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’’काल ड्रॅाप की लूट को समझना होगा’’ – रघु ठाकुर

देश में इस समय मोबाईल फोन के उपभोक्ताओं की संख्या 80-90 करोड़ के बीच पहुंच गई है और कुछ लाचारी तथा कुछ जरुरतो के आधार पर एक-एक व्यक्ति 2-3 मोबाईल फोन रखने को बाध्य हो रहा है। जमीनी फोन की संख्या घटी है और उसके पीछे भी महत्वपूर्ण कारण 90 के दशक से एक तरफ देश में मोबाईल फोन के प्रति लोगो को आकर्षण बढ़ना और दूसरी तरफ जमीनी फोन की स्थिति बिगड़ना शुरु होना है।

दूरभाष के क्षेत्र में लम्बे समय तक एक मात्र एकाधिकार सरकारी दूरसंचार कम्पनी का ही था, जो दिल्ली मुबंई जैसे महानगरो में एम.टी.एन.एल के नाम से और शेष देश में बी.एस.एन.एल के नाम से कार्यरत थी। समूचे देश में दूरभाष के लिये आवश्यक आधार रुप संरचना उन्ही दो कम्पनियो की थी या और देश की जनता का सरकारी खजाने के माध्यम से करोड़ो रुपये लगा था परन्तु जैसे ही सरकार ने सरकारी कम्पनियो के एकाधिकार को तोड़कर निजी कम्पनियो अंबानी, टाटा आदि को टेलीफोन लगाने के अधिकार दिये बी.एस.एन.एल और एम.टी.एन.एल धीरे-धीरे बदतर अवस्था में चला गया।

हालांकि एक तथ्य यह भी है कि जब इन निजी कम्पनियों को सरकार ने लाइसेंस दिये तब उनके पास कोई आधारभूत संरचना नही थी और वे इन सरकारी कम्पनियो की लाइन और टावर के माध्यम से ही काम शुरु कर मैदान में आये थे।जल्दी ही इन निजी कम्पनियों ने भ्रष्टाचार के मंत्र का इस्तेमाल किया और धीरे-धीरे सरकारी दूरभाष कम्पनियो को घाटे में पहॅुचाना शुरु किया।यह एक प्रकार का धीमा जहर-सा था जिसे प्राइवेट कम्पनियो द्वारा सरकारी ढांचे को कैसे बिगाड़ा और बर्वाद किया जाये, उसे कैसे उखाड़ा जाय व निजी कम्पनियो अपना जाल कैसे बिछाये इस षडयंत्र के खेल की ये सिद्धहस्त निजी कम्पनियां सरकारी कंपनियों को दे रही थी। और लगभग सबसे पहला हथियार उन्होंने यह बनाया कि इन कम्पनियों के शीर्ष और बड़े अधिकारियो को सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद अपनी कम्पनी में बड़े पद पर और बड़े वेतन की सुविधा के साथ रखना शुरु किया।

इस पुनः रोजगार योजना से प्रथम चरण के सेवानिवृत्त अफसर लाभान्वित हुये और उनका इस्तेमाल निजी कम्पनियो ने अपने लाभ व सरकारी क्षेत्र को मिटाने के लिये किया। इसका असर यह भी हुआ कि जो उनके बाद के दूसरी श्रेणी के अधिकारी थे वे लालायित हुये और अपवाद छोड़कर उन्होंने या तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अंबानी समूह को सेवा देना शुरु कर दिया या फिर वे अपने सरकारी पद पर रहते हुये निजी कम्पनियो के अघोषित दलाल बन गये। मेरे दिल्ली निवास पर एम.टी.एन.एल का फोन 1981-82 से लगातार था और 1990 के बाद जब एम.टी.एन.एल का ढ़ाचा बिगड़ना शुरु हुआ तब भी मैने सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति अपनी प्रतिबद्वता के कारण उसे लगाये रखा।हालांकि स्थिति इतनी बदतर हो गई थी कि जो मुझे कनेक्शन बदलने को लाचार कर रही थी। अमूमन शुक्रवार के दिन शाम को टेलीफोन बिगड़ता था और शनिवार इतवार की छुट्टियो की वजह से न कोई शिकायत दर्ज होती थी न कोई सुधारने आता था।इन शिकायतो के निपटारे का काम सोमवार से आरम्भ होता था और जो सुधारने वाले आते थे वे गैंगमेन जैसे थे,जिनका ज्ञान केवल तार काटना और तार जोड़ना ही था बारिश के दिनो में सारा टेलीफोन सिस्टम ठप रहता था क्योंकि एक रटा-रटाया उत्तर मिलता था कि केबल में पानी चला गया। एम.टी.एन.एल के उच्च अधिकारीयो ने व्यवस्था के दंड से शिकायत में बचने के लिये नेताओ और अफसरो को वीआईपी के रुप में चिन्हित कर दिया था जिनकी शिकायत भी पृथक जी.एम. कार्यालय में होती थी तथा इन नम्बरो की एक सूची तैयार की गई थी जिसमें स्वतः अधिकारी का कार्यालय जानकारी मांगता था कि टेलीफोन ठीक है या नही? याने सरकारी कम्पनियो को खत्म करने का षड्यंत्र इस सावधानी से चलाया जाये कि व्यवस्था के निंयत्रकों को या प्रभावित करने की क्षमता वालो के लिये कोई शिकायत न हो। एक बार मेरा दूरभाष सितम्बर माह में बिगड़ा जो लगातार कई महीनो तक बिगड़ा रहा। मैंने सी.जी.एम.टी. को पत्र लिखा फोन किया और उनसे कहा कि में एम.टीएन.एल का फोन सारे कष्ट के बाद भी इसीलिये नही छोड़ना चाहता क्योंकि सार्वजानिक क्षेत्र का पक्षधर हॅू। इसके बावजूद भी कई माह तक वह फोन नही सुधरा और अंत में मुझे एम.टी.एन.एल छोड़कर टाटा कम्पनी की शरण में जाना पड़ा तथा पिछले लगभग 6-7 सालो में बल्कि हो सकता है इसके ज्यादा ही वर्षो से मेरा टाटा फोन आज तक एक भी दिन नही बिगड़ा। अगर एक बार भी किसी सरकार के मंत्री या उच्च अधिकारी ने इस प्रश्न का उत्तर खेाजा होता कि यह क्या वजह है कि लोग किरायेदार के मकान को पंसद कर रहे है और मकान मालिक के मकान को नही तो निजी कम्पनियो का खेल खत्म होता। और अगर यह कानून सरकार ने बनाया होता कि सेवानिवृत्ति के बाद या बी.आर.एस लेने के बाद कोई अधिकारी कर्मचारी निजी कम्पनियो में नियुक्त नही हो सकेगा तो भी यह खेल नही चला होता परन्तु जब वे स्वतः ही निजी कम्पनियो के पेरोल पर हो प्रशासन तंत्र अपनी मूल मां की सेवा करने के बजाय बाजार की सेवा में हो तो फिर सार्वजनिक क्षेत्र कैसे बचे?

पिछले लगभग एक दशक से बीएसएनएल के चलित फोन में काल ड्राप की समस्या शुरु हुई और यह बढ़ती जा रही है। अब तो धीरे-धीरे लगभग सभी सरकारी और गैर सरकारी मोबाइल कम्पनियो का काल ड्राप एक स्थाई हिस्सा बन गया है। हालात यह हैं कि एक बार की बात के लिये फोन धारक को 4-5 बार फोन करना होता है और फिर भी ठीक ढंग से यह पूरी बात नही हो पाती। औसतन हर उपभोक्ता प्रतिदिन न्यूनतम (इस काल ड्रॅाप की बीमारी के कारण) दस फोन अनावश्यक करता है और परिणाम स्वरुप उसे न्यूनतम पांच रुपया इन कम्पनियो को लाचारी की खैरात देना पड़ती है।याने देश की जनता की जेब से औसतन 400-500 करोड़ रुपया रोज-महीने का 12000से 15000 करोड़ रुपया व साल का लगभग एक से दो लाख करोड़ रुपया इस काल ड्राप के नाम से कम्पनियां लूट रही है।

काल ड्रॅाप ’’लूट ड्रॅाप’’ बन गया है। आखिर इस काल ड्राप की बजह क्या है ? इन निजी कम्पनियो ने सरकार से ठेका लेते समय जो आधारभूत सरंचना के विस्तार और अपने टावर लगाने की जो शर्ते स्वीकार की थी उनका पालन उन्होंने नही किया और क्षमता से 50-100 गुना ज्यादा कनेक्शन दे दिये। परिणाम स्वरुप यह काल ड्रॅाप है।इतना ही नही बीएसएनएल और एम.टी.एन.एल की हजारो टावर्स की साम्रगी पिछले 10-10 साल से अधिक समय से बेकार में पड़ी है।उसका खरीद का खर्च कमीशन पहले ही सरकारी कम्पनियां कर चुकी है। जमीन के मालिकों को किराया दिया जा रहा है परन्तु यह टावर लगाकर चालू नही किये गये। कितने ही ऐसे प्रकरण मेरी जानकारी में है और जिनके बारे में मैं लगातार सरकार के मंत्रियो और अफसरो को लिखता रहा हॅू। बहुत सारे स्थानो पर स्वतः जनता और पंचायतो ने भी मांगे भेजी व प्रदर्शन किये परन्तु भ्रष्टाचार  के आगे सब बेकार है। पिछले 4-5 सालो से लगातार दूर संचार नियामक आयोग यह कहता रहा है कि काल ड्राप पर सबन्धित कम्पनियो पर जुर्माना लगाया जायेगा,नीति बन रही है। और कुछ माह पूर्व जब ट्राई ने इस नीति को क्रियाविन्त करने का प्रयास किया तो निजी कम्पनियो वाले सर्वोच्च न्यायालय के पास गये तथा सर्वोच्च न्यायालय ने ट्राई के आदेश को निरस्त कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश कहते है कि जब सरकारें कानून का पालन नहीं करती तब उन्हें हस्तक्षेप करना पडता है परन्तु काल ड्राप के मामले में उल्टा हुआ है कि ट्राई करना चाहता था उसने आदेश भी जारी किया था और सर्वोच्च न्यायालय ने उसे रोक दिया। याने सर्वोच्च न्यायालय 80 करोड़ लोगो के हित के पक्ष में बनाये गये कानून या नियम के अमल को रोकता है और अंबानी, टाटा जैसे दूरभाष कम्पनियो के लूटेरे मालिको की करोडो रुपये सालाना लूट को सरंक्षण देता है। होना तो यह चाहिये था कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय न केवल उघोगपतियो की याचिका को खारिज करता बल्कि पिछले वर्षो में कालड्रॅाप के नाम पर जो लूट हुई है उसे भी वसूलने का मार्ग तलाशने का आदेश देता। अब सरकार के पास बहाना है कि हम क्या करे न्यायपालिका हमे नही करने दे रही है तथा जनता के पास केवल लुटने की लाचारी है।

मैं भारत सरकार से मांग करुगां कि वे निम्न बिन्दुओं का समयबद्ध अध्ययन (अधिकतम एक माह में) कराए-

1.            कितनी दूरभाष कम्पनियो ने ठेका लेते समय आधारभूत संरचना निर्माण और विकास की जिन शर्तो को स्वीकार किया था,और उन्हें पूरा नही किया है?

2.            इन कम्पनियो के ठेको को निरस्त किया जाये तथा इनकी सुरक्षा राशि जब्त की जाये और इन पर नियमानुसार दण्ड लगाया जाये।

3.           एम.टी.एन.एल और बीएसएनएल ने पिछले 20 वर्षो में कितने स्थानो पर टावर लगाने के लिये जमीने किराये पर ली है? कितने स्थानो पर टावर लगे है? कितने टावर संचालित हुये है? जो टावर संचालित नही हुए परन्तु जमीनो को किराया दिया जा रहा है और उनकी सामग्री खरीद कर डाल दी गई है,उस राशि को सम्बधित क्षेत्र के जिम्मेदार अधिकारी की निजी सम्पति या जमा निधि से वसूल किया जाये।

4.            ट्राई के काल ड्राप के आदेश को लागू करने के लिये और उपरोक्त बिन्दुओ पर निर्णय के लिये सरकार संसद में कानून लाये तथा उसे संविधान के अनुसार उस अनुच्छेद में शामिल करे जो न्यायिक प्रक्रिया से परे व मुक्त होते है ताकि दंड और जुर्माना के प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया से मुक्त रहे।

 

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक है,और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष है।