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वेबस हैं देश का अन्नदाता – रघु ठाकुर

सदियों से हम लोग कुछ जुमलो को दोहराते रहे है, जैसे भारत एक कृषि प्रधान देश है और किसान अन्नदाता है। निःसंदेह भारत की पिछले हजार दो हजार साल की अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित रही है हांलाकि यह इस अर्थ में सही है कि अधिकांश लोग कृषि कार्य करते थे, और कृषि कार्य के आधार पर ही अपनी जीविका चलाते थे। परन्तु 18वी. और 19वी. सदी में देश को बड़े-बड़े अकाल भी झेलना पड़े है। जिनमें लाखों लोगों की मौत हुई है इसके कारण भी थे कि कृषि लगभग पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर थी और आसमानी वारिश के न होने पर भारी अकाल पड़ते थे।

उस समय की राज्य व्यवस्था ने कृषि के लिये प्रकृति की निर्भरता से हटकर कुछ सामाजिक या राजकीय उपाय हो सकते है इस बारे में कोई चिंतन नही किया था। और न ही कोई शोध आदि कराये थे। चूंकि राजतंत्रीय व्यवस्था में जन उत्तरदायित्व बाध्यकारी नही था अतः आमतौर पर राजा-महाराजाओं ने इस दिशा में नही सोचा, कुछ राज्यों में अवश्य कतिपय राजाओं ने अपनी व्यक्तिगत् समझ और भावनाओं के आधार पर सिंचाई आदि के कुछ उपाय किये थे जैसे तालाब, नहर आदि। परन्तु यह बहुत सीमित इलाकों में थे। कही-कही लोगो ने अपने अनुभवो से सीखकर कुछ समूह प्रयास भी किये थे परन्तु वे भी बहुत हद तक सीमित थे।आजादी के बाद जब वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली आई तथा जन उत्तरदायी शासन व संविधान व्यवस्था बनी तब शासन व्यवस्था को कृषि व किसानो के बारे में कुछ सोचने की लाचारियां हुई, और दुनिया में हो रहे शोध और उपायो का प्रयोग देश में शुरु हुआ।पंचवर्षीय योजनाओं में नदियों के पानी के इस्तेमाल के लिये नहरों आदि की योजनाये बनाई और कुछ का निर्माण भी हुआ जैसे भाखड़ा नंगल डेम, और उससे पानी को खेतो में दिये जाने वाली नहरें बनी जिससे पंजाब और हरियाणा के खेतों को पानी मिला। इन राज्यों के राजनैतिक नेतृत्व ने भी बांध और नहरों के निर्माण में अहम् भूमिका निभाई तथा इन राज्यों को हरित क्रांति के माध्यम से सम्पन्न किसान के रुप में खड़ा किया।परन्तु यह प्रयोग भी कुछ राज्यो तक ही सीमित रहे।

1965 में जब डा.लोहिया चुनकर संसद में पहुंचे तो उन्होंने देश को और संसद के माध्यम से सरकार को बाढ़ और सूखे के खतरो के प्रति सावधान किया। उन्होंने कहा कि एक तरफ देश के करोड़ों लेाग बाढ़ से। अगर बरबाद हो जाते है और दूसरी तरफ करोड़ो लोग सूखे से। अगर बाढ़ के पानी को बांधकर सूखे खेत की और मोड़ दिया जाये तो देश को सूखे और बाढ़ की भीषण यातनाओं से स्थाई मुक्ति मिलेगी तथा कृषि की आय बढ़ेगी और गांव में सम्पन्नता तथा स्व विकास की क्षमता पैदा होगी। परन्तु तत्कालीन सरकार ने राजनैतिक विरोध की वजह से लेाहिया की इस बात को स्वीकार नही किया और आज लोहिया के उस भाषण के 50 वर्ष बाद भी देश इन बाढ़ और सूखे की विभीषिकाओं को झेलने के लिये अभिशप्त है।पिछले वर्षो में कृषि के समक्ष जो संकट पैदा हुये है उन्हें हम निम्न प्रकार से रेखांकित कर सकते है।

1. सूखा, 2. बाढ़, 3. कृषि उत्पादन की बढ़ती लागत, 4. हरितक्रांति याने विकसित बीज और बढ़ता लागत खर्च, 5. किसान पर कर्ज और बढ़ती आत्महत्यायें, 6.कृषि के रकवे में कमी और 7.विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण।

पिछले 3-4 दशकों में जो घटनायें घटी है उनका बारीकी से विष्लेशण किया जाये तो एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आजादी के बाद की भारत सरकार ने विकास का आधार गांधी की कल्पना के विपरीत याने गांव व कृषि के विपरीत उद्योग और शहरों को बनाया तथा भारी उद्योगो के माध्यम से भारी पूंजी के इस्तेमाल से शहरों के विकास की कल्पना की थी।इन भारी उद्योगों के लिये हजारो एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया था। इनकी प्यास बुझाने पर खेतो के हकका पानी लगामा गया।ग्रामीण पूंजी को शहरो के विकास पर लगाया। इसके परिणाम स्वरुप जहां कृषि क्षेत्र घटा कृषि उपेक्षित हुई,कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश नही हुआ-वही कर्मचारियों की एक संगठित जमात खड़ी हुई जो बहुत हद तक केवल अपने आप में केन्द्रित हो गई। राष्ट्रीय सरोकारो या राष्ट्रीय चिंताओं के सहभागी बनने के बजाय यह जमात अपने मंहगाई भत्ते तक सिकुड़ गई इसके परिणाम स्वरुप खाद्यान्न की पूर्ति के लिये भी विदेशी आयात मुख्य साधन बन गया। 70 के दशक से सरकारों ने हरित क्रांति की पहल की और हरित क्रांति के आधार पत्र के रुप में विदेशी बीज (हाई ब्रीड सीड) विदेशी खाद, विदेशी दवायें रासायनिक खाद आदि का चलन तेज किया। इनके प्रयोग से पैदावार तेजगति से बढ़ी। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ा। परन्तु कुछ विपरीत प्रभाव भी सामने आये। खेती की जमीन जो देशी गोबर खाद या जैविक खाद से अपनी गुणवत्ता बनाके रखती थी वह रसायनिक खाद में जल गई तथा उपजाऊ मिट्टी रेतीली मिट्टी में बदल गई। और जमीन की स्व उर्वरकता लगभग समाप्त कर दी गई। पानी का प्रयोग कई गुना बढ़ गया और धीरे-धीरे जल संकट और गहराने लगा। जिन इलाको में हाई ब्रीड सीड से उत्पादन एकदम तेज हुआ तथा किसानो की आमदनी बढ़ी तो उन्होंने कार, टैक्टर आदि के इस्तेमाल और सुख सुविधाओं को अपना लिया और जब किसी एक वर्ष में बीज की खराबी, वर्षा-अभाव या अन्य किसी कारण से पैदावार नही हुई तो वह आघात सहना किसानो को कठिन हो गया। एक तरफ लागत में भारी वृद्धि दूसरी तरफ भारी घाटा और तीसरी तरफ मंहगी और विलासी जीवन शैली और चौथी तरफ सदमा सहने के साहस की कमी ने किसानो को आत्महत्या का रास्ता दिखा दिया। अनेक अध्ययनों के आधार पर और सरकारी सूचनाओं के आधार पर यह जानकारी सामने आई है कि पिछले एक दशक में कई लाख किसान आत्महत्या कर चुके है।

पिछले 65 वर्षो में सूखा राहत और बाढ़ राहत के नाम पर लाखों करोड़ो रुपये खर्च किये गये जिसका अधिकांश नेताओं व अफसरो के पेट में चला गया परन्तु स्थिति बद से बदतर हो गई। अगर यह राशि सूखे और बाढ़ से मुक्ति याने बाढ़ के पानी और सूखे खेत के रिश्ते जोड़ने में खर्च किये होते तो यह स्थिति नही बनती।

सरकारो ने आम तौर पर बैंको से किसानों को कम ब्याज पर और किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से आसानी से कर्ज की व्यवस्था की परन्तु इस कर्ज का हाल या तो कृषि इतर कार्यो में हुआ या फिर वह कोई स्थाई हल नही दे सका। तथा किसान फिर से बैंक के साथ साथ निजी साहूकारो की तरफ मुड़ गया। निजी साहूकारो की ब्याज की दरे कितनी भारी होती है और वसूली कितनी कठोर होती है यह किसी से छिपा हुआ नही है परिणाम स्वरुप किसानों की आत्महत्यायों की घटनायें हुई है।उनको अगर बारीकी से देखा जाये तो बहुतायत उनकी है जो सरकारी कर्ज के अलावा निजी साहूकारो के कर्ज से परेशान है।

बदलते दौर में एक और नये प्रकार की प्रवृति सामने आई है। अब किसान जो थोड़ा बहुत सक्षम है या फिर जिसके पास खेती के अलावा कोई व्यापार या नौकरी आदि का सहारा है वह जमीन का मालिक तो है परन्तु खेती नही करता। और अपनी जमीन को कृषि के लिये बटाई (आधे-आधे) या फिर ठेका पर देकर कृषि कराने छोटे किसानो या मजदूरो को देता है। और अगर कोई प्राकृतिक विपत्ति आई तथा सरकार ने मुआवजा भी दिया तो मुआवजा की राशि जमीन के मालिक के पास पहॅुचती है तथा बटाईदार या ठेका खेतीवाला जो लागत लगा चुका है पैसा दे चुका होता है पूर्णतः बरबाद हो जाता है। कहीं-कहीं कोई ईमानदार जमीन का मालिक ऐसा होता है जो इस मुआवजे की रकम को पीडि़त किसान को दे देता है। इस घटनाओं से अब ग्रामीण क्षेत्रो में भुखमरी के हालात पैदा हो गये है। कि जिसे देश के लोग व बुद्विजीवी गौरव से अन्नदाता कहते है और कभी-कभी खुद किसान अपने आप को अन्नदाता मानकर गौरवन्वित होता है अब ऐसे मुकाम पर पहॅुच रहा है जिसे अपना ही पेट भरना मुश्किल हो रहा है। पिछले दिनो महाराष्ट्र की दो घटनायें सामने आई। एक यह कि एक फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने अपनी तरफ से कुछ किसानो को आर्थिक सहायता देना शुरु किया ताकि वे आत्महत्या को लाचार न हो और दूसरी यह कि भास्कर की पहल पर अन्नदाताओं को पेट भरने के लिये जनता से अन्न इक्ट्ठा कर शहरो से इक्टठा कर उसे गांव में अनाज उत्पादकों में बांटा जायेगा। 57 टन अनाज विदर्भ के सूखा पीडि़त अंचलो में सहायता और पेट भरने के लिये बांटा जायेगा। निःसंदेह यह दोनो मानवीय पहल है और नाना पाटेकर तथा भास्कर या अन्य कोई भी व्यक्ति, संस्थाये जो इसकी पहल कर रही है वह बधाई की पात्र है। परन्तु गम्भीर और यक्ष प्रश्न यह है कि आज अन्नदाता अन्न ग्रहीता बन गया है जो स्वतः पर निर्भर हो कर पेट भरने को भी दूसरो पर निर्भर है।

तो अब क्या किसान को अन्नदाता कहा जाये ? यह कितनी विचित्र त्रासदी है कि जहां खेत खलिहान है वहां अनाज नही है और जहां बाजार और गोदाम है वहा अनाज है। यह भी एक गम्भीर बदलाव का संकेत है कि उत्पादन उत्पादक के पास नही बल्कि बाजार और सम्पन्न लोगो के पास है।अगर किसानों ने भी इन सवालों पर सोचना व उत्तर व हल खोजना शुरु नही किया तो यह दोनो जुमले-जुमले भी नही रहेगे। देश कृषि प्रधान के बजाय अनाज आयातक याने आयात प्रधान और किसान अन्नदाता के बजाय अन्न भिक्षुक बन जायेगा।

 

सम्प्रति- श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।