
मप्र सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के शंखनाद के पहले ढाई महिनों के राजनीतिक घटनाक्रमों की समीक्षा में भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी के इस कथन की पुष्टि होने लगी है कि आपातकाल को पोषित करने वाली प्रवृत्तियां खत्म नहीं हुई हैं, बल्कि ज्यादा शिदद्त के साथ सक्रिय हैं। लोकतंत्र के चेहरे पर गहराती मलिनता परिचायक है कि देश की लोकतांत्रिक रगों में तानाशाही के जीवाणु अपना असर दिखाने लगे हैं। आपातकाल की चालीसवीं सालगिरह पर जब आडवाणी ने इस ओर उंगली उठाई थी, तब उन कारकों का जिक्र नहीं किया था जो आपातकाल जैसी परिस्थितियों का निर्माण करते है।
लोकतंत्र में सत्ता की लोलुपता तानाशाह प्रवृतियों का सबसे बड़ा कारक होती है। वो शासक, जो खुद को कमजोर महसूस करते हैं या जानते हैं कि मतदान के जरिए सत्ता में उनका वापसी संभव नहीं है, लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित होते हैं। 1975 में आपातकाल का सबब यही था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ना चाहती थीं। कुर्सी की यही चाहत आपातकाल के रूप में सामने आई थी। सवाल यह है कि मौजूदा समय में यशवंत सिन्हा, अरूण शौरी या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेता तक यह क्यों कहने लगे हैं कि देश अघोषित आपातकाल के शिकंजे में फंस चुका है? (सिटीजंस फॉर डेमोक्रेसी, पणजी, 9 मई, 2018) अथवा सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायमूर्ति सरेआम प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर यह क्यों कह रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायिक संस्था में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने इंदिरा गांधी जैसा कुर्सी का संकट मौजूद नहीं हैं। संकट की यह थ्योरी इसलिए भी खारिज हो जाती है कि बीते 28 वर्षों में अपने बलबूते पर बहुमत हासिल करने वाले वो पहले ताकतवर राजनेता हैं। केन्द्र में शासन-प्रशासन के गलियारों में उनकी मर्जी के बगैर हवाओं के लिए भी सांस लेना मुश्किल है। इक्कीस राज्यों में उनकी सल्तनत है। कोई संकट नहीं होने के बावजूद किन आशंकाओं के वशीभूत सत्ता और सरकार निरंकुश एकाधिकार की ओर मुखातिब हैं? लोगों को सत्ता के गलियारों में अघोषित आपातकाल के साए मंडराते महसूस क्यों हो रहे हैं?
इंदिराजी ने आपातकाल का राजनीतिक तानाबाना एकता, अखंडता, प्रधानमंत्री की संस्था एवं निर्वाचित सरकारों की मान-मर्यादाओं के हनन के काले तारों से बुना था। मोदी पर अघोषित आपातकाल के कथित आरोपों की समीक्षा से पहले यशवंत सिन्हा के इस ’ऑब्जर्वेशन’ पर गौर करना जरूरी है कि ’इंदिरा गांधी द्वारा आरोपित आपातकाल राजनीतिक प्रवृत्ति का था, लेकिन वर्तमान अघोषित आपातकाल में तो राजनीति में जहर घोला जा रहा है, जो देश के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक है।’ दिलचस्प यह है कि भारत में राजनेताओं की तानाशाह या निरंकुश प्रवृत्तियों के पोषण के लिए राष्ट्रवाद के कई ’कलरफुल’ ’केलिडोस्कोप’ उपलब्ध हैं, जहां लोकतंत्र की काल्पनिक संरचनांओं के इतने रंगीन दृश्य उभरते हैं कि सही-गलत में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। लोग मंत्रमुग्ध होकर प्रतिबिम्बों के स्वर्ण मृगों के पीछे दौड़ते रहते हैं। (केलिडोस्कोप एक ऑप्टिकल इंस्ट्रूमेंट है, जिसमें भिन्न-कोणों पर लगे मिरर पर रिफलेक्शन द्वारा निर्मित रंगीन पैटर्न दिखते हैं)। राष्ट्रवाद का यही ’केलिडोस्कोप’ लोगों को भ्रमित और भयभीत कर रहा है, क्योंकि इसमें उभरते पैटर्न लोकतंत्र के मान्य रंगों को खारिज कर रहे हैं। समझना मुश्किल है कि मौजूदा सरकार द्वारा परिभाषित और प्रेरित राष्ट्रवाद की कसौटियां किसी नागरिक के मामूली से काम को कब, किस वक्त खारिज कर दें? एक मामूली सवाल आपके देशद्रोही होने का सबब हो सकता है।
राष्ट्रवाद के ’केलिडोस्कोप’ में राजनीति का नया पैटर्न उभर रहा है कि अब सेना भी राजनीतिक सवालों के उत्तर देने लगी है। रफाल मामले में एयरचीफ मार्शल वीरेन्द्रसिंह धनोआ की पत्रकार-वार्ता नए राजनीतिक-पैटर्न का ताजा सबूत है। थलसेना अध्यक्ष बिपिन रावत की जुबां की तासीर भी अब राजनीतिक होने लगी है। सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पिघलने लगी है। लोकसभा की राजनीतिक रागिनी के सुर भी कुंद होने लगे हैं। कथनी और करनी में फर्क यह है कि पंद्रह महिलाओं के आरोपों के बाद भी विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर की कुर्सी बरकरार है। उस लोकतंत्र को क्या कहेंगे, जहां शासक आरोपों से परे हों, जवाब के लिए बाध्य नहीं हों? शायद लालकृष्ण आडवाणी आपातकाल के संदर्भ में इसी निरंकुशता की ओर इशारा कर रहे थे।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 16 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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