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इस दासता से कब मिलेगी मुक्ति ?-डा.संजय शुक्ला

भले ही भारत अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो गया हो लेकिन आज भी देश की एक बड़ी आबादी गुलामी के जंजीरों में जकड़ा हुआ है।हाल ही में आस्ट्रेलिया के एक मानवाधिकार संगठन वाक फ्री फाउंडेशन के द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के 165 देशों में 4 करोड़ 60 लाख लोग आधुनिक गुलाम यानि माडर्न स्लेव के रूप में अपना जीवन गुजार रहे हैं, इनमें से शीर्ष पांच देश एशिया के हैं। लेकिन भारत दुनिया के उक्त सभी देशों की सूची में पहले पायदान पर है जहां 1 करोड़ 83 लाख 50 हजार लोग आधुनिक दासता का जीवन जी रहे हैं।

इसी संगठन द्वारा दो साल पहले 2013 में भी एक सर्वेक्षण के बाद वैश्विक गुलामी सूचकांक (ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स) जारी किया था, इस सूचकांक में भी भारत पहले क्रम पर था तत्समय देश में 1.4 करोड़ लोग दासता जैसी स्थिति में जी रहे थे।यानी बीते दो सालों में स्थिति सुधरने के बजाय बदतर होते जा रही है। महज नारों और भाषणों में सर्वहारा वर्ग के विकास का दावा करने वाले देश के नीति-नियंताओं के लिए यह सूचकांक आंख खोलने वाला है।हालांकि केन्द्रीय श्रम मंत्री ने इस रिपोर्ट को तथ्यों से परे बताते हुए इसे खारिज कर दिया है।

बहरहाल ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स जारी करने वाली मानवाधिकार संगठन ने अपने शोध एवं सर्वेक्षण में आधुनिक दासता के परिभाषा के अंतर्गत बंधुआ मजदूरी, वेश्यावृत्ति, भीख मांगना, जबरन शादी, मानव तस्करी, सशस्त्र समूहों में जबरन बहाली और बाल मजदूरी को शामिल किया है। इन कामों के लिए प्रलोभन, धमकी, हिंसा, जोर-जबरदस्ती, छल-कपट, ऋण ग्रस्तता, संपत्ति की गिरवी तथा ताकत का दुरूपयोग आदि का इस्तेमाल किया जाता है।वैसे तो भारत ने आधुनिक दासता के ज्यादातर रूपों को अपराध घोषित किया है।केन्द्र सरकार के तीन मंत्रालयों श्रम मंत्रालय, गृह मंत्रालय, महिला और बाल विकास मंत्रालय संयुक्त रूप से इस दिशा में रोकथाम का कार्य करती है।लेकिन इन मंत्रालयों में परस्पर समन्वय तथा साझेदारी के आभाव व जांच और कानूनी प्रक्रिया में शिथिलता के कारण उपरोक्त गैर कानूनी गतिविधियों में प्रभावी अंकुश नहीं लग पा रहा है।

दरअसल आधुनिक दासता के मूल में मुख्य तौर पर लोगों के सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां जिम्मेदार है। देश में बढ़ती महंगाई, गरीबी और बेकारी ने आम आदमी की कमर तोड़ दी है। शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उसके पहुंच से बाहर हो रही है। पिछले चार-पांच सालों में जरूरी उपभोक्ता जिंसो की कीमतों में सौ से दो सौ फीसदी बढ़ोतरी हुयी है लेकिन इस अनुपात में न तो किसान के उपज की कीमत बढ़ी और न ही मजदूरी की दर ही बढ़ी। देश में जारी आर्थिक उदारीकरण तथा आर्थिक नीतियों के इस दौर में अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहा है। आर्थिक विकास की नयी परिभाषा ने अमीर और गरीब, कृषि और उद्योग तथा शहर और गांव के अंतर को बढ़ा दिया है। भारत कृषि प्रधान देश है जहां 65 फीसदी लोगों की आजीविका कृषि पर ही निर्भर है।लेकिन विकास योजनाओं और औद्योगिकीकरण के नाम पर पूरे देश में खेती की जमीनों को विकास की भेंट चढ़ायी जा रही है।पिछले डेढ़ दशक में लगभग तीस लाख हेक्टेयर कृषि भूमि उद्योग और विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ चुकी है ये आंकड़े और ज्यादा भी हो सकता है।परिणाम स्वरूप खेती पर निर्भर रहने वाला किसान या तो सीमांत कृषक और मजदूर की श्रेणी में आ गया है अथवा वह अपने ही खेत में खड़ी अटालिकाओं या कारखानों में दिहाड़ी मजदूर या चौकीदारी के रूप में काम करने के लिए मजबूर है। मौसम की बेरूखी, सूखा, फसल के नुकसान, कर्ज और आर्थिक जरूरतों के चलते ग्रामीण तबका अपने जड़ों से जुदा होकर महानगरों और शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर हैं।

गौरतलब है कि गरीबी और बेकारी के चलते छत्तीसगढ़ सहित पश्चिमी ओड़िशा से हर साल लाखों ग्रामीण रोजगार की तलाश में उत्तर भारत के निर्माण परियोजनाओं व ईंट भठ्ठों में बतौर मजदूर पलायन करते हैं। कालांतर में बिलासपुर संभाग के कई जिलों के ग्रामीणों को उत्तर भारत के ईट भठ्ठों में बंधक बनाने, प्रताड़ित करने तथा मजदूरी भुगतान नहीं करने के खबरों के बाद जिला प्रशासन द्वारा रिहा कराया गया था। आधुनिक दासता के रूपों में बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी, भीख मांगने के लिए मजबूर करने तथा यौन व्यापार के रूपों का विष्लेषण करे तो उन कृत्यों के रोकथाम के लिए देश में पर्याप्त कानून है। बंधुआ मजदूरी को देश में बहुत पहले अवैध घोषित किया जा चुका है लेकिन श्रम कानूनों का संरक्षण नहीं होने के कारण यह प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है। इसके पीछे कर्ज प्रणाली और सामंती मानसिकता अहम कारण है।

मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि आधुनिक गुलामी का बड़ा हिस्सा घरों, निजी संस्थानों तथा कारखानों में है जहां घरेलू महिला कामगरों सहित बाल मजबूरों का शारीरिक व आर्थिक शोषण बदस्तूर जारी है। देश में सालाना लाखों लोगों की तस्करी हो रही है जिसमें अधिकतर महिलाएं, लड़कियां और बच्चे हैं। छत्तीसगढ़ और ओड़िशा देश की उन पांच राज्यों में शामिल है जहां बड़े पैमाने पर मानव तस्करी हो रही है। छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल सरगुजा और बस्तर में मानव तस्करी के सबसे ज्यादा घटनाएं सामने आयी है। इन क्षेत्रों में कतिपय प्लेसमेंट एजेंसियां और दलालों का संगठित गिरोह लोगों को रोजगार के सुनहरे सपने दिखाकर और बहला-फुसलाकर आदिवासी लड़कियों एवं महिलाओं को महानगरों में घरेलू काम और यौन व्यापार में धकेल रहे हैं।प्रदेश में पिछले पांच सालो में 14 हजार से ज्यादा बच्चे और 19 हजार से ज्यादा महिलाएं लापता हो चुकी है जो मानव तस्करी की ओर इशारा करती है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश में रहस्यमय ढंग से लापता के मामलों पर राज्य सरकार को फटकार भी लगायी है।हालांकि राज्य में यह धंधा चार दशक पुराना है। देश में मानव तस्करी से निबटने के लिए नया कानून ‘‘मानव तस्करी (रोकथाम, संरक्षण और पुर्नवास) विधेयक 2016 तैयार किया गया है।जिसे इस साल संसद में पेश किया जावेगा।

देश में यौन दासता में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। देश में पिछले 9 सालों में लड़कियों की तस्करी में 20 फीसदी वृद्धि हुई है जिसका मुख्य उद्देश्य वेश्यावृत्ति है। महिलाओं की तस्करी का हर पांचवा मामला पं.बंगाल का है जो इस व्यापार का केन्द्र बना हुआ है।हमारे देश के हर शहरों के चौंक-चौराहों पर महिलाओं, किशोरों व मासूमों को भीख मांगते देखा जाना आम है। माना कि बहुत से भिखारी ऐसे हो सकते हैं जो अत्यधिक गरीबी के कारण भीख मांगने के लिए विवश है लेकिन एक सर्वेक्षण में यह भी पाया गया है कि इस काम के पीछे अपराधियों का संगठित गिरोह है जो लोगों को जबरन भीख मांगने के लिए मजबूर करते हैं। भारत के आतंक एवं नक्सल प्रभावित राज्यों में आतंकी सशस्त्र समूह दबावपूर्वक युवाओं और किशोंरों को अपने समूह में शामिल कर रहे है यह भी आधुनिक दासता का कारण बन रहा है। अशिक्षा के चलते कई जाति समूहों में परंपरागत वेश्यावृत्ति और जबरन बाल विवाह इस दासता के पर्याय बने हुए हैं।

बहरहाल 21वीं सदी के भारतीय सभ्य समाज में एक बड़े तबके का दासता में जीवन जीने की मजबूरी केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन ही नहीं वरन यह देश के समावेशी विकास में भी बाधक है। आधुनिक दासता से मुक्ति के लिए सरकार व समाज को श्रम कानूनों के समुचित पालन पर जोर देना होगा तथा प्लेसमेंट एजेंसियों के कामकाज में सतत् निगरानी व नियमन जरूरी है। इस दासता को खत्म करने के लिए पीड़ित महिलाओं और बच्चों के पुर्नवास के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना लागू करना तथा अंर्तराष्ट्रीय प्रावधानों को मंजूर करना आवश्यक है। जिस दिन समाज के हाशिए पर रहने वालों को सम्मानजनक जीवन जीने की आजादी मिल जाएगी उसी दिन हर भारतवासी मानेगा कि देश आजाद है।

 

सम्प्रति–लेखक डा.संजय शुक्ला शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में लेक्चरर है।