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नए समय की चुनौतियों के बीच मीडिया शिक्षा – प्रो.संजय द्विवेदी

         मीडिया शिक्षा में सिद्धांत और व्यवहार का बहुत गहरा द्वंद है। ज्ञान-विज्ञान के एक अनुशासन के रूप में इसे अभी भी स्थापित होना शेष है। कुछ लोग ट्रेनिंग पर आमादा हैं तो कुछ किताबी ज्ञान को ही पिला देना चाहते हैं। जबकि दोनों का समन्वय जरूरी है। सिद्धांत भी जरूरी हैं। क्योंकि जहां हमने ज्ञान को छोड़ा है, वहां से आगे लेकर जाना है। शोध, अनुसंधान के बिना नया विचार कैसे आएगा। वहीं मीडिया का व्यवहारिक ज्ञान भी जरूरी है। मीडिया का क्षेत्र अब संचार शिक्षा के नाते बहुत व्यापक है। सो विशेषज्ञता की ओर जाना होगा। आप एक जीवन में सब कुछ नहीं कर सकते। एक काम अच्छे से कर लें, वह बहुत है। इसलिए भ्रम बहुत हैं। एआई की चुनौती अलग है। चमकती हुई चीजों ने बहुत से मिथक बनाए और तोड़े हैं।

    पत्रकारिता, मीडिया या संचार तीनों क्षेत्रों में बनने वाली नौकरियों की पहली शर्त तो भाषा ही है। हम बोलकर, लिखकर भाषा में ही खुद को व्यक्त करते हैं। इसलिए भाषा पहली जरूरत है। तकनीक बदलती रहती है, सीखी जा सकती है। किंतु भाषा संस्कार से आती है। अभ्यास से आती है। पढ़ना, लिखना, बोलना, सुनना यही भाषा का असल स्कूल और परीक्षा है। भाषा के साथ रहने पर भाषा हममें उतरती है। मीडिया में अनेक ऐसे चमकते नाम हैं, जिन्होंने अपनी भाषा से चमत्कृत किया है। अनेक लेखक हैं, जिन्हें हमने रात भर जागकर पढ़ा है। ऐसे विज्ञापन लेखक हैं, जिनकी पंक्तियां हमने गुनगुनाई हैं। इसलिए भाषा, तकनीक का ज्ञान और अपने पाठक, दर्शक की समझ हमारी सफलता की गारंटी है। इसके साथ ही पत्रकारिता में समाज की समझ, मिलनसारिता, संवाद की क्षमता बहुत मायने रखती है।

      ऐसे पेशेवरों का इंतजार है जो ‘फार्मूला पत्रकारिता’ से आगे बढ़ें। जो मीडिया को इस देश की आवाज बना सकें। जो जन-मन के सपनों, आकांक्षाओं को स्वर दे सकें। मीडिया का संकट यह है वह नागरबोध के साथ जी रहा है। वह भारत के सिर्फ पांच प्रतिशत लोगों की छवियों को प्रक्षेपित कर रहा है। जबकि कोई भी समाज अपनी लोकचेतना से खास बनता है। देश की बहुत गहरी समझ पैदा करने वाले, संवेदनशील पत्रकारों का निर्माण जरूरी है। मीडिया शिक्षा को संवेदना, सरोकार, राग, भारतबोध से जोड़ने की जरूरत है। पश्चिमी मानकों पर खड़ी मीडिया शिक्षा को भारत की संचार परंपरा से जोड़ने की जरूरत है। जहां संवाद से संकटों के हल खोजे जाते रहे हैं। जहां संवाद व्यापार और व्यवसाय नहीं, एक सामाजिक जिम्मेदारी है। मीडिया शिक्षा का विस्तार बहुत हुआ है। हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया शिक्षा के विभाग हैं। चार विश्वविद्यालय- भारतीय जन संचार संस्थान(दिल्ली), माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विवि(भोपाल), हरिदेव जोशी पत्रकारिता विवि(जयपुर) और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(रायपुर) देश में काम कर रहे हैं। इन सबकी उपस्थिति के साथ-साथ निजी विश्वविद्यालय और कालेजों में भी जनसंचार की पढ़ाई हो रही है। अब हमें इसकी गुणवत्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। ये जो चार विश्वविद्यालय हैं वे क्या कर रहे हैं। क्या इनका आपस में भी कोई समन्वय है। विविध विभागों में क्या हो रहा है। उनके ज्ञान, शोध और आइडिया एक्सचेंज जैसी व्यवस्थाएं बनानी चाहिए। दुनिया में मीडिया या जनसंचार शिक्षा के जो सार्थक प्रयास चल रहे हैं, उसकी तुलना में हम कहां हैं। बहुत सारी बातें हैं, जिनपर बात होनी चाहिए। अपनी ज्ञान विधा में हमने क्या जोड़ा। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी एक समय देश में एक ग्लोबल कम्युनिकेशन यूनिर्वसिटी बनाने की बात की थी। लेकिन चीजें ठहरी हुई हैं।

     दुख है कि मीडिया शिक्षा में अब बहुत अच्छे और कमिटेड विद्यार्थी नहीं आ रहे हैं। अजीब सी हवा है। भाषा और सरोकारों के सवाल भी अब बेमानी लगने लगे हैं। सबको जल्दी ज्यादा पाने और छा जाने की ललक है। ऐसे में स्थितियां बहुत सुखद नहीं हैं। पर भरोसा तो करना होगा। इन्हीं में से कुछ भागीरथ निकलेंगें जो हमारे मीडिया को वर्तमान स्थितियों से निकालेगें। ऐसे लोग तैयार करने होंगें, जो बहुत जल्दी में न हों। जो ठहरकर पढ़ने और सीखने के लिए तैयार हों। वही लोग बदलाव लाएंगें। सबसे बड़ी चुनौती है ऐसे विद्यार्थियों का इंतजार जिनकी प्राथमिकता मीडिया में काम करना हो। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह ग्लैमर या रोजगार दे पाए। बल्कि देश के लोगों को संबल, साहस और आत्मविश्वास दे सके। संचार के माध्यम से क्या नहीं हो सकता। इसकी ताकत को मीडिया शिक्षकों और विद्यार्थियों को पहचानना होगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं,यह एक बड़ा सवाल है।

      मीडिया शिक्षा के माध्यम से हम ऐसे क्म्युनिकेटर्स (संचारक) तैयार कर सकते हैं जिनके माध्यम से समाज के संकट हल हो सकते हैं। यह साधारण शिक्षा नहीं है। यह असाधारण है। भाषा,संवाद,सरोकार और संवेदनशीलता से मिलकर हम जो भी रचेगें, उससे ही नया भारत बनेगा। इसके साथ ही मीडिया एजूकेशन कौंसिल का गठन भारत सरकार करे ताकि अन्य प्रोफेशनल कोर्सेज की तरह इसका भी नियमन हो सके। गली-गली खुल रहे मीडिया कालेजों पर लगाम लगे। एक हफ्ते में पत्रकार बनाने की दुकानों पर ताला डाला जा सके। मीडिया के घरानों में तेजी से मोटी फीस लेकर मीडिया स्कूल खोलने की ललक बढ़ी है, इस पर नियंत्रण हो सकेगा। गुणवत्ता विहीन किसी शिक्षा का कोई मोल नहीं, अफसोस मीडिया शिक्षा के विस्तार ने इसे बहुत नीचे गिरा दिया है। दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

       मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो। न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं।

       मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को ‘डिजिटल ट्रांसफॉर्म’ के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।

     पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है? बहुत बेहतर हो मीडिया संस्थान अपने अध्यापकों को भी मीडिया संस्थानों में अनुभव के लिए भेजें। इससे मीडिया की जरूरतों और न्यूज रूम के वातावरण का अनुभव साक्षात हो सकेगा। विश्वविद्यालयों को आखिरी सेमेस्टर या किसी एक सेमेस्टर में न्यूज रूम जैसे ही पढ़ाई पर फोकस करना चाहिए। अनेक विश्वविद्यालय ऐसे कर सकने में सक्षम हैं वे खुद का न्यूज रूम क्रियेट कर सकते हैं।

सम्प्रति – लेखक डा.संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य और अध्यक्ष हैं।