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’’प्रभु जी का थ्री एम रेल बजट’’ – रघु ठाकुर

रेलमंत्री सुरेश प्रभु का 2016-17 का रेल बजट आ चुका है,इस रेल बजट के बारे में समाचार पत्रों में आम तौर पर जो लेख आए है वे रेल बजट के पक्ष में है,और यह कहा जा रहा है कि यह लोक लुभावन नही बल्कि व्यावहारिक रेल बजट है।मेरे एक मित्र श्री पाटिल ने तो यह भी लिखा कि जनता इस बजट से खुश है और आप क्यों विरोध कर रहे है ? कतिमय समाचार पत्रों में जनमत सर्वेक्षण छापा गया कि 73प्रतिशत लोगों ने रेल बजट पर प्रसन्नता व्यक्त की है, मात्र 27 का अल्पमत इसके पक्ष में नही है। जिन समाचार पत्रों ने यह सर्वेक्षण कराया है उसने लोगो से सवाल पूछा, मगर उनकी पृष्ठभूमि क्या है वह यह भूल जाते है कि आज भी देश की 80 प्रतिशत आबादी इन्टरनेट आदि के प्रयोग से बाहर है।

रेल बजट लोक लुभावन नही है इस पर, मैं इसलिये बहस छोड़ देता हूं क्योकि रेल बजट के पक्षधर लोगो ने इसे स्वीकार कर लिया है। हांलाकि यह कहा जा सकता था कि आरक्षण में महिला और वृद्धों को नीचे वाली बर्थ के आंवटन में 50 प्रतिशत आरक्षण देना और उसे बड़े भारी काम के रुप में बताना, क्या यह लोक लुभावन का तरीका नही है? कुछ मित्रो ने यह भी कहा कि पहले रेल गाडि़यों की घोषणा हो जाती है जो वर्षो बाद चालू हो पाती थी। यह बात सही है, पूर्व रेलमंत्री श्री नीतीश कुमार ने जनशताब्दियों और संपर्क क्रांति गाडि़यों की घोषणायें की थी।उन्होंने क्षमता या तैयारी से अधिक गाडि़यों की घोषणा कर दी थी और जिन्हें क्रियान्वयन करने में रेल्वे को कई वर्ष लग गये थे। परन्तु इसका दूसरा भी पहलू है कि चुनाव के पूर्व जो घोषणायें की जाती है वे जनभावनाओं के अनुकूल होती है और सरकारों को या मंत्रियों को उन्हें पूरा करने की बाध्यता भी पैदा करती है। अगर यह घोषणायें नही हुई होती तो यह भी संभव था कि बाद के रेलमंत्री केवल अपनी पंसद या राजनैतिक जरुरत के आधार पर ही घोषणा करते और वे अन्य क्षेत्र वंचित रह जाते जिन्हें उन्हें लाचारी में गाडि़यों की पूर्ति करना पड़ी।

बजट के पक्षधर लेागों ने यह भी जोरशोर से प्रचारित किया है कि बजट में किराया नही बढ़ा। परन्तु उन्होंने इस तथ्य को जानकर पीछे कर दिया कि 2014 से सरकार बनने के बाद 2015-16 के बजट के बाद और इस बजट के पूर्व रेल मंत्रालय कई बार रेल का भाड़ा बड़ा चुका है, और अगर सबको जोड़ा जाये तो किराया लगभग 30 प्रतिशत से अधिक पहले ही बढ़ चुका है। वर्ष 2014 के जनवरी-फरवरी माह में भोपाल से नई दिल्ली रेल का किराया एक वरिष्ठ नागरिक को 205 रुपया लगता था जो अब बढ़कर 270 रुपये हो गया है। टिकट रद्दीकरण शुल्क बढ़ाकर प्रतिक्षा सूची का 65 रुपया और कन्फर्म टिकट का 120 रुपया कर दिया गया है। अब एक तरफ स्थिति यह है कि रेल गाडि़यों में यात्रियो की भारी भीड़ है तथा यात्री बर्थ पाने के लिये दलालों को और कर्मचारियों को अतिरिक्त पैसा देने को लाचार होते है और दूसरी तरफ रेल मंत्री के इस निर्णय से दलालों का शुल्क और ज्यादा बढ़ गया है जो दलाल पहले टिकट दिलाने के 100-200 रुपये लेते थे वे अब दिल्ली, मुंम्बई जैसे महानगरों के 400-500 रुपये लेते है। भीड़ की स्थिति यह है कि कही-कही तो आर.ए.सी के नाम पर एक बर्थ पर तीन-तीन यात्रियों को सशुल्क टिकट दिये जाते है। बाजू के नीचे वाली बर्थ आर.ए.सी वालों से भरी होती है और आरक्षण पक्का न होने के बाद भी यह यात्री रात-रात भर बैठकर यात्रा करते है। जिनके पास प्रतिक्षा सूची का टिकट नही होता उसे भी विशेष चैंकिग स्टाफ 250 रुपये जुर्माना और आरक्षण शुल्क सहित टिकट का पैसा लेकर रसीद बनाते है और वे यात्री भी आरक्षित बोगियों में फर्श पर बीच में सोते हुये यात्रा करते है। यह आश्चर्य की बात है कि 72 बोगियों में 100 या 125 तक यात्री, यात्रा करते है। पूरा आरक्षण शुल्क देते है और फिर भी रेल विभाग कहता है कि उन्हें यात्री गाडि़यों में घाटा होता है। समूचा रेलवे का सांख्यकी विभाग झूटे आकड़े परोसता है, और हमारे विद्धान रेलमंत्री दूसरी तह में जाने का प्रयास नही करते।रेलवे का आकड़ा विभाग केवल कन्फर्म टिकट से प्राप्त राशि की ही गणना करता है। पिछले दिनो दमोह से भोपाल तक चलने वाली राज्यरानी एक्सप्रेस के बारे में एक खबर छपी कि यह गाड़ी घाटे में चल रही है मुझे यह पढ़कर आश्चर्य हुआ और स्मरण आया कि ऐसी ही खबर पिछले वर्ष भी छपी थी तथा यह समाचार भी छपा था कि रेलवे घाटे की बजह से इस गाड़ी को बंद करने पर विचार कर रहा है। मैं स्वतः इस गाड़ी से कभी-कभी यात्रा करता हॅू और मैंने देखा है कि इस गाड़ी से कई हजार लोग प्रतिदिन भोपाल आते-जाते है। जब गहराई से तफसीस की तो बताया गया कि रेल की गणना में केवल उन्हीं यात्रियों का समावेश किया जाता है जिनके आरक्षण हो और दूसरी तरफ स्थिति यह है कि अनेको स्टेशन पर इस गाड़ी में आरक्षण की व्यवस्था ही नही है।

पश्चिम मध्य रेल्वे के अधिकारियों ने यह नियम बनाया है कि यात्री सामान्य टिकट लेकर आरक्षित डिब्बे में बैठ सकता है उसे 15 रुपये बैठने के रुप में आरक्षण शुल्क देना होगा। अब पूरी गाड़ी में मात्र एक दो टी.टी.ई होते है और जो बमुश्किल एक दो डिब्बों की रसीद बना पाते है। हम लोगो ने स्वतः रेल्वे स्टेशन पर धरना देकर मांग की कि टी.टी.ई को आरक्षण शुल्क वसूल करने के लिये कूपन दिये जाये ताकि वे शीघ्रता से कम समय में आरक्षण शुल्क ले सके। जो अधिकारी जबलपुर से ज्ञापन लेने आये थे, उन्होंने कहा कि कूपन छपने का आर्डर दे दिया गया है,एक सप्ताह में कूपन प्रणाली शुरु हो जायेगी, परन्तु आज लगभग दो वर्ष होने को आये कूपन प्रणाली शुरु नही हो सकी। एक टी.टी.ई को एक रसीद बनाने में औसतन 5-7 मिनट का समय लगता है। याने मात्र एक बोगी की 100 सीटो को बनाने के लिये उसे 7-8 घंटे चाहिये। जबकि दमोह से भोपाल तक की पूरी यात्रा का निर्धारित समय लगभग 5 घंटे 30 मिनट का होता है। अगर कूपन प्रणानी शुरु हो जाये तो रेल्वे को औसतन 20 हजार रुपये एक तरफ से मिलेगे, याने 40 हजार रुपये एक दिन का कुल मिल सकता है। परन्तु भ्रष्टाचार करने के लिये रेल्वे 1.5 करोड़ रुपये साल की आमदनी नही बसूलना चाहती।

पिछले दिनों किराया बढ़ाते समय रेल्वे ने यह तर्क दिया कि बस का भाड़ा एक रुपये किलोमीटर होता है जबकि रेल का भाड़ा 20 पैसे प्रति किलोमीटर होता है। परन्तु रेल मंत्रालय यह भूल गया कि बस में 60 यात्री यात्रा करते है और रेल में 2-3 हजार यात्री यात्रा करते है अतः रेल का खर्च तुलनात्मक रुप से 1/30 होना चाहिये। फिर पिछले दिनों सारी दुनियां में कच्चे तेल के दाम जिस प्रकार गिरे है उससे रेल का खर्च भी कम हुआ है। आज दुनिया में तेल का दाम गिर कर इतना नीचे आ गया है कि अगर उसे एक वैरल में बाटा जाये तो वह 30 हजार प्रति बेरल याने 158 लीटर याने 12 रुपये 67 पैसे हो गया है। जबकि रेल्वे स्टेशन पर बिकने वाला पानी 15 रुपये प्रति लीटर बिक रहा है। अब जब दुनिया में पानी से सस्ता तेल हो गया है तो फिर घाटा किस बात का। जो लोग यह कहते है कि रेलगाड़ी चलाना परिचालकी काम है। इसलिये नई गाडि़यों का उल्लेख नही किया। में उन्हें बताना चाहूंगा कि चार गाडि़यों को चलाने की घोषणा इस बजट में की गई है तो फिर वह क्यों की गई है। यह चारों गाडि़यॅा सम्पूर्ण रुप से वातानुकूलित गाडि़यां है। जिनमें सामान्य यात्री के लिये कोई यात्रा की संभावना नही है। मतलब साफ है कि रेल मंत्रालय केवल बड़े लोगो की व सम्पन लोगों की जरुरतो की पूर्ति के लिये रेल चलाना चाहते है, गरीबो के लिये नही। जबकि वातानुकूलित डिब्बो का खर्च और घाटा कहीं ज्यादा होता है ।

रेलमंत्री ने नई रेल लाइनों के निर्माण को भी बजट में नही रखा है सिवाय एक निगुर्ण आंकड़े कि वे 200 किलोमीटर की नई रेल लाइन बिछायेगें। अगर बजट में वे उन रेल लाइनो का उल्लेख करते है तो उन्हें उनकी तार्किकता सिद्ध करना पड़ती, वर्ना विरोध होता। इस निगुर्ण आंकड़े की आड़ में उन्होंने न केवल अलोचना की संभावना को कम किया है बल्कि अप्रत्याशित रुप से नई रेल लाइनो के निर्माण का एकाधिकार उनके व प्रधानमंत्री के बीच सुरक्षित कर लिया है। वैसे भी बजट की अधिकांश घोषणायें कारपोरेट प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी और मेट्रो सिटी की पूर्ति के लिये है।अहमदाबाद से मुम्बई वातानुकूलित रेल प्रधानमंत्री की जरुरत है। बनारस से गाडि़यॅा चलना सरकार की जरुरत है क्योंकि वहां के सासंद स्वंय मोदी है। सही देखा जाये तो यह भारत का रेल बजट नही है बल्कि 3 एम का रेल बजट है।

1.            मल्टीनेशनल कम्पनियां (एम.एन.सी)।

2.            मोदी

3.            मेट्रो सिटी

रेल बजट सवा अरब जनता की बजाय 4-5 करोड़ सम्पन्न तबके तक सिकुड़ गया है। संघ की संतुष्टि के लिये कुछ तीर्थ स्थानो को गाडि़यो से जोड़ने की स्पष्ट घोषणा भी बजट में है। परन्तु जन उपयोगिता नदारत है। सदैव की तरह इस बार भी रेल मंत्री ने कुछ चुनिंदा स्टेशनों के लिये विश्व स्तरीय बनाने की घोषणा की है। इस विश्वस्तरीय का वास्तविक अर्थ समझना होगा। इसके दो अर्थ है एक भ्रष्टाचार और दूसरा पी.पी.पी. के नाम पर निजीकरण। विश्वस्तरीय के नाम पर स्टेशनों को खूबसूरत बनाने के नाम पर अरबो रुपये व्यय होगा। पुराने पत्थर उखाड़ कर नये लगाना, कीमती उपकरण लगभग आदि इसका अर्थ है। और इसमें केवल भ्रष्टाचार है इसी पैसे को रेल्वे अगर आधार भूत संरचना, नई रेल लाइन का निर्माण पर खर्च करते तो सैकड़ो किलोमीटर रेल लाइन और बिछाई जाती। जिससे लाखो ग्रामीण और गरीब लाभान्वित होते। कुछ रेल लाइन के काम की शुरुआत की घोषणा की गई है परन्तु उसके कारण राजनैतिक या ताकत है। इन्दौर-जबलपुर, नई रेल लाइन के निर्माण के पीछे लोकसभा अध्यक्ष की इच्छा है। भिन्ड से कोंच रेल लाइन निर्माण की घोषणा के पीछे आगामी उ.प्र. का चुनाव है। जिससे लगभग 40 विधानसभा क्षेत्र इससे प्रभावित होगे। परन्तु अन्य सर्वेक्षण जो पूरा हो चुके पर रेल लाइनों की स्वीकृति नही दी गई, क्योंकि वहां कोई राजनैतिक दबाव नही है और फिर चुनाव की वक्ती जरुरत भी नही है। बुन्देलखण्ड जो वर्षो से उपेक्षित रहा है को भारी निराशा हुई है।रेलमंत्री जी भले आदमी है और मुझे उम्मीद थी कि वे क्षेत्रीय न्याय करेगे परन्तु वे सत्ता की भागीदारी के लाचारी बंधनो से मुक्त नही हो सके।

सम्प्रति – लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक है।वह लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी (लोसपा) के संस्थापक अध्यक्ष है।