
आज देश का सबसे बड़ा संकट यह नहीं कि भ्रष्टाचार फैल रहा है, बल्कि यह है कि हम उसे “सामान्य” मान चुके हैं। जिस व्यवस्था को ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा पर टिका होना चाहिए था, वह अब सिफ़ारिश, धनबल और सुविधा की जुगाड़ पर निर्भर हो गई है। दफ्तरों में छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े सरकारी निर्णयों तक, रिश्वत और पहुँच के बिना कुछ भी आगे नहीं बढ़ता।
हमारी सोच इतनी विकृत हो चुकी है कि जो व्यक्ति नियम तोड़कर आगे निकल जाता है, उसे समाज “होशियार” और “चतुर” कहकर सम्मान देने लगता है। जिसने बेईमानी से धन कमा लिया, वह समाज का “सफल व्यक्ति” कहलाता है, जबकि ईमानदार और नियमपालक व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है। यही मानसिकता हमारे लोकतंत्र की जड़ों में ज़हर घोल रही है।
आज संसद और विधानसभाओं में ऐसे जनप्रतिनिधियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जिन पर आपराधिक या भ्रष्टाचार के आरोप हैं जो लगभग 35 प्रतिशत से अधिक।
अफ़सरशाही में तो ईमानदारी अब अपवाद बन गई है; कई विभागों में तो ईमानदार अधिकारी “असमर्थ” या “अनफ़िट” माने जाने लगे हैं। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि कानून बनाने वाले भी निजी कंपनियों और लॉबियों के प्रभाव में नीतियाँ गढ़ने लगे हैं। इनमें भ्रष्टाचार का स्तर 90% है।
जनता सोचती है कि सत्ता उसके मत से बनती है, पर असली नियंत्रण उन नौकरशाहों के हाथ में है जो अब जनता के सेवक नहीं, उसके मालिक बन बैठे हैं। यह स्थिति केवल व्यवस्था की नहीं, हमारी सामूहिक नैतिक चेतना की भी पराजय है।
अब प्रश्न “दोषी कौन” का नहीं, बल्कि “उपाय क्या” का है। जब सरकारें स्वयं भ्रष्टाचार के जाल में फँसी हों, और जनता भय या उदासीनता में जीने की आदी हो जाए, तब बदलाव की शुरुआत जनता को ही करनी पड़ती है। अगर हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए गलत के साथ समझौता करते रहेंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें क्षमा नहीं करेंगी।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि भ्रष्टाचार केवल सत्ता या पद की समस्या नहीं है यह चरित्र की समस्या है। परिवर्तन की शुरुआत सड़कों पर नहीं, हमारे मन में होनी चाहिए। हम रिश्वत देना बंद करें, गलत को गलत कहने का साहस रखें, और ईमानदारी को पुनः सम्मान देने की संस्कृति विकसित करें।
स्वतंत्रता संग्राम के नायकों ने इस देश को बलिदान देकर आज़ादी दिलाई थी; यदि हमने अपने विवेक और मूल्यों को भ्रष्टाचार के हवाले कर दिया, तो वह बलिदान व्यर्थ हो जाएगा।समय आ गया है कि हर नागरिक स्वयं से प्रश्न करे “क्या मैं ईमानदार भारत के निर्माण में अपनी भूमिका निभा रहा हूँ?”
जब यह प्रश्न हर मन में गूंजेगा, तभी परिवर्तन की शुरुआत होगी और तब भ्रष्टाचार नहीं, ईमानदारी शिष्टाचार बनेगी।
सम्प्रति- लेखक श्री दीपक सिंह उत्तरप्रदेश विधान मंडल के उच्च सदन विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं।श्री सिंह अपने कार्यकाल के दौरान सदन के भीतर विधान परिषद के सबसे प्रखर सदस्यों में शुमार किए जाते थे।
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