
प्रियंका गांधी वाड्रा वाराणसी से चुनाव लड़ेंगी ? ये सवाल मीडिया की उपज नही है। समर्थकों का भी नही। 18 से 20 मार्च बीच प्रियंका ने प्रयागराज से वाराणसी की जल मार्ग से यात्रा की थी। समर्थकों ने उनसे चुनाव लड़ने की मांग की थी। प्रियंका ने जबाब में सवाल किया था , ” वाराणसी से लड़ूं ! कैसा रहेगा?” अलग-अलग मौकों पर उन्होंने इसे दोहराया है। ” मैं तो तैयार हूं। अध्यक्ष राहुल गांधी को अनुमति देनी है ।” उधर राहुल गांधी का शुरुआती जबाब , ” न तो मैं इंकार कर रहा हूँ और न ही पुष्टि।” फिर इस मुद्दे पर राहुल ने जोड़ा, ” पार्टी ने फैसला ले लिया है।” क्या है फैसला ? जबाब था , ” अभी सस्पेंस रहने दीजिए।”
इस साल 22 जनवरी को प्रियंका के सक्रिय राजनीति में प्रवेश की औपचारिक घोषणा हुई थी। वैसे अमेठी, रायबरेली के जरिये 1999 से वह सक्रिय थीं। बीस वर्ष के बीच उनके अमेठी, रायबरेली से आगे निकलने को लेकर सवाल होते रहे। सोनिया गांधी या राहुल गांधी। दोनों का एक ही जबाब होता था , ” ये निर्णय प्रियंका को करना है।” लम्बे समय से गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी का पर्याय है। फिर जब मसला परिवार के किसी सदस्य से जुड़ा हो तो बाकी पार्टी को सिर्फ सिर झुकाना है। प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी से चुनाव लड़ने की प्रियंका की पेशकश अचानक मुमकिन नही है। उन्होंने परिवार को शामिल किए बिना अपनी इस इच्छा को जनता से साझा कर लिया हो, इसकी उम्मीद नही की जा सकती । राहुल के अमेठी के साथ वायनाड से भी चुनाव लड़ने पर काफी कटाक्ष हुए हैं। मोदी पिछली बार वाराणसी साथ बड़ोदरा से भी लड़े थे। प्रियंका की वाराणसी से लड़ने की पेशकश मोदी को फ़िर दो क्षेत्रों से उतरने के लिए मजबूर करने का भी प्रयास हो सकती है। जबाब में भाजपा ने बेफ़िक्री दिखाई है। पार्टी और मोदी वाराणसी को लेकर आश्वस्त हैं। उसके नेताओं ने कहा है कि कोई कहीं से चुनाव लड़ सकता है। प्रियंका का वाराणसी में स्वागत है।
2014 के बाद 2019 का भी चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे के इर्द-गिर्द है। उनका कद पार्टी से बहुत बड़ा हो चुका है। पूरे देश में समर्थक उन्हें जिताने तो विपक्षी उखाड़ फेंकने के लिए जूझ रहे हैं। ऐसे माहौल में मोदी के खुद के निर्वाचन क्षेत्र का माहौल फीका है। कोई चर्चित चेहरा अब तक उनके सामने नही आया है। अखिलेश यादव ने वहां चरखा दांव चलने की बात की थी। काफी तलाश बाद वह कांग्रेस से शालिनी यादव को लाये हैं। उनका राजनीतिक परिचय ? वह कांग्रेस टिकट पर मेयर का चुनाव हार चुकी हैं। राजनीतिक परिवार से हैं। 1984 में वहां से जीते राज्य सभा के उपसभापति रह चुके श्याम लाल यादव की पुत्रवधू हैं।
मोदी से जुड़ाव बाद वाराणसी के नतीजे विपक्षियों को बिचलित करते हैं। 2014 में मोदी को 5,81,022 वोट मिले थे। अरविंद केजरीवाल के वोट 2,09,238 थे। कांग्रेस के 75,614 , बसपा के 60,579 और सपा के 45,291 वोट इसमें जोड़ दिए जाएं तो मोदी के खिलाफ पड़े वोटों का कुल जोड़ 3,90,722 पर पहुंचता है। 2017 के विधानसभा चुनाव में उनके निर्वाचन क्षेत्र की पांचों सीटों वाराणसी उत्तर, दक्षिण, छावनी, रोहनिया और सेवापुरी में भाजपा जीती। जिले की बाकी तीन सीटों शिवपुर, अजगरा और पिंडरा भी भाजपा की झोली में थीं।
गांधी परिवार प्रियंका को अब तक ट्रम्प कार्ड के रुप में संजोए हुए था। 2019 उनकी पहली परीक्षा है। औपचारिक रुप से पूर्वांचल की उनकी जिम्मेदारी है। प्रचार के लिए उनकी हर जगह मांग है। वह जा भी रही हैं। प्रियंका कांग्रेस के सबसे खराब दौर सक्रिय हुई हैं। 2014 में देश में 44 सीटों पर तो उत्तर प्रदेश में पार्टी अमेठी-रायबरेली तक सिमट गई थी। 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पार्टी की सीटें सिर्फ सात थीं। लोकसभा चुनाव के पहले तीन राज्यों की जीत ने कांग्रेस को उम्मीद बंधाई। केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर जाता है। वहां पस्त हाल पड़ी पार्टी को लिए प्रियंका सबसे बड़ी उम्मीद हैं।
लड़ाई का एक और पहलू है। यह चुनाव के काफी पहले से शुरु है। मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौर से। जब सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर बताया था। मोदी और गांधी परिवार आमने-सामने हैं। राजनीतिक लड़ाई को निजी टकराव के छौंक ने तीखा कर दिया है। सवाल पंडित नेहरू के समय से शुरु हो रहे हैं। थमते हैं रॉबर्ट बाड्रा पर। दूसरी तरफ रॉफेल है। अनिल अंबानी हैं । चौकीदार ””” चौकीदार ””” चौकीदार ”””””है। नारा इतना पसंद कि उसमें देश की सबसे बड़ी अदालत को जोड़ दिया गया और अवमानना की नोटिस जारी हो गई । भाषा असयंमित -अमर्यादित होती हुई। तल्ख़ी-कडुवाहट बढ़ती हुई। इस सबके बीच प्रियंका के वाराणसी के रण में उतरने की चर्चा। लड़ेंगी कि नही ये नामांकन की आखिरी तारीख 29 अप्रेल तक साफ़ हो जाएगा। पर वहां से लड़ने को अगर उन्होंने सोचा तो इसमें राजनीतिक रणनीतिक सोच के साथ निजी टकराव का कोण भी शामिल है। राजनीतिक लड़ाई में अहम का संघर्ष नफ़े-नुक़सान की फिक्र को किनारे कर देता है।
प्रियंका लड़ती हैं तो उन्हें गैर भाजपाई ताकतें हौसला देंगी। वहां का चुनाव दिलचस्प होगा। जो लोग उनमें इंदिरा जी की छवि देखते हैं , उनके सुर तेज होंगे। अन्य सीटों पर पार्टी प्रत्याशी-समर्थक उत्साहित होंगे। वोटों की गिनती बाद हासिल का हिसाब होगा । लेकिन अगर पार्टी के फ़ैसले के नाम पर पीछे हटती हैं तो फ़ौरन नुकसान। भाजपा के हमले तेज होंगे। संदेश खिलाफ़ जाएगा। पार्टी कैडर निराश होगा। हिम्मत-संजीदगी पर सवाल होंगे। आखिर पहल तो उन्होंने ही की है !
सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।
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