यूं तो मेरा रोम-रोम पुलकित है कि पांच साल से भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य पद को सुशोभित करते-करते 91 बरस 5 महीने की उम्र के हो रहे लालकृष्ण आडवाणी ने आख़िर भाजपा-कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने की हिम्मत जुटा ही ली। इस उम्र में कम ही लोग सीधे खड़े रह पाते हैं। आडवाणी को सीधा खड़ा देख मुझे सुकून मिलता है। लेकिन भाजपा के 39वें स्थापना दिवस पर उनका लिखा ब्लॉग पढ़ कर मुझे लगा कि उन्होंने जो भी लिखा है, हाथ मलते-मलते लिखा है। अपनी क़लम से शब्दों की जलेबियां बनाने के बजाय अगर आडवाणी ने सीधे छर्रे बरसाए होते तो इस ब्लॉग-गंगा की डुबकी से उनके पाप काफी-कुछ धुल गए होते।
नरेंद्र मोदी अंततः किसका पाप हैं? 17 साल पहले आडवाणी ने अगर अटल बिहारी वाजपेयी की छाती पर अपनी मूंग न दली होती और मोदी को सत्ता के गलियारे से विदा हो जाने दिया होता तो क्या तब के मोदी सबकी छाती पर चढ़ कर आज के नरेंद्र भाई मोदी बन गए होते? यह मौक़ा था कि आडवाणी अपनी बातें पूरी तरह खुल कर कहते। मगर वे परदे की ओट से इशारे करके रह गए। एक लौह-पुरुष को यह तो शोभा नहीं देता! ज़िंदगी के इस मोड़ पर आडवाणी भी अगर ऐसे बचे-बचे फिरेंगे तो फिर भाजपा की आने वाली नस्लें तो सदियों तक किसी की दादागीरी पर उंगली उठाने का सोचेंगी भी नहीं।
आडवाणी ने अपने ब्लॉग में कहने को बहुत कुछ कह दिया है। लोगों को याद दिलाया है कि वे भाजपा के ही नहीं, जनसंघ के भी पितृ-पुरुष रहे हैं। उनका यह मलाल साफ है कि जनसंघ और भाजपा के संस्थापक सदस्य के साथ आज का आत्म-मुग्ध नेतृत्व जिस तरह का सलूक कर रहा है, वह शिष्टाचार के हर नियम की धज्जियां उड़ाने वाला है। गांधी नगर से इस बार लोकसभा का उम्मीदवार न बनाए जाने का ज़िक्र किए बिना आडवाणी ने छह बार लोकसभा में भेजने के लिए वहां के मतदाताओं का गहरा आभार जाहिर कर अपना दर्द छलका दिया है। आडवाणी ने सबको यह भी याद रखने की सांकेतिक हिदायत दी है कि उन्हें पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं का ही नहीं, ‘भारत के लोगों का भी प्रेम और सम्मान’ मिला है।
हालांकि आडवाणी ने कहा है कि उन्हें मातृभूमि की सेवा करने का हमेशा जुनून रहा है, मगर मुझे लगता है कि सेवा के इस बार का अवसर उनकी हथेलियों से बुरी तरह फिसल गया। तीन चौथाई सदी पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल होने का गौरव महसूस करने वाले आडवाणी, दीनदयान उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महामनाओं के साथ काम करने पर गौरव महसूस करने वाले आडवाणी और ‘सबसे पहले राष्ट्र, फिर पार्टी और फिर स्वयं’ को रखने वाले आडवाणी अगर साफ-साफ कह देते कि भारतीय लोकतंत्र को नरेंद्र मोदी जैसे एकलखुरे राजनीतिकों से बचाने का वक़्त आ गया है तो, और कोई करता-न-करता, मैं तो उनका सार्वजनिक अभिनंदन करता। लेकिन जनतांत्रिक तोपों की इस सलामी से आडवाणी ने अपने को वंचित कर लिया। आडवाणी को यह बात साल रही है कि मोदी-सरकार विविधता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अनादर कर रही है; वह अपने से असहमत लोगों को अपना शत्रु मानती है; वह राजनीतिक स्तर पर असहमति को देशद्रोह समझती है; वह मीडिया और बाकी लोकतांत्रिक संस्थानों की निष्पक्षता और मज़बूती की रक्षा नहीं कर रही है; वह राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता पर ध्यान नहीं दे रही है; भाजपा के भीतर भी लोकतंत्र नहीं रह गया है और मोदी-सरकार ने भी लोकतंत्र, सत्य और निष्ठा का रास्ता छोड़ दिया है। लेकिन उन्होंने ये सारी बातें छाती ठोक कर नहीं, हाथ-मलू मुद्रा में कही हैं।
जिन मूल्यों को बनाए रखने के लिए आपातकाल के खि़लाफ़ वीरतापूर्ण संघर्ष का ज़िक्र करके आडवाणी ने अब देश में आपातकाल से भी बदतर हालात होने का संकेत दिया है, अगर उन मूल्यों पर चल कर आडवाणी ने आज अपनी मुट्ठियां तान दी होतीं तो हो सकता है कि उन्हें ‘प्रेम करने वाले भाजपा के लाखों कार्यकर्ता’ मशालें लिए अपने-अपने गांवों से बाहर निकल पड़ते। सो, आज का अंधेरा दूर करने का खुला आह्वान करने से बच कर आडवाणी ने इतिहास के भावी पन्नों में सिसकियां भर दी हैं।
इसलिए मैं चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहता हूं कि ‘‘आडवाणी जी! यह चुनाव मतदाताओं के लिए तो ईमानदार आत्म-निरीक्षण का अवसर है ही, यह चुनाव आपके लिए और भी ज़्यादा ईमानदार आत्म-निरीक्षण का अवसर है। सोमनाथ से अयोध्या, मैसूर से भोपाल, द्वारका से दिल्ली और सिताबदियारा से कहां-कहां तक देश भर में छह-छह रथ यात्राएं करने की विशेषज्ञता रखने वाले आप अगर आज एक प्रायश्चित रथ-यात्रा कर दें तो मुल्क़ का माहौल बदल जाए। मैं समझ सकता हूं कि आपको इस उम्र में अपनी काया को ज़्यादा कष्ट नहीं देना चाहिए। लेकिन अगर आप बापू के राजघाट से नरेंद्र भाई के लोक कल्याण मार्ग तक ही अपने रथ पर सवार होकर निकल पड़ें तो हम गांधी के सपनों का लोक कल्याणकारी भारत बनाने की दुंदुभी बजा देंगे।’’
उप-प्रधानमंत्री रह लेने के बाद, गृह मंत्री रह लेने के बाद, जनसंघ और भाजपा का अध्यक्ष रह लेने के बाद, किसी को और क्या चाहिए होता है? नवभारत टाइम्स का विशेष संवाददाता रहते हुए मैंने भाजपा भी काफी वक़्त कवर की और मुझे हमेशा लगा कि ज़रा बच के, ज़रा हट के राजनीति करने की शैली आडवाणी को कभी वहां नहीं पहुंचने देगी, जहां वे पहुंचना चाहते हैं। मुझे 2007 के दिसंबर की सर्दियों का वह दूसरा सोमवार अब भी अच्छी तरह याद है, जब पार्टी के भीतर हलके विरोध के बावजूद भाजपा के संसदीय बोर्ड ने आडवाणी को 2009 के चुनाव में अपना प्रधानमंत्री-चेहरा घोषित कर दिया था। कांग्रेस का शिखर घेरे बैठे लोगों को दोबारा सरकार में आने की उम्मीद नहीं थी। मगर सोनिया गांधी के चेहरे पर देशव्यापी विश्वास ने डॉ. मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बनवा दिया और आडवाणी यह मौक़ा चूक गए। 2009 आडवाणी के लिए रायसीना पहाड़ फ़तह करने का पहला और अंतिम अवसर था। फिर 2013 की गर्मियां आईं। जून के महीने का दूसरा गुरुवार था। नरेंद्र भाई मोदी ने ताल ठोक कर अपने को अगले लोकसभा चुनाव का चेहरा घोषित करवा लिया। अगले ही दिन जुम्मे की नमाज़ से पहले आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफ़ा दे दिया। मुझे उनकी इस चिनगारी में जनतंत्र के लिए राहत नज़र आई। लेकिन लाल-लाल दहकता यह कोयला कब राख हो गया, हम समझ ही नहीं पाए। इन चुनावों के दौर में भाजपा के स्थापना दिवस के बहाने आडवाणी ने जो कहा, अच्छा कहा। मगर जैसे कहा, उससे तो वे ‘कोयला भए न राख’ की श्रेणी में जा बैठे लगते हैं।
सूरमा जब-जब ऐन वक़्त पर अपने घोड़े को ऐड़ लगाने में झिझक जाते हैं, ऐसी खंदक में जा गिरते हैं, जहां से कोई भी रस्सी उन्हें खींच कर बाहर नहीं ला पाती है। इसलिए मुझे जनसंघ और भाजपा के संस्थापकों में से एक की इस हिचकिचाहट पर तिलमिलाहट हो रही है। नरेंद्र भाई से अपने हाथ का पंजा पूरी हिम्मत से लड़ा रहे राहुल गांधी के भरोसे बहुत-से लोगों ने अपने ख़्वाब अभी बचा कर रखे हुए हैं। लेकिन जिन लोगों ने अपने ख़्वाब आडवाणी के तकिए के नीचे बचा कर रखे थे, अगर वे ख़्वाब कुम्हला गए तो बड़ा अनिष्ट होगा।
सम्प्रति – लेखक श्री पंकज शर्मा न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।