चुनाव आते ही यह दर्द और शिद्दत से सामने आता है।दोहराया जाता है।उम्मीदें बन्धती हैं।फिर-फिर टूटती हैं।पूर्वांचल के तमाम अभावों-विपदाओं को समेटे है सुल्तानपुर।बुनियादी जरूरतें।अंतहीन समस्याएं।प्रकृति प्रदत्त और मानवजनित भी।अपनी कमियां हैं।प्रशासनिक खामियां हैं।राजनीतिक नेतृत्व की विफलता है।इन सबकी साझी गठरी ढो रही है यहां की बड़ी जरूरतमंद आबादी।पानी-बिजली।खेती-किसानी।पढ़ाई-दवाई।उद्योग शून्यता। रोजी-रोजगार के लिए पलायन। लम्बी बहुत लंबी फेहरिस्त है।
बड़े नाम सुल्तानपुर से जुड़े।यहां की धरती से बड़ी शख्सियतें उभरीं।तमाम मौकों पर सांसद-विधायक उसी दल के जिसकी लखनऊ-दिल्ली में सरकार रहीं।फिर भी बात नही बनीं।लोकसभा का पहला चुनाव।स्थानीय दावेदार दर-किनार।इलाहाबाद के एडवोकेट काजिमी साहब को कांग्रेस ने यहां से संसद भिजवाया। 1957 में फिर बाहरी।पंडित मदन मोहन मालवीय के पुत्र गोविंद मालवीय सुल्तानपुर से संसद पहुंचे।सुल्तानपुर का सांसद रहते उन्होंने अपने मूल निवास बनारस में डीज़ल लोकोमोटिव का रेल कारखाना स्थापित करने में दिलचस्पी दिखाई।बगल की अमेठी सीट 1962 के परिसीमन के पहले मुसाफिरखाना संसदीय क्षेत्र के नाम से जानी जाती थी।पहले-दूसरे दोनों लोकसभा चुनावों में उसकी भी कमान बाहरी बी वी केसकर के हाथों में थी।वे पंडित नेहरू मंत्रिमंडल में सूचना-प्रसारण मन्त्री थे।
सुल्तानपुर के तत्कालीन सांसद गोविंद मालवीय के निधन के कारण 1961 में उपचुनाव हुआ।कांग्रेस ने फिर बाहरी के सी पन्त को उम्मीदवार बनाया।सुल्तानपुर -अमेठी के बाहरी उम्मीदवारों से ऊबे जिले ने पहली बार आंखें तिरछी की ।तब कम मतदाता और उसमे भी कम मतदान।बाबू गनपत सहाय ने कांग्रेस से विद्रोह किया।निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में मैदान में उतरे।उन्हें 37,785 और पन्त को 36,656 मत मिले।सिर्फ 1129 वोटों का जीत का छोटा फासला था।संदेश बड़ा था। कांग्रेस ने 1962 में सुल्तानपुर में बाबू गनपत सहाय के पुत्र कुंवर कृष्ण वर्मा और अमेठी में राजा रणंजय सिंह को उम्मीदवार बनाकर बाहरी उम्मीदवारों से तौबा की। सुल्तानपुर में 1967 में बाबू गनपत सहाय तो 1969 में उनके निधन के कारण उपचुनाव में बी के डी के टिकट पर पंडित श्रीपति मिश्र संसद में पहुंचे।। तब कांग्रेस के प्रत्याशी स्थानीय डॉ कैलाश नाथ सिंह थे। मिश्र जी के प्रदेश की संविद सरकार में मंत्री बनने पर 1970 के उपचुनाव और फिर 1971 के आम चुनाव में बाबू केदार नाथ सिंह सांसद चुने गए 1977 में वह फिर पार्टी के उम्मीदवार थे लेकिन असफल रहे।अमेठी का 1967 और 1971 में स्थानीय नेता प. विद्याधर बाजपेयी ने नेतृत्व किया।1977 में वहां से संजय गांधी लड़े लेकिन हार गए।1980 में वह वहां से जीते।
अमेठी से गांधी परिवार के जुड़ाव के साथ सुल्तानपुर की लोकसभा सीट कांग्रेस के लिए “गांधी परिवार के एंगिल” से देखी जाने लगी।चुनावी राजनीति में गांधी परिवार के सदस्य “ब्राह्मण” जाति से जोड़े जाते हैं।इलाके की दूसरी प्रभावशाली जाति ठाकुरों को अमेठी में साधने और संतुलन बनाने के लिए सुल्तानपुर के दिग्गज बाबू के एन सिंह को 1980 में हापुड़ (गाजियाबाद) भेजा गया।1980 में अमेठी से गिरि राज सिंह सुल्तानपुर भेजे गए।1984 में वही से राज करन सिंह।दोनों जीते।1989 में राजकरन सिंह हार गए।सुल्तानपुर के मतदाता ठुकराते रहे लेकिन 1998 में गांधी परिवार की रिश्तेदार दीपा कौल के उम्मीदवार बनने तक कांग्रेस की वह पसन्द बने रहे।दीपा कौल को भी निराशा हाथ लगी।1999 में कांग्रेस ने अमेठी के वीरेंद्र नाथ सिंह को उम्मीदवार बनाया।वह भी मुकाबले से दूर रहे।गांधी परिवार के बेहद नजदीकी कैप्टन सतीश शर्मा को भी 2004 में सुल्तानपुर ने ठुकराया।2009 में अमेठी के पूर्व नरेश डॉ संजय सिंह को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया।वह विपक्षियों से लड़े।पार्टी के भीतर विरोध करने वालों से साथ-साथ ।25 साल के अन्तराल पर पार्टी की झोली में जीत डाली।पर नेतृत्व यू पी ए 2 के पांच साल उन्हें हाशिये पर डाले रहा। उनकी फिक्र 2014 के ऐन चुनाव के पहले बगावत और अमेठी में उसके संभावित असर की पैमाइश के नजरिये से हुई।पार्टी ने उन्हें 2014 में ही असम से राज्यसभा भेजा।पत्नी अमिता सिंह को सुल्तानपुर से उम्मीदवार बनाया।मतदाताओं ने उन्हें खारिज किया।बड़े नाम को संसद में भेजने और दल की सरकार होने के बाद भी सुल्तानपुर को उसका वाजिव हक नही मिला।2019 में डॉ संजय सिंह फिर कांग्रेस के उम्मीदवार है।हालांकि अब उनकी गांधी परिवार से निकटता की फिर चर्चा होने लगी है।
बाहरियों को लेकर गैरकांग्रेसी भी पीछे नही रहे।1977 की जनता लहर में आपातकाल की यातनाएं भुगत जेल से बाहर आये कोई स्थानीय नेता नही बल्कि तब के नेतृत्व की पसंद इलाहाबाद के जुल्फिकार उल्ला थे।भाजपा को राम लहर में अयोध्या के संत विश्वनाथ शास्त्री (1991) तो 1996 व 1998 में डी बी राय (अयोध्या ध्वंस के समय वहां के पुलिस अधीक्षक) भाए।इन तीनो मौकों पर पार्टी जीती।1999 में गोंडा के सत्यदेव सिंह पार्टी की पसंद थे।पर समय से नामाँकन न कर पाने के कारण बिना लड़े ही बाहर हो गए।2014 की मोदी लहर में जीते वरुण गांधी की पूरे पांच वर्ष चर्चा उनकी ” मोदी-शाह की जोड़ी से लेकर स्थानीय विधायकों से दूरी” को लेकर होती रही। बेशक उन्होंने सांसद निधि का ईमानदारी से बेहतर उपयोग किया।सांसद के रूप में खुद वेतन न लेकर मिसाल पेश की।निजी पैसे से अनेकों की सहायता की। पर अपनी ही सरकार से दूरी का खामियाजा पूरे क्षेत्र ने भुगता।कुछ भी खास जिले के हिस्से में नही आया।
अमेठी की जमीनी दास्तां कुछ और ही है।पर बाकी इलाकों को उससे रश्क है।तो 2010 में अलग हुई अमेठी के बाद बचे सुल्तानपुर की शिकायत है कि गांधी परिवार ने अमेठी की कीमत पर उसकी उपेक्षा की। सरकारे तब के जिले के दाहिने बाजू को मजबूत करती रहीं तो बाएं से बेखबर । विभाजन के बाद सुल्तानपुर उद्योग शून्य है ।कर्ज़ के पहाड़ से दबी दम तोड़ती एक जर्जर चीनी मिल उसके हिस्से में आयी है। चुनाव लड़ते-जीतेते-हारते और फिर सुलतानपुर और उसके दर्द को भूलते चेहरों की फेहरिस्त सुल्तानपुर की उदास आंखों में दर्ज है।यकीनन एक सांसद के पास कोई जादू की छड़ी नही है। विधायक और बाकी जनप्रतिनिधियों के पास भी नही। पर पता लगाइएगा कि कब जिले के सारे विधायक और सांसद विकास के सवाल पर साथ बैठे थे ? क्या जरूरतों को कभी साथ प्रदेश-केंद्र की सरकार के सामने पेश कर पाए ?ऐसी किसी साझा कोशिश को यहां की जनता से साझा कर पाए? जबाब नही मिलेगा।पर निराश न हों।वे नाउम्मीद करते हैं।पर सुल्तानपुर उम्मीद लगाए रहता है !!
सम्प्रति- लेखक राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।