनुपम खेर का काम शानदार है। एक दृश्य में अनुपम भावुक कर जाते हैं। शाश्वत चटर्ची संक्षिप्त भूमिका में याद रह जाते हैं। प्रीतम का संगीतबद्ध अहसास हो या न हो गाना… कर्णप्रिय है। अनुराग बासु और अभिषेक बासु की सिनेमेटोग्राफी उल्लेखनीय है। कई विजुअल्स शानदार हैं।
अगर जिंदगी से रोमांस खो रहा है, प्रेम को लेकर उलझन में हैं तो फिल्म से कुछ सुझाव पा सकते हैं।