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बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की कवायद – डॉ. संजय शुक्ला

आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे बड़े देश भारत में आजादी के छह दशक बाद भी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति अत्यंत लचर है खासकर ग्रामीण भारत में।यह अतिष्योक्ति नहीं होगी कि आजाद भारत में सबसे ज्यादा प्रयोग शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी क्षेत्रों में ही हुआ है,लेकिन नतीजे सिफर रहे हैं।बीते एक दशक में देश की चिकित्सा क्षेत्र में व्यापक बदलाव और विस्तार हुआ है लेकिन यह विस्तार जरूरतों के हिसाब से अभी भी नाकाफी है।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के सुधार के क्रम में नीति आयोग के निर्देशन में मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया (एम.सी.आई.) ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को यह प्रस्ताव दिया कि मेडिकल पी.जी. सीटों पर ग्रामीण क्षेत्र में सेवारत डॉक्टरों के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित की जाय।केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस प्रस्ताव पर अपनी मुहर लगा दी है तथा इसे ‘‘इंडियन मेडिकल कौंसिल (एमेंडमेंट) बिल 2016’’ के नाम से संसद में पेश करना चाहती है। इस बिल में चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए यह भी प्रावधान किया जा रहा है कि देश के मेडिकल कॉलेजों से एम.बी.बी.एस. परीक्षा पास करने वाले छात्रों को नेशनल एग्जिट टेस्ट (नेक्स्ट) परीक्षा पास करना होगी तभी इन डॉक्टरों को प्रैक्टिश और पी.जी. प्रवेश परीक्षा में शामिल होने की अनुमति मिलेगी।हालांकि डॉक्टरों के संगठन इंडियन मेडिकल एसोशिएशन(आई.एम.ए.)ने सरकार के इस परीक्षा के फैसले का विरोध करते हुए एम.सी.आई. को पुर्नविचार के लिए पत्र लिखा है।

देश में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल तस्वीर किसी से छिपी नहीं है विशेषकर ग्रामीण भारत में डॉक्टरों की उपलब्धता बेहद कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यू.एच.ओ.)भी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर कई बार भारत सरकार को चेता चुकी है। डब्ल्यू.एच.ओ. के एक रिपोर्ट के अनुसार देश की 70 फीसदी ग्रामीण आबादी को अभी भी समुचित स्वास्थ्य सुविधा नहीं मिल पा रही है। दूसरी ओर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने भी ग्रामीण क्षेत्रों के लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति चिंता जाहिर करते हुए सार्थक कदम उठाने की सिफारिश की है।इन चेतावनियों एवं सिफारिशों के मद्देनजर स्वास्थ्य मंत्रालय देश के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रयासरत है, इसी क्रम में मेडिकल कालेजों में स्नातक तथा पी.जी. सीट बढ़ाए जाने व नये कालेज खोले जाने की तैयारी की जा रही है।पी.जी. सीटों में सरकारी डॉक्टरों के लिए हालिया आरक्षण का प्रस्ताव भी इसी कवायद का हिस्सा है।

देश के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों, नर्सिंग स्टाफ तथा सुविधाओं की भारी कमी है।डब्ल्यू.एच.ओ. के मानकों के अनुसार प्रति हजार आबादी पर एक डॉक्टर (एलोपैथिक) होना चाहिए जबकि भारत में 1,674 लोगों के लिए एक डॉक्टर उपलब्ध है।हमसे गरीब व पिछड़े देश पाकिस्तान, वियतनाम और अल्जीरिया जैसे देश में यह अनुपात हमसे बेहतर है।एक जानकारी के अनुसार देश में लगभग 14 लाख डॉक्टरों की कमी है, विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में स्थिति और भी बदतर है।राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी एवं कस्बाई इलाकों में स्त्रीरोग, शिशुरोग एवं सर्जरी जैसी बुनियादी क्षेत्रों के विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है।अंतराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लांसेट के अनुसार भारत के 25,300 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रो में से 8 फीसदी से अधिक में डॉक्टर ही नहीं है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रो में स्त्रीरोग विशेषज्ञों के 76 फीसदी, शिशुरोग विशेषज्ञों के 82 फीसदी, फिजिशियन के 83 फीसदी, सर्जन के 80 फीसदी पद रिक्त हैं। इसी प्रकार देश में 20 लाख नर्सिंग स्टाफ की जरूरत है। छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा जैसे प्रदेशों के आदिवासी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थिति लगभग यही है।देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य सेवाओं में भारी असमानता है। देश में प्रतिवर्ष  52,000 एम.बी.बी.एस. तथा 25,577 पी.जी. डॉक्टर तैयार हो रहे हैं। इन स्थितियों में डब्ल्यू.एच.ओ. के मानक तथा ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ जैसे लक्ष्य को हासिल करना देश के लिए दूर की कौड़ी है।

आधुनिक जीवनशैली, जलवायु परिवर्तन, कुपोषण और प्रदूषण के चलते देश की एक बड़ी आबादी मधुमेह, हृदयरोग, कैंसर सहित अनेक जानलेवा बीमारियों से ग्रस्त हो रही है वहीं नई-नई बीमारियां भी बड़ी तेजी से अपना पैर पसार रही हैं।दूसरी ओर मातृ एवं शिशु मृत्युदर भी देश के ग्रामीण जनस्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई है।भारत में प्रतिवर्ष 9 लाख 90,000 शिशुओं तथा 1 लाख 26 हजार गर्भवती माताओं की मृत्यु हो जाती है, विडंबना यह भी है कि ग्रामीण क्षेत्रों के स्वाथ्य केन्द्रों में स्वास्थ्य रक्षक वैक्सीन की नितांत कमी बनी हुई है।ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के क्रम में इन क्षेत्रों में डॉक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना सरकार के लिए अहम कदम है। लेकिन सरकार के तमाम जतन और प्रोत्साहन के बावजूद एलोपैथिक डॉक्टर इन क्षेत्रों में जाने के लिए तैयार नहीं है यही स्थिति छत्तीसगढ़ में भी है।ऐसे में स्वास्थ्य मंत्रालय का मानना है कि पी.जी. सीटों में आरक्षण से ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी को पूरा किया जा सकता है। हालांकि यू.पी.ए. सरकार ने भी पी.जी. सीटों में प्रवेश के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 1 वर्ष की तैनाती को अनिवार्य करने का प्रयास किया था लेकिन डॉक्टरों के संगठनों के विरोध के चलते यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था।इन परिस्थितियों के मद्देनजर हालिया आरक्षण प्रस्ताव के सार्थकता पर भी विचार जरूरी है कि क्या केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रस्तावित बिल से सरकार के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के उपलब्ध कराने के मंसूबे पूरे होंगे ? क्या गारंटी है कि ये डॉक्टर सरकारी कोटे में पी.जी. डिग्री हासिल करने के बाद वापस सरकारी सेवा तथा ग्रामीण पदस्थापना में कायम रहेंगे ? क्योंकि

‘‘स्पेशलाईजेशन डिग्री’’ के बाद इन डॉक्टरों के पास मोटी कमाई के बेहतर अवसर एवं सपने सामने होंगे। यह प्रश्न उठना इसलिए भी लाजमी है कि छत्तीसगढ़ राज्य में हाल के वर्षों में सरकारी कोटे से पी.जी. करने वाले 23 डॉक्टरों ने वापस शासन की पदस्थापना में कार्यभार ग्रहण नहीं किया है। सरकार को उपरोक्त तथ्यों को भी ध्यान में रखना होगा तभी एम.सी.आई. और केन्द्र सरकार के हालिया प्रस्ताव की सार्थकता होगी अन्यथा यह प्रयोग भी अन्य प्रयोगों की तरह महज कागजी बन रह जायेगा और नतीजा सिफर ही रहेगा।

 

सम्प्रति- लेखक डा.संजय शुक्ला शासकीय आर्युवेदिक कालेज रायपुर में व्याख्याता है।