छत्तीसगढ़ विधानसभा के हालिया बजट सत्र के दौरान राज्य सरकार द्वारा एक सवाल के जवाब में बताया गया कि आंकड़ों के अनुसार सन् 2012 से 2015 तक लगभग 96 हजार लोगों ने राज्य से पलायन किया है। 2015 में सर्वाधिक 46 हजार लोगों ने रोजगार की तलाश में दिगर प्रदेशों में पलायन किया है। प्रदेश में व्याप्त सूखे की वजह से इस वर्ष पलायन के सारे कीर्तिमान ध्वस्त होने की आशंका है।

हर साल की तरह खरीफ धान की कटाई के बाद हर साल राज्य के रेल एवं बस स्टेण्ड में पलायन करने वाले ग्रामीणों की भीड़ दिखाई पड़ती है। विडंबना है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के डेढ़ दशक बाद भी राज्य पलायन के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाया है, हालांकि राज्य में शहर से लेकर गांवों तक रोजगार मूलक कार्यों की कमी नही है,बावजूद ग्रामीणों का पलायन थमा नहीं है।राज्य में पलायन के इतिहास पर गौर करे तो यह क्रम बीते कई दशकों से जारी है चूंकि कालांतर में राज्य में सिंचाई के साधन तथा रोजगार उपलब्ध नहीं थे एवं खेती वर्षा पर ही निर्भर थी,ऐसी स्थिति में एक फसली खेती वाले क्षेत्रों में सूखे की स्थिति तथा सामान्य फसल की होने पर भी ग्रामीण कोयला खानों सहित देश के महानगरों एवं क्षेत्रों में रोजगार हेतु पलायन के लिए बाध्य होते थे, हालात यह रहते थे कि कई-कई गांव वीरान हो जाया करते थे, लेकिन अब इन स्थितियों में अंतर आया है। प्रदेश में बढ़ते सिंचाई साधन, औद्योगिकीकरण तथा अधोभूत सरंचना विकास कायों तथा भवन निर्माण के क्षेत्र में आई क्रांति के कारण बहुत हद तक पलायन पर अंकुश लगा है।बदलती परिस्थितियों के कारण पलायन के आंकड़ों में भी कमी आई है।आंकड़ों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2000-2001 में जहां पलायन करने वालों की कुल संख्या 6 लाख से ऊपर थी वहीं अब दो से ढाई लाख के बीच है।सरकार के अनुसार यह संख्या 50 हजार सालाना है। पलायन के परिपेक्ष्य में सरकार का यह तर्क भी बहुत हद तक सही है कि प्रदेश के कई क्षेत्रों में पलायन एक परंपरा बन चुकी है। इस परंपरा के पृष्ठभूमि जहां एक ओर आर्थिक कारण, अधिक मजदूरी और वहीं रोजगार की गारंटी है जिसके कारण ग्रामीण प्रतिवर्ष पलायन करते हैं, लेकिन यह अर्धसत्य है।

छत्तीसगढ़ के ग्रामीण मुख्यतः जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, हरियाणा, आगरा, पंजाब जैसे क्षेत्रों में जाते हैं जहां ये ईट भट्ठों, भवन निर्माण तथा पत्थर खदानों आदि में मजदूरी करते हैं। सबसे ज्यादा पलायन बिलासपुर संभाग के जांजगीर-चांपा जिला सहित मस्तुरी, बिल्हा तथा रायगढ़ क्षेत्र से होता है वहीं रायपुर संभाग के कसडोल, लवन, गरियाबंद, तिल्दा, सरायपाली क्षेत्र तथा दुर्ग संभाग के बालोद, डौंडी क्षेत्रों से होता है। इन क्षेत्रों में पलायन की प्रक्रिया सुनियोजित ढंग से मजदूर ठेकेदारों जो कि अधिकांशतः प्रदेश के बाहर के होते हैं के स्थानीय संपर्कों के माध्यम से होता है। मजदूर ठेकेदार ग्रामीणों को ट्रेनन अथवा बस द्वारा गंतव्य तक ले जाते हैं, कई बार तो बंद कंटेनर में भी पलायनकर्ताओं के परिवहन की घटना प्रकाश में आई है। पलायन पर प्रभावी नियंत्रण के लिए श्रम विभाग की जवाबदेही निर्धारित है,लेकिन इस दिशा में श्रम विभाग द्वारा केवल औपचारिकताओं का ही निर्वहन किया जाता रहा है।

बहरहाल पलायन के कारणों पर विचार आवश्यक है।वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार कार्यक्रम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के माध्यम से ग्राम पंचायत स्तर तक संचालित है। इस योजना के द्वारा ग्रामीणों को महज 60 से 90 दिन का ही रोजगार उपलब्ध हो पा रहा है। इस योजना में अनियमितताओं, गडबडि़यों का सिलसिला बदस्तूर जारी है, इस योजना के तहत मजदूरों के भुगतान भी लंबित होने की शिकायते आम है। दूसरी ओर पलायन करने वाले ग्रामीणों को महानगरों एवं अन्य जगहों में आगामी फसल सीजन तक सपरिवार मजदूरी की गारंटी होती है, तथा इन कार्यों में उन्हें सरकारी कार्यो की अपेक्षा दोगुनी-तिगुनी मजदूरी प्राप्त होती है, इस मजदूरी से वे आगामी फसल हेतु अच्छी-खासी बचत कर लेते हैं। पलायन के लिए दूसरी ओर सामाजिक परिस्थितियां भी महत्वपूर्ण कारण है। राज्य बनने के पश्चात् मैदानी क्षेत्र के ग्रामीणों का जहां जीवन स्तर ऊॅंचा हुआ है वहीं उनके विवाह इत्यादि समारोहों में अब व्यय के अनुपात में भी बढ़ोतरी हुई है, फलस्वरूप जरूरी संसाधनों तथा रस्म-रिवाजों के खर्चों की पूर्ति के लिए अतिरिक्त पैसों की आवश्यकता के कारण ग्रामीण पलायन हेतु बाध्य है। तुलनात्मक रूप से बस्तर के अलावा अन्य वनांचलों में पलायन का प्रतिशत अत्यंत कम है क्योंकि इन क्षेत्रों के ग्रामीणों ने अपनी आवश्यकता सीमित रखी है फलस्वरूप उनके पास उपलब्ध संसाधनों में ही अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

पलायन के दौरान होने वाले विसंगतियों पर भी विश्लेषण आवश्यक है, कई बार इन ग्रामीणों को बंधुवा मजदूर के रूप में बंधक बनाने अथवा आर्थिक तथा शारीरिक शोषण की घटनाएं प्रकाश में आई है, जिसके बाद शासन द्वारा कदम उठाते हुए ग्रामीणों को लेबर ठेकेदारों के चंगुल से छुडाना पड़ा है। सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश द्वारा बंधुआ मजदूरों के मुक्ति हेतु बकायदा अभियान भी प्रारंभ किया गया था। चूंकि अस्थायी रूप से नियोजित कार्य में श्रम कानूनों तथा प्रावधान लागू नहीं रहते फलस्वरूप कार्य के दौरान होने वाले दुर्घटनाओं में अपंगता, मृत्यु अथवा बीमारी की स्थिति में ग्रामीणों को चिकित्सा सुविधा एवं मुआवजा प्राप्त नहीं होता फलस्वरूप जन-धन की हानि होती है।

मनरेगा योजना का मूल उद्देश्य पलायन रोकना है, इस योजना के अंतर्गत 150 दिनों की रोजगार की गारंटी पलायन के रोकथाम में सार्थक पहल हो सकता है। ग्रामीणों को गांवों में ही स्वरोजगार अथवा रोजगार उपलब्ध करा कर इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है।कृषि तथा साग-सब्जी आधारित उद्योगों के माध्यम से गांवों में ही वर्ष भर रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। टमाटर, अमरूद, आम, आंवला, इमली, बेर आदि से संबंधित प्रसंस्करण ईकाईयों की स्थापना तथा ब्लाक स्तर में कोल्ड स्टोरेज के निर्माण से पलायन पर अंकुश लगाया जा सकता है। महानगरों एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में राज्य के हस्तशिल्प की बहुतायात मांग है इस दिशा में कोसा, हाथकरघा, काष्ठ, लौह एवं टेराकोटा शिल्प से संबंधित कुटीर उद्योग ग्रामीण स्तर पर स्थापित किया जाना चाहिए। फ्लाई ऐश से ईंट निर्माण ईकाई की स्थापना, कुक्कुट पालन, मछली पालन के द्वारा भी ग्रामीण आर्थिक रूप से स्वालंबी हो सकते है। अशिक्षित ग्रामीणों को राजमिस्त्री का प्रशिक्षण प्रदान कर प्रदेश में ही बेहतर रोजगार प्रदान किया जा सकता है। उपरोक्त उपक्रमों से छत्तीसगढ़ राज्य पलायन के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।

सम्प्रति – लेखक डा.संजय शुक्ला  शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में लेक्चरर है।