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सुल्तानपुर से मेनका गांधी का परिचय पुराना- राज खन्ना

राज खन्ना

मेनका गांधी का सुल्तानपुर से परिचय पुराना है। पति संजय गांधी की मृत्यु के बाद अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत के लिए 18 सितम्बर 1982 को  वह गौरीगंज (अमेठी) पहुंची थीं । 1977 के चुनाव मे भी वह पति के साथ सक्रिय थीं। हालांकि 1980 के चुनाव में वरुण के जन्म के कारण वह अमेठी नही आ सकी थीं। सुल्तानपुर जिला मुख्यालय था। पति को खोने का दुःख।  सास इंदिरा जी द्वारा  घर से निकाले जाने का अपमान- खीझ-गुस्सा।  पारिवारिक कडुवाहट। लगभग दो वर्ष तक देश के शिखर राजनीतिक परिवार की कलह का अमेठी-सुल्तानपुर चश्मदीद बना। मेनका अपने दिवंगत पति की कर्मभूमि से राजनीतिक आसरा चाहती थीं। 1984 के चुनाव में वह जेठ राजीव गांधी के अमेठी में सामने थीं। नतीजों ने उन्हें निराश किया। अनेक कारण थे। अंतर बढ़ाने में सत्ता-प्रशासन संरक्षित वोटों की लूट की बड़ी भूमिका थी। मतदान के दिन यह सब रोकने की कोशिश में उन्हें बदसलूकी भी झेलनी पड़ी थी। पराजित-अपमानित मेनका फिर अमेठी-सुल्तानपुर को  भूल गईं।
तीन दशकों के अंतराल में पांच साल पहले 2014 में मेनका पुत्र वरुण की सुल्तानपुर में सहायता करने के लिए आयीं थीं। 2019 में सुल्तानपुर के रण  में अगर वह सीधे सामने हैं, तो भी पुत्र की ही सहायता के लिए। वरुण 2019 में सुल्तानपुर से चुनाव लड़ने का साहस नही बटोर सके। मेनका उन्हें पीलीभीत के मैदान में उतारकर करनाल से लड़ना चाहती थीं। पार्टी तैयार नही हुई।  बात मां-बेटे की सीट की अदला-बदली से बनीं। सुल्तानपुर सीट मेनका की पहली पसन्द नही थी। स्थानीय दावेदार पार्टी के फैसले से खिन्न हैं। सार्वजनिक रूप से भले न स्वीकारें पर चारों विधायक भी असंतुष्ट हैं।  राम लहर के दिनों में 1991, 96 और 98 में। 2014 की मोदी लहर में। चार मौकों पर सुल्तानपुर में भाजपा जीती है। हर बार बाहरी प्रत्याशी थोपे जाने से अपना हक छिनने का पार्टी का लोगों को मलाल है।
मेनका सुल्तानपुर से पहली बार चुनाव के मैदान में हैं। पर पुत्र वरुण के गुजरे कार्यकाल के कार्य-व्यवहार की जबाबदेही भी उन पर आ गई है। वरुण गांधी के साथ दिलचस्प संयोग जुड़ा है। 2009 में वह पहली बार पीलीभीत से सांसद चुने गए। कुछ ही महीनों के अंतराल में 9 दिसम्बर 2009 को उन्होंने खुर्शीद क्लब सुल्तानपुर में एक बड़ी जनसभा करके सुल्तानपुर से जुड़ने का संकेत दे दिया। 2014 में सुल्तानपुर से जीत के साथ ही उनके सुल्तानपुर से मोहभंग की चर्चा शुरू हो गई। तराई के जिलों में संभावनाएं टटोली जाने लगी। सुल्तानपुर में वह 1,78,902 वोटों के फासले से जीते थे। वरुण इस अंतर से संतुष्ट नही थे। वह रिकार्ड फासले से जीत चाहते थे। उनकी अनमनी प्रतिक्रिया ने बधाई देने वाले स्थानीय भाजपाइयों को निराश किया। चुनाव की शुरुआत से अगले पांच साल तक वरुण आम कार्यकर्ताओं और आम आदमी से जुड़ने में असफल रहे। उनका पूरा प्रबंधन बाहर से आने वाली टीम पर था। अगस्त 2014 में अमित शाह ने उन्हें अपनी टीम से बाहर किया। नरेंद्र मोदी और भाजपा की केंद्र-प्रदेश सरकार के नाम और काम के जिक्र से उनके परहेज ने उन्हें बेगाना बना दिया । 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र की ओर रुख नही किया। फिर भी पांच में चार सीटों पर भाजपा जीती।  वरुण से इन विधायकों के कामकाजी रिश्ते भी नही बन सके। उन्होंने अपनी सांसद निधि का ईमानदारी से उपयोग किया। सांसद के रूप में वेतन न लेकर मिसाल पेश की। निजी स्तर पर भी अनेक प्रकार से लोगों की मदद की। फिर भी पार्टी और अपनी ही सरकार से दूरी का उनके निर्वाचन क्षेत्र को खामियाजा भुगतना पड़ा।
अब जब मेनका मैदान में हैं तो वरुण को लेकर हुए अनुभव भाजपाइयों को बेचैन कर रहे हैं। अगले कुछ दिनों में मेनका की शैली से साफ होगा कि वरुण के कारण दूर हुआ कैडर उनसे
और उनके चुनाव अभियान में कितना जुड़ता है ? मेनका का नाम और कद बड़ा है। वह गांधी परिवार से हैं। मोदी मंत्रिमंडल की सदस्य हैं। लेकिन पार्टी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के अपने स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल नही किया है। इसका संदेश अच्छा नही है। वरुण जब सुल्तानपुर की सीट पर आए तो बाजू की अमेठी में राहुल की मौजूदगी से लोगों को गांधी बनाम गांधी के टकराव की संभावना दिखी थी। 2014 के चुनाव में प्रियंका-राहुल ने वरुण के क्षेत्र में रोड शो किया था । प्रियंका ने वरुण को हराने की खुलकर अपील की थी। उन पर परिवार को धोखा देने का आरोप लगाया था। जबाब में वरुण ने  शालीनता को कमजोरी न समझने की नसीहत देकर चुप्पी साध ली थी। अमेठी-सुल्तानपुर के दोनों निर्वाचन क्षेत्र एक- दूसरे से गूंथे हुए हैं। परस्पर विरोधी पार्टियों में रहते हुए परिवार के नाम पर वरुण-मेनका की दूसरे धड़े पर चुप्पी भाजपा समर्थकों को असहज करती है। इसका असर मतदाताओं पर भी पड़ता है।
मेनका के मुकाबले कांग्रेस के डा. संजय सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। बसपा-सपा गठबंधन ने चंद्र भद्र सिंह सोनू को संसदीय क्षेत्र का प्रभारी घोषित किया है। वह तीन बार इसौली से विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं। 2017 में भाजपा से टिकट में असफल रहने के बाद खिन्न थे। कुछ महीने पहले बसपा से जुड़े।   दबंग की छवि है। भीड़ बटोरने के मामले में वह और उनके अनुज जिले में अव्वल। इसौली-सुल्तानपुर में अपने बूते पैतीस-चालीस हजार वोट पा जाते हैं। समर्थक जिले भर में फैले हैं। उसी तरह विरोधी भी ।   संजय सिंह का शुरुआती सफ़र संजय गांधी के साथ शुरू हुआ था। उनके निधन के बाद गांधी परिवार की धड़ेबंदी में वह राजीव गांधी के साथ थे। 1984 में राजीव- मेनका के बीच अमेठी में हुए मुकाबले की कमान संजय सिंह के हाथों में थीं। उस दौर की बहुत कड़वी यादें मेनका के साथ हैं। 2009 में 25 वर्षों के अंतराल पर संजय सिंह ने कांग्रेस के लिए सुल्तानपुर की सीट पर हलचल मचा दी थी। लेकिन 2014 ने  उन्हें  निराश किया। खुद असम से राज्यसभा पहुंचने के बाद उन्होंने पत्नी अमिता सिंह को टिकट दिलाया। चुनाव कमान खुद संभाली। हिस्से में सिर्फ 41,983 मत आये। जमानत जब्त हो गई। 2019 में सब भाजपा से अपना मुकाबला मानते है। बड़ी चुनौती भाजपा विरोधी वोटरों में पैठ बनाने की है।कांग्रेस का अपना वोट बैंक बिखर चुका है। अमेठी में गांधी परिवार की मौजूदगी सुल्तानपुर में अब तक बेअसर रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी सपा से गठबंधन में लड़ी थी। केवल कादीपुर की सीट पर कांग्रेस   का प्रत्याशी था। चौथा नम्बर था। कुल वोट 32,042 थे।
2014 में विजयी वरुण को 4,10,348 और निकटतम प्रतिद्वन्दी बसपा के पवन पांडे के 2,31,446 वोट मिले थे। सपा के शकील अहमद के वोट 2,28,144 थे। 2019 में सपा-बसपा गठबन्धन में है। पिछली बार के दोनों के वोट का जोड़ 4,59,590 होता है, जो भाजपा के वोटों से ज्यादा है। विधानसभा की पांच सीटों पर 2017 के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवारों के कुल वोट 3,68,691 थे। बसपा के 2,46,954 थे। सपा ने एक सीट कांग्रेस के लिए छोड़ी थी। उसकी चार सीटों के वोट 2,23,864 थे। बसपा-सपा के वोटों का जोड़ ( सपा की एक सीट कम होने पर भी ) भाजपा से काफी आगे 4,70,818 होता है।
गठबन्धन का अंकगणित बसपा-सपा का पलड़ा भारी बताती है। पर चुनावी गुत्थियां सिर्फ अंकों के जोड़ से नही हल होतीं।  इस गठबन्धन के सामने बड़ी चुनौती अपने वोट बैंक को बरकरार रखने की है। चुनौती सपा के वोट को बसपा के हक़ में ट्रांसफर की भी है। इस गठबंधन की मजबूती में मुस्लिम वोट बैंक की निर्णायक भूमिका है। उसके समर्थन की बुनियादी शर्त भाजपा को हराने का भरोसा दिलाना है। चुनाव लोकसभा के हैं। जातीय गणित एक मुद्दा है। पर केंद्र की सरकार और मोदी के शोर में तमाम हड़बंदियाँ टूटी हैं। 2014 जैसी लहर नही है, पर जब हर पक्ष मोदी को हराने-हटाने की लड़ाई के लिए मैदान में हो तो उनका प्रत्याशी सीधी लड़ाई में आ जाता है। ऐसे में उम्मीदवार पीछे उनकी पार्टियों के प्रतिनिधि चेहरे आगे हो जाते है। भाजपा के लिए सत्ता विरोधी रुझान और मजबूत  गठबंधन की चुनौती विकट है।  गठबंधन के सामने विकल्प और प्रधानमंत्री के चेहरे के संकट का सवाल है। प्रचार का प्रारम्भिक दौर है। वोटर धीरे-धीरे खुलेगा।

 

सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।