पार्टी में किसी पद की औपचारिक जिम्मेदारी कुबूल करने में प्रियंका गांधी वाड्रा ने बीस वर्ष का वक्त लिया।1999 में उन्होंने अपनी मां सोनिया गांधी के पहले लोकसभा चुनाव की अमेठी में जिम्मेदारी संभाली थी। 2004 से सोनिया के रायबरेली से चुनाव लड़ने और भाई राहुल गांधी के अमेठी से जुड़ने के बाद वह दोनों क्षेत्रों में इसका निर्वाह कर रही हैं। इस बीच कांग्रेसी उनसे अमेठी,रायबरेली के अलावा बाकी देश-प्रदेश में भी सक्रिय होने की मांग करते रहे हैं।ऐन चुनाव के पहले मीडिया भी उनको लेकर अटकलबाजी करता रहा है।किसी मौके पर राहुल तो कभी पार्टी की ओर से यह कहा जाता रहा कि प्रियंका जी को इसका निर्णय खुद करना है।
2019 के चुनाव ने प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने को लेकर अटकलबाजी पर विराम लगा दिया है। यकीनन यह उनका फैसला है। लेकिन इस फैसले में सोनिया और राहुल गांधी की पूरी भागीदारी है। कांग्रेस को प्रियंका की जरूरत पहले से ही थी लेकिन 2014 के नतीजों के बाद तो वह और जरूरी हो गई थीं। अमेठी जहाँ प्रियंका हर चुनाव में सक्रिय रहती हैं, को हर चुनाव में सिर्फ चुनाव में आने का उलाहना मिलता रहा है।ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने कहा था,” में आऊं तो लेकिन तब आप प्रियंका ब्रिगेड और राहुल ब्रिगेड बनाने लगेंगे।” पार्टी राजनीति में राहुल की सक्रियता के साथ पारिवारिक विरासत का फैसला हो गया था।प्रियंका उनके रास्ते में नही आना चाहती थीं।उन्होंने इसके लिए पार्टी पर औपचारिक रूप से राहुल के नियंत्रण का इंतजार किया। तीन राज्यों में जीत के बाद राहुल गांधी की पार्टी के भीतर और बाहर प्रतिष्ठा बढ़ी है।वह आत्मविश्वास से भरे हुए हैं।प्रियंका परोक्ष रूप से पहले भी अपनी मां और भाई को सहायता करती रही हैं।
हाल में तीन राज्यों के मुख्यमंत्री चयन में भी उनकी भूमिका की चर्चा होती रही।पार्टी में प्रियंका को महामंत्री पद और पूर्वी उ.प्र. का प्रभार सौंपे जाने की घोषणा इस दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण है, कि पार्टी की बैठकों-फैसलों में प्रियंका अब सार्वजनिक रूप से मुखर नज़र आएंगी।2019 में बेहतर नतीजों की उम्मीद लगाए राहुल गांधी को पार्टी में प्रियंका की सक्रियता चुनाव प्रचार के लिए अधिक वक्त देने का अवसर देगी। बेशक वह संगठनात्मक लिहाज से पार्टी के लिए बेहद उपयोगी हैं। पार्टी के बड़े नेताओं से निचले स्तर के कार्यकर्ताओं तक उनकी स्वीकारोक्ति हैं, इसलिए उनकी उपथिति उनमें जोश भरेगी।
इस फैसले का असली इम्तेहान उ.प्र. में होना है। उन्हें पूर्वी उ.प्र. का प्रभार सौंपा गया है।अब तक अमेठी,रायबरेली में उनके जादू की चर्चा होती रही है। वह पहली बार इन इलाकों से इतर पार्टी के लिए प्रचार करेंगी।उन्हें पार्टी के लोग तुरुप का इक्का मानते रहें हैं।पार्टी ऐसे दौर में उन्हें उ.प्र. के रण में उतार रही है जबकि प्रदेश से संसद में उसकी मौजूदगी अमेठी , रायबरेली तक सिमटी हुई है।विधानसभा में उसके सिर्फ सात विधायक हैं।भाजपा के सफाये के लिए गोलबंद सपा-बसपा ने उनकी पार्टी को गठबंधन लायक नही माना है। जातीय-सामाजिक समीकरणों का गणित पार्टी के माफ़िक नही है। प्रदेश में पार्टी की लगातार हार की हताश है। प्रियंका पार्टी के लोगों को लम्बा इंतजार कराने के बाद मैदान में आ रही हैं।उनसे पार्टी के लोगों की उम्मीदें आसमान चढ़ेंगी।वह अच्छी भीड़ खींचेंगी।पर उन्हें वोटों में बदलने के लिए उ. प्र. की राजनीति की अनिवार्य सच्चाई जातीय गोलबंदी में पार्टी की जगह बनानी है।मुस्लिम मतों को अपनी ओर खींचने के लिए भाजपा को हरा सकने का भरोसा देना है।वक्त कम है।चुनौती बड़ी है।अब तक इस बन्द मुठ्ठी का बहुत शोर था। अब खुल रही है।
सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।