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सब अर्बन ट्रेनों का परिचालन: निजीकरण की ओर बढ़ता कदम – रघु ठाकुर

रघु ठाकुर

कुछ समाचार पत्रों में इस आशय के समाचार आए हैं कि सब-अर्बन ट्रेनों को रेल-नेटवर्क से अलग करके राज्यों को सौंपने का प्रस्ताव नीति आयोग की ओर से सरकार के पास पहुंचाया गया है। इस प्रस्ताव के अनुसार रेलवे की माली हालत सुधारने के लिए यह आवश्यक है। नीति आयोग ने सुझाव दिया है कि ईएमयू-डीएमयू सहित 200 किलोमीटर तक चलने वाली लोकल रेल गाड़ियां राज्य सरकारों को दी जा सकती हैं। यद्यपि इनका परिचालन रेलवे के अधीन रहेगा तथा रेलों के फेरे, किराया, स्टॉपेज आदि राज्य सरकार तय कर सकेंगी। नीति आयोग ने इस प्रस्ताव का आधार रेलवे की जर्जर आर्थिक स्थिति को बताया है और यह प्रचार निरंतर रेलवे के द्वारा चलाया जा रहा है कि यात्री किराए में 56 प्रतिशत अनुदान रेलवे देता है।

  यह प्रचार है कि भारतीय रेल घाटे में है और सरकार 56 प्रतिशत अनुदान दे रही है। मात्र नीति आयोग के प्रस्ताव का ही नहीं, यह प्रचार रेलवे अपने टिकटों के पीछे पिछले कई वर्षों से निरंतर छाप कर भी कर रही है। टिकट के पीछे लिखा जाता है कि क्या आपको पता है कि आपके टिकट में 56 प्रतिशत का अनुदान है ? हालांकि हमारा समाज इतना सहनशील हो चुका है कि वह इस झूठ के प्रति विरोध तो दूर की बात कोई प्रतिक्रिया भी व्यक्त नहीं करता। हालांकि, कभी भी रेलवे ने या नीति आयोग ने इस जानकारी के विवरण को प्रकाशित नहीं किया कि आखिर यह 56 प्रतिशत घाटा,जो रेलवे को हो रहा है, उसका आधार क्या है ? जबकि, वर्तमान यात्री किराए से लगभग 40 से 50 प्रतिशत कम किराए पर यात्री रेलगाड़ियां चलती रही हैं। 2014 में केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद यात्री किराए में काफी वृद्धि हुई है। यहां तक कि सामाजिक दायित्व के आधार पर जो सुविधा यात्रियों के विभिन्न वर्गों को मिलती थी उन्हें भी इस सरकार ने बंद कर दिया है। 2014 के पहले वरिष्ठ नागरिकों को यात्री किराए में 40 प्रतिशत तक की छूट थी, महिलाओं को तो 50 प्रतिशत तक की छूट थी और इसी प्रकार अन्य कई श्रेणी के यात्रियों को भी यात्री किराये में छूट मिलती थी। इन रियायतों को रेलवे ने बंद कर दिया। कोरोना काल का बहाना बनाकर भारत सरकार ने जो रियायतें बंद करने के निर्णय लिए थे उन्हें फिर शुरू भी नहीं किया। यद्यपि कोरोना काल भी समाप्त हो गया। मतलब साफ है कि कोरोना सरकार के लिए एक बहाना मात्र ही था।

  कोरोना काल में ही सरकार ने टिकटों के निरस्तीकरण(रद्द करने) की दरें भी काफी बढ़ा दीं थी। अब स्थिति यह है कि स्लीपर क्लास के टिकट को कैंसिल करने पर न्यूनतम 65 रुपया कटता है, एसी 3 टीयर का 120 रुपया कटता है और अन्य उच्च श्रेणी का तो 200 रुपया तथा कुछ गाड़ियों में तो लगभग आधा पैसा कट जाता है। जबकि गाड़ियों में इतनी भीड़ है कि दो-दो तीन-तीन माह तक यात्री गाड़ियों में आरक्षण नहीं मिलता और कोई सीट खाली भी नहीं जाती। यानि अगर एक टिकट निरस्त होता है तो दूसरे 10 उसको लेने वाले खड़े रहते हैं। रेलवे के लिए यह निरस्तीकरण मुनाफे का धंधा हो गया है। अगर नीति आयोग या रेलवे इसका आंकड़ा जारी करें कि पूरे देश में टिकटों के निरस्तीकरण से उसे कितनी कमाई हुई है तो यह राशि अरबों रूपयों में पहुंचेगी। ब्रिटिश काल से यात्रियों को ब्रेक-जर्नी की सुविधा दी जाती थी। पहले तो 300 किलोमीटर पर ब्रेक-जर्नी मिलती थी, फिर 500 किलोमीटर पर हुई और अब उसे बंद ही कर दिया गया है। इस सुविधा को बंद करके भी रेलवे अरबों रुपयों का मुनाफा कमा रही है। गरीब-रथ के नाम पर जो मजाक हुआ था, उसे कौन भूल सकता है और कुछ गरीब रथों में तो शायिकायों की संख्या एक बोगी में बढ़ाकर 80 कर दी गई थी। जिसका परिणाम हुआ था कि साइड लोअर, साइड मिडल और साइड अपर शायिका (बर्थ) का यात्री ना बैठ सकता था और ना ही सो सकता था। बेड-रोल के पैसे अलग लिए जाते हैं यानि एक अर्थ में किराया कम नहीं हुआ था बल्कि सीटों की संख्या बढाकर रेलवे की कमाई में वृद्धि की गई थी। अब वर्तमान सरकार ने भी एसी 3 टीयर में एक नई इकोनॉमी क्लास शुरू की है, जिसकी बोगी में सीटों की संख्या 72 से बढ़ाकर 80 से 90 के बीच कर दी है। किराए में कमी मात्र 50 रुपये की है परंतु दो शायिकायों के बीच का अंतर इतना कम कर दिया है कि यात्री पांव फैलाकर भी नहीं बैठ सकता। दरवाजे के पास जो स्थान अटेंडेंट और बैड-रोल आदि रखने के लिए रखा जाता था, उसे खत्म कर दिया है। हालत यह है कि बोगी के प्रवेश द्वार पर बेड-रोल के बड़े-बड़े बंडल पड़े रहते हैं तथा यात्रियों को इससे भारी असुविधा का सामना करना पड़ता है। शताब्दी ट्रेन का किराया तो बढा ही है। परंतु, बोगियों की हालत बदतर हो गई है। 45 वर्ष पूर्व की बोगियां यानि शताब्दी जब बनी थी उन्ही बोगियों में आज भी यात्री यात्रा कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी ने वंदे भारत ट्रेन को अपनी प्रिय गाड़ी घोषित किया है परंतु उसका किराया शताब्दी से भी लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है।

 यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि अब वंदे भारत गाड़ियों में स्लीपर लगाकर स्लीपर वंदे भारत ट्रेनें चलाई जायेंगी। परंतु, इनका किराया कितना होगा यह आने पर ही मालूम होगा। यह बहुत प्रचार किया जाता है कि वंदे भारत हाई स्पीड ट्रेन है जिसकी अधिकतम गति 200 कि.मी.घंटा की है। दरअसल, यह 200 कि.मी.घंटे की गति नहीं है बल्कि गति की अधिकतम क्षमता है। परंतु, वह चलती किस रफ्तार से है यह भी समझना होगा !! वंदे भारत भोपाल से नई दिल्ली आने में 7 घंटे 36 मिनट का समय लेती है और शताब्दी एक्सप्रेस 8 घंटे 25 मिनट तथा राजधानी एक्सप्रेस 8 घंटे 30 मिनट का समय लेती है। वंदे भारत और शताब्दी एक्सप्रेस के समय के बीच 49 मिनट का फर्क है। परंतु, वंदे भारत के स्टॉपेज भोपाल से दिल्ली के बीच मात्र तीन हैं-वीरांगना लक्ष्मीबाई झांसी, ग्वालियर तथा आगरा कैंट। जबकि शताब्दी एक्सप्रेस के स्टॉपेज बढ़ाकर अब नौ कर दिए गए हैं। अगर एक स्टेशन पर ट्रेन 2 मिनट भी रूकती है तो गति को कम करने और फिर से गति को पकड़ने में 5 से 7 मिनट लग ही जाते हैं। कुछ जगह तो 10 मिनट तक भी लग जाते हैं। अगर आप औसत 7 मिनट भी मान लें तो 9 स्टॉपेज के 63 मिनट होते हैं। जबकि वंदे भारत और शताब्दी एक्सप्रेस के बीच पहुंचने का अंतर मात्र 49 मिनट है यानी अगर शताब्दी के भी उतने ही स्टॉपेज हो जितने बंदे भारत के या वंदे भारत के भी उतने ही स्टॉपेज हों तो वंदे भारत, शताब्दी एक्सप्रेस से लगभग 14 मिनट ज्यादा समय लेगी। यह भारत सरकार के हाई स्पीड ट्रेनों की गति की असलियत है। वंदे भारत अगर 200 किलोमीटर की रफ्तार से लगातार चलती है तो उसे दिल्ली पहुंचने में मुश्किल से 3.30 घंटे का समय लेना चाहिए। परंतु, वंदे भारत 705 किलोमीटर का सफर तय करने में 7 घंटे 36 मिनट लेती है यानि लगभग 90 किलोमीटर प्रति घंटा और शताब्दी एक्सप्रेस लगभग 85 किलोमीटर प्रति घंटा। लगभग, ऐसी ही रफ्तार से राजधानी एक्सप्रेस भी चलती है। अब प्रधानमंत्री जी की ड्रीम हाई स्पीड ट्रेन और कांग्रेस के जमाने की शताब्दी एक्सप्रेस में वास्तव में कोई अंतर नहीं है। बल्कि, कई बार तो ऐसा महसूस होता है कि भारत सरकार के इशारे पर शताब्दी एक्सप्रेस को रेलवे के तंत्र में उपेक्षित किया जाता है ताकि वंदे भारत को महत्वपूर्ण बनाया जा सके।

  ऐसे भी समाचार आए हैं कि भारत अब स्वदेशी बुलेट ट्रेन जिसकी टॉप स्पीड 280 किलोमीटर प्रति घंटा होगी चलाने की तैयारी में है। इस योजना पर भारत सरकार 867 करोड़ रूपया 16 कोच बनाने पर खर्च कर रही है। यानि एक कोच की कीमत लगभग 55 करोड रुपए होगी। जबकि, अभी जो कोच तैयार हो रहे हैं उनमें पैसेंजर गाड़ियों के डिब्बे तो 10 से 15 करोड़ में बन जाते हैं। शताब्दी और वंदे भारत एक्सप्रेस के कोच भी 20 से 30 करोड़ में बन जाते हैं। इस सब चर्चा का निष्कर्ष यही है कि, सरकार कुछ नया नहीं कर पा रही है। व्यवहार में सरकार यात्रियों के लिए यात्रा की दूरी तय करने के समय में कमी नहीं कर पा रही है। सरकार बस किराया बढ़ाती है और प्रचार करती है। शेखचिल्ली के समान सरकार प्रचार करती है और पैसा कमाती है। इन नयी कल्पित योजनाओं से जिनमें सब अर्बन ट्रेनों को राज्यों को सौंपने का निर्णय किया जा रहा है। यह सही अर्थों में निजीकरण की ओर ले जाने वाला एक चतुर रास्ता है। सरकार इन सब अर्बन ट्रेनों का परिचालन राज्य सरकारों को देगी। राज्य सरकारें इनका परिचालन ठेकेदारों को देंगी और तब भारत सरकार कहेगी कि हमने कोई निजीकरण नहीं किया है। यह तो राज्य सरकारों ने किया है। केंद्र सरकार निजीकरण के आरोपों से भी बच जाएगी और निजीकरण का वांछित लक्ष्य भी हासिल कर लेगी। यह मोदी जी की शैली है की सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। बड़ी संख्या में रेलवे स्टेशन, निर्माण के नाम पर निजी खिलाड़ियों (कॉरपोरेट घरानों) को सौंपे जा चुके हैं और अब वहां स्थिति यह है कि वेटिंग रूम में रुकने का भी शुल्क यात्रियों से लिया जा रहा है। रिटायरिंग रूम की दरें 3 घंटे और 6 घंटे के आधार पर तय की गई हैं। रेल मंत्री जी से पूछना चाहिए कि कौन सा व्यक्ति है जो स्टेशन के प्लेटफार्म पर पड़ा रहना चाहता है। प्लेटफार्म पर तो वे लाचार लोग ही रहते हैं, वे ही प्रतीक्षालय में रूकते हैं, ठहरते हैं, जो विलंबित रेल गाड़ियों का इंतजार कर रहे होते हैं।  इन विलंबित रेलगाड़ियों के विलंब के लिए रेलवे जिम्मेदार है ना कि इंतजार कर रहे-यात्री। प्रधानमंत्री जी की पसंद के नाम पर यात्रियों को और उनकी गाड़ियों को अनावश्यक ढंग से लेट किया जाता है। अभी एक दिन मैं स्वयं रेल से भोपाल जा रहा था। गाड़ी (ट्रेन) बिल्कुल निर्धारित समय पर चल रही थी परंतु उसे भोपाल रेलवे स्टेशन से आधा फर्लांग पहले यानी निशातपुरा और भोपाल के बीच खड़ा कर दिया गया। वहां यह ट्रेन लगभग 35 से 40 मिनट तक खड़ी रही। उसके बाद वहां से वंदे भारत गुजरी जो भोपाल के ही दूसरे स्टेशन रानी कमलापति तक जाती है। मुश्किल से तीन-चार मिनट में मेरी ट्रेन भोपाल पहुंच जाती और 5-7 मिनट में वह आगे चली जाती। परंतु, प्रधानमंत्री जी के स्वप्न की गाड़ी वंदे भारत को निकालने के लिए दूसरी समय से चल रही गाड़ी को करीब 40 मिनट खड़ा करके रखा गया। कंट्रोल रूम जो गाड़ियों के निकलने की अनुमति देता है, उसके अधिकारियों को पता है कि प्रधानमंत्री जी की पसंदीदा गाड़ी वंदे भारत है और इसीलिए दूसरी गाड़ियां कितनी ही लेट क्यों ना हो जाएं, वंदे भारत को समय पर पहुंचना चाहिए। उच्च अधिकारियों की यह चाटुकारिता निंदनीय है। जैसे पहले राजा-महाराजाओं की सवारी को सारी जनता को रोक कर पहले निकला जाता था। आजकल नये राजा-महाराजाओं, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की गाड़ियों को निकालने के लिए सारी सड़कें बंद कर दी जाती हैं। और लगभग ऐसा ही आजकल प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की सरकार में, भारतीय रेलवे में भी, हो रहा है।

 भले ही भारत सरकार ने घोषणा न की हो परंतु सरकार का हर कदम रेलवे के निजीकरण की ओर ले जा रहा है। देश की जनता को और रेल मजदूरों के संगठनों के नेताओं को इन संभावित खतरों को समझना चाहिए।

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक और स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं।श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के भी संस्थापक अध्यक्ष हैं।