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‘कीट-राजनीति’ के वर्तमान दौर में भी ‘गांधी-विचार’ हारेंगे नहीं..! – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

(गांधी जयंती पर विशेष)

02 अक्टूबर, 2018 को जब पूरा देश महात्मा गांधी की 150वीं जंयती के सालाना जलसे का शंखनाद करेगा, तब क्या हम ईमानदारी से इस बात की मीमांसा करेंगे कि गांधी के प्रति यह देश कितना ईमानदार है? त्रासदी यह है कि गांधी को लेकर भारत के नेता सबसे ज्यादा झूठ बोलते हैं, झूठी कसमें खाते हैं, दुनिया को बरगलाते हैं। देश में वैचारिक-धोखाधड़ी का सबसे बड़ा खेल गांधी के नाम पर होता है। कांग्रेस हो या भाजपा अथवा विपक्षी नेता, इस खेल में समान रूप से भागीदार हैं। पता नहीं, गांधी की 150वीं जयंती देश की वैचारिक-बिरादरी को उद्वेलित करेगी या नहीं, लेकिन यह तय है कि समूचे भारत की राजनीतिक-बिरादरी इस मौके पर गांधी नाम के नगाड़े पीट-पीट कर जमीन-आसमान एक कर देगी।

देश दुनिया में महान व्यक्तियों की श्रृंखला में गांधी ही एक मात्र व्यक्ति हैं, जो कभी हारे नहीं। न खुद से, न समाज से, न जिंदगी से, न मौत से…। वो उस अमूर्त दुनिया के पर्वतारोही थे, जिसके आकाश की बुनियाद जमीन पर सांसें लेने वाली मनुष्यता से जुड़ी थीं। वो देश के मूर्त राष्ट्रीय जीवन का वह अमूर्त विचार थे, जिसकी संरचनाओं में देश का लहू छलछलाता था। उनके कुल जमा 79 साल के जीवन-काल में उनका नमक, उनका सत्य, उनकी अहिंसा, उनका शाकाहार, उनका साबरमती आश्रम, उनकी धोती, उनकी घड़ी, उनका आहार, उनका निराहार, उनके उपवास, उनका आमरण अनशन, उनका असहयोग आंदोलन, उनका अस्पृश्यता-आंदोलन, उनका स्वराज, उनकी राष्ट्रीय कांग्रेस, उनका हरिजन, उनका भारत-भ्रमण, उनका अफ्रीकी-सत्याग्रह जैसी अनेक छोटी-बड़ी घटनाओं का एक सुनिश्‍चित वैचारिक कैनवास था, जिसको वो अपने तरीके से संयोजित करते थे, उसकी इबारत लिखते थे। महात्मा गांधी की घटना-प्रधान जिंदगी का दिलचस्प पहलू यह है कि उनकी जिंदगी के हर कदम पर एक नवाचार, एक विचार पत्थर की लकीर की तरह दर्ज होता था। गांधी से जुड़ी उनके राजनीतिक, सामाजिक और निजी जीवन की वो सारी घटनाएं, जिन्होंने देश के जनमानस को प्रभावित किया, आंदोलित किया, उद्वेलित किया, एक विचार का प्रतिबिंब होती थीं अथवा प्रतिनिधित्व करती थीं।

मौजूदा राजनीति का उथलापन यह है कि मौजूदा सरकार उन्हें एक इवेंट की तरह लोगों के सामने परोस रही है। नतीजतन् यह सवाल लोगों के जहन में कुलबुलाने लगा है कि क्या देश में गांधी की राजनीति हार रही है?  उत्तर आसान नहीं है, क्योंकि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में गांधी विचार से राजनीतिक-लाभांश कमाने की ये चौतरफा कोशिशें गांधी के राजनीतिक फलसफे की उन धारणाओं को हाशिए पर ढकेल रही हैं, जिनको लेकर वो जीवन पर्यंत लड़ते रहे। गांधी के राजनीतिक विचारशीलता में सोद्देश्य कूट तत्वों का समावेश होता था, जिसके निश्‍चित फलितार्थ सामने आते थे। लेकिन दुर्भाग्य से गांधी की सोद्देश्य ’कूट-राजनीति’ इन दिनों ’कीट-राजनीति’ का पर्याय बनती जा रही है। गांधी के देश में सांप्रदायिकता, सामाजिक विषमता, दलित उत्पीड़न, मॉब लिंचिंग की घटनाएं मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व के माथे पर काला टीका लगा रही हैं।

गांधी कभी नहीं हारे, क्योंकि अपने विचार को लेकर उन्हें कोई भ्रम नहीं था। वो हमेशा समाज के लिए सच की तलाश में जुटे रहते थे। क्योंकि उन्हें सच की तलाश थी, इसलिए वो निरन्तर संवाद करते थे। उनके संवाद उनके सोच में संशोधन भी करते थे। इसलिए शायद गांधी-विचार में निरन्तरता के साथ-साथ नवीनता का प्रवाह भी होता रहता था। क्योंकि उनका सोच समय के सापेक्षता-  सिद्धांत से प्रतिपादित होता था, इसलिए वो अपने किसी विचार को किसी पर थोपते नहीं थे। भले ही उनके स्वयंभू वैचारिक-शत्रुओं की संख्या चाहे जितनी हो, वो किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते थे। राजनीति में सत्य और अहिंसा का प्रतिस्थापन इस बात का प्रतीक है कि वो विचार और व्यवहार में किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ थे। वो भारत की आइडियालॉजी के प्रवर्तक थे। वो किसी राजनीतिक-संगठन की विचारधारा के प्रवर्तक या प्रतीक नहीं थे। यही कारण था कि उनके रहते हुए गांधी की राजनीति के अलावा कोई दूसरी राजनीति होना संभव नहीं थी। उनको गोली मारने का सबब भी शायद यही था कि उनके विरोधी अपनी राजनीति की राहों को आगे बढ़ाना चाहते थे।

गांधी या गांधी-विचार को खत्म करने की कोशिश कई बार हो चुकी हैं। उनके जिंदा रहते वक्त भी उन्हें राहों से हटाने के कई प्रयास हुए थे। उनके जाने के बाद भी प्रकारान्तर से उनके विचार को दफनाने की कोशिशों का सिलसिला जारी है। नाथूराम गोडसे के सुनियोजित महिमा-मंडन उन कोशिशों का एक नमूना है। राजनीतिक रूप से गांधी को भूलने-बिसरने  कोशिशों के बावजूद गांधी का राजनीतिक डीएनए अभी पस्त नहीं हुआ है। भले ही सोद्देश्य कूट-राजनीति के सितारे गर्दिश में हों, कीट-राजनीति का बोलबाला हो, लेकिन गांधी न जीते जी कभी हारे थे, न उनके विचार हारेंगे…।कभी गांधीवादी समाजवाद के रूप में, तो कभी अंत्योदय के पैहरन में, कभी सर्वोदय के परिवेश में, कभी समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के कल्याण की खातिर सभी राजनीतिक दल गांधी विचार का आचमन करते रहेंगे।गांधी कभी हारेंगे नहीं…।

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 02 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।