
आजादी के दस साल बाद 1957 में शहर बिजली से परिचित हुआ। फिर खेलावन- जुम्मन की कांधे की छोटी सी सीढ़ी उतरी। केरोसिन का डिब्बा-कुप्पी किनारे हुए। लैम्प पोस्ट जिनकी चिमनी शाम होते पोछी-चमकाई जाती, बेनूर हुए। स्ट्रीट लाइट के खम्भे खड़े होने और नीम से ढंके शहर के दरख़्त जमीन पर आने शुरू हुए। 1960 में घरों में नल से पानी पहुंचना शुरू हुआ। सड़क के मटमैले कंकड़ों की धूल शांत करने के लिए पानी की टंकी खींचती भैंसा गाड़ी निकलना बन्द हो गईं। गली-मोहल्ले चौराहों के किनारे पानी की टंकियां बनी। जल्दी ही टोटियां उखड़ी- टूटीं। ऐसे ज्यादातर ठिकाने गुमटियों- खोखों से ढँक गए। रेलवे स्टेशन रोड और बाधमण्डी में इक्कों और शहर में घूमते जानवरों के पानी पीने के लिए बनी चरही भी लापता हो गई।
1857 के पहले तकरीबन दस हजार आबादी गोमती के उत्तर बसी थी। यही पुराना सुल्तानपुर शहर था। आजादी की पहली लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के बाद अंग्रेजी फौजों के कोप का शिकार हुआ। बस्तियां आग और तोप के गोलों के हवाले कर दी गईं। इलाका चिराग़ – ए – गुल एलान हुआ। गोमती के दायें बाजू तब अंग्रेजी पलटन का ठिकाना था। पल्टन बाजार, गोरा बैरेक, मेजरगंज, पार्किन्सगंज मोहल्ले तभी के नाम समेटें हैं। 1903 तक गोमती पर पक्का पुल नहीं था। ऊंचाई पर बसाया गया मौजूदा शहर बाढ़ के संकट से मुक्त था। दो मुख्य चौड़ी सड़कें बनीं। इनके किनारे नीम के पेड़ों की कतार। अजूबा लगेगा। लेकिन पूरा चौक भी नीम की ठंडी छाँव में था। गलियां भी ऐसी जिनमे ट्रक गुजर सके। गभड़िया और गन्दा नाले पूरे शहर की गंदगी बहा ले जाते। जहाँ आज आफिसर्स कालोनी के बंगले आबाद हैं, वहां दूर तक पसरा कम्पनी बाग़ था।
कैथोलिक चर्च के विशाल परिसर में स्टेला मैरिज कान्वेन्ट ने तब हिस्सा नहीं बांटा था। प्रोटेस्टेंट चर्च परिसर में दूकानों-मकानों का दूर तक पता नहीं था। जहां आज फायर स्टेशन है, वहां पसरी हरियाली बीच एक सुंदर पार्क हुआ करता था। बगल स्थित पेड़ों और फूलों की क्यारियों से घिरे सोल्जर बोर्ड के दफ्तर को अपनी आमदनी के लिए तब दक्षिणी – पश्चिमी दिशा में दुकानें बनवा कर सिमट जाने की जरूरत नहीं थी। सुंदर लाल पार्क का खूब बड़ा मैदान तब नुमाइश, सर्कस, सभाओं और नियमित क्रिकेट के लिए सुरक्षित था। बस स्टेशन से आगे फिर गोलाघाट तक के दूर पीछे जंगल था। जी.आई. सी की फील्ड पर तब इमारते नहीं उगीं थीं। गया प्रसाद, जगराम दास, राम जानकी मन्दिर, सूरजदीन मन्दिर जैसी धर्मशालाओं पर तब स्थायी कब्जे नहीं हुए थे। लखनऊ नाका ओवर ब्रिज के पार से जेल रोड तक जहां अब मैरिज लॉन और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स का सिलसिला है , वहां कभी लखपेड़वा बाग हुआ करता था। शहर में सात तालाब भी हुआ करते थे।
जून 1869 में पहली बार सुल्तानपुर में म्युनिसिपल कमेटी गठित हुई। म्युनिस्पल बोर्ड (अब नगर पालिका परिषद) सितम्बर 1884 में अस्तित्व में आया। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में 13 सदस्यीय बोर्ड में दस का निर्वाचन और दो के मनोनयन की व्यवस्था थी। कलेक्टर/ डिप्टी कमिश्नर इसके पदेन अध्यक्ष होते थे। 1916 के यूपी म्युनिसिपैलिटी एक्ट के अधीन यह सत्रह सदस्यीय हुआ। इन्हीं सदस्यों के बीच से अध्यक्ष चुने जाने की व्यवस्था हुई। 1988 से अध्यक्ष के लिए प्रत्यक्ष मतदान की व्यवस्था हुई। प्रत्यक्ष निर्वाचन में अध्यक्ष पद पर पहली विजयश्री श्री राम निवास अग्रवाल के नाम दर्ज है।
ये सच है कि शहर में सातवें दशक तक डामर की सड़कें इक्का – दुक्का थीं। मंगल-शनीचर हाट लगता। सवारी कम थीं। गिनी-चुनी रेल गाड़ियां स्टेशन से गुजरती-ठहरतीं। बसें-लारियां भी अड्डों पर चुनिंदा थीं। पर बस स्टेशन और वर्कशाप के बड़े- बड़े शेड पर देर शाम आसरा लेते कबूतरों-पक्षियों के झुण्ड सुरक्षित थे। कारें उत्सुकता जगातीं। अपने घर के पास के चौराहों पर खड़े बच्चों के पास उनकी गिनती करना एक बड़ा काम हुआ करता था। शाम कुछ जल्दी उतरती। लैम्प-लालटेन की मन्द रोशनी में शहर जल्द ऊंघता। रातें कुछ लंबी होतीं लेकिन सुबह मुर्गे की बांग जरूर सुनाई देती। और पक्षियों की चहचाहट भी। आँगन में गौरैय्या भी फुदकती और हरसिंगार के फूलों की चादर भी बिछ जाती। कलेक्ट्रेट में चौकीदार का खतरा था। पर वहां अमियाँ थीं। इमलियाँ भी।
तरक्की जरूरी थी। हुई । पर अपने साथ अराजकता भी लाई। बस्तियों ने साँसें समेट लीं।बाजार घरों के भीतर तक घुस आए। वक्त के साथ चलना था। खूब तेज चले। आबादी बढ़ी। पुरानी बस्तियां घनी होती गईं। रिहाइशी इलाकों में बाजार-स्कूल बन गए। नए मोहल्ले बसे। अनियोजित। अराजक विकास। रोजगार के अवसर विकसित नहीं हुए। उद्योग – धंधों का अकाल। जो महानगरों की ओर पलायन नहीं कर सके , उनकी रोटी का जरिया दुकानदारी ही मुमकिन थी। दुकानें बनें कहां पर ? जहां – कहीं जगह दिखी , वहां दुकानें और कॉम्प्लेक्स बनते गए। लेकिन ऐसी तरक्की अपने साथ समस्याएं और ढेर सारी चुनौतियां भी लाती है। जब सब – कुछ अनियोजित हो तो दिक्कतें और बढ़ती है।
आबादी और वाहनों की बेहिसाब बढ़ोत्तरी के बीच शहर और घना – और सिकुड़ता गया। सुनियोजित तरीके से आवासीय बस्तियों, बाजारों और उनसे जुड़ी आधारभूत सुविधाओं के विकास पर समय रहते ध्यान नहीं दिए जाने की कीमत में फिलहाल शहर कसमसा रहा है। हर ओर भीड़ है। सड़कों पर दुकानें हैं। फुटपाथ लापता हो चुके हैं। बड़े – छोटे वाहनों और ई रिक्शाओं की लंबी कतारें हैं। दूर – दूर तक और देर – देर तक लगने वाले जाम हैं। नई बस्तियों का आलम यह है कि एक चौपहिया विपरीत दिशा से आ रहे दोपहिया की राह रोकने को काफी है।
अब तो गोमती के पुराने पुल के स्थान पर एक और नए पुल के निर्माण की तैयारी है। आठवें दशक में जो पुल बना उसके निर्माण पूर्व का एक प्रसंग याद आ रहा है। तत्कालीन कमिश्नर और डी.आई .जी. की साझा पत्रकार वार्ता थी। दोनों ने कहा था कि हम लोग तो अधिकारी हैं। आज यहां कल कहीं और ? आप सब यहां के वाशिंदे हैं। अपने जनप्रतिनिधियों से कहिए कि पुल को जोड़ने वाली सड़कों पर बढ़ते ट्रैफिक लोड की समस्या का निदान किए बिना नया पुल बहुत दिन तक राहत नहीं दे पाएगा ! प्रस्तावित नये पुल को जोड़ने वाले वही पुराने मार्ग हैं। शहर के इन दोनों मुख्यमार्गों के चौड़ीकरण के बाद भी ट्रैफिक के हालात काफी कठिन हैं। क्या प्रस्तावित पुल निर्माण से समस्या हल हो सकेगी ?
अब उसे याद करना भले अर्थहीन लगे फिर भी गुजरे वक्त का शहर गुदगुदाता है। कभी गोलाघाट से दरियापुर पन्द्रह मिनट में पैदल टहलते थे। पूरे शहर को सायकिल से इतने ही कम वक्त में नाप लेते थे। गोमती के मैले आँचल में बेदम रोशनियों बीच अंतहीन समस्याओं में डूबा शहर बेचैन करता है। वह शहर जो कभी नीम के पेड़ों और साफ़ सुथरे माहौल बीच उस दौर की जानलेवा टी.बी. के मरीजों का निदान स्थल था, तरक्की की भेंड़चाल बीच कराह रहा है । फिर भी लुभाता है। सपनों का शहर है। अपनों का शहर है। कहीं भी रहो। याद आता है। शाम ढलते रुकने नहीं देता! पास बुलाता है।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं,वेबपोर्टल में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।
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