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उत्तरप्रदेशःसमितियों की शक्तियों पर चोट? संसदीय कार्य विभाग के पत्र से मचा सियासी बवाल-अशोक कुमार साहू

                                               

उत्तरप्रदेश में विधान मंडल(विधानसभा एवं विधान परिषद) की समितियों की बैठकों में अपर मुख्य सचिव ,प्रमुख सचिव एवं सचिव के भौतिक रूप से उपस्थित रहने की बजाय वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से जुड़ने एवं बैठक में विभाग की ओर से विशेष सचिव स्तर के अधिकारी के मौजूद रहने के राज्य के संसदीय कार्य विभाग द्वारा पिछले महीने जारी परिपत्र पर विधान मंडल के मौजूदा एवं पूर्व सदस्यों ने राजनीतिक प्रतिबद्ताओं को दरकिनार कर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और इसे विधान मंडल की गरिमा के खिलाफ मानते हुए विधान मंडल के अध्यक्ष एवं सभापति से इसे संज्ञान में लेने हुए समितियों के अधिकार में हस्तक्षेप मानते हुए कार्यवाही का अनुरोध किया है।

    इस विवाद की शुरूआत उत्तरप्रदेश के संसदीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव जे.पी.सिंह के पिछले महीने 17 नवम्बर को जारी पत्र से हुई है।इस पत्र को लेकर राजनीतिक हल्कों में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है।इस पत्र के अनुसार..माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा विधान भवन के निर्धारित कक्षों में आयोजित होने वाली माननीय विधान मंडल की माननीय समितियों की बैठकों में विभाग की ओर से विशेष सचिव स्तर के एक अधिकारी द्वारा माननीय समिति के समक्ष भौतिक रूप से उपस्थित रहकर समन्वय का कार्य सम्पादित करने तथा विभागीय अपर मुख्य सचिव,प्रमुख सचिव, सचिव तथा अन्य अधिकारीगण द्वारा आनलाइन पद्धति से अपर मुख्य सचिव,प्रमुख सचिव ,सचिव के कक्ष से बैठकों में साक्ष्य हेतु माननीय समिति के समक्ष वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थित रहने पर सैद्धान्तिक अनुमोदन प्रदान किया गया है..।विधानमंडल के दोनो सदनों को लिखे इस पत्र में कहा गया हैं कि..उक्त के दृष्टिगत रखते हुए आपसे यह अनुरोध करने की अपेक्षा की गई है कि माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा उपर्युक्तानुसार अनुमोदन का संज्ञान लेते हुए यथोचित आवश्यक कार्यवाही पर कृपापूर्वक विचार करना चाहे..।

    सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लगातार चौथी बार चुनाव जीतने वाले विधान परिषद के वरिष्ठ सदस्य देवेन्द्र प्रताप सिंह ने इस पत्र पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।सदन की नियम प्रक्रिया की अच्छी खासी जानकारी रखने वाले श्री सिंह ने सभापति विधान परिषद को इस बारे में पत्र लिखकर इसे सदन के विशेषाधिकारों एवं सभापति के विशेषाधिकारों की अवमानना बताया है।उन्होने पत्र में कहा कि विधानमंडलों के गठन के बाद से ही यह स्थापित संसदीय परम्परा रही है कि संविधान के तहत विधान मंडल के द्वारा गठित समितियों में विभागाध्यक्ष,प्रमुख सचिव एवं अपर मुख्य सचिव विभिन्न प्रकरणों में साक्ष्य के लिए बुलाए जाते है।

    श्री सिंह ने सभापति को लिखे पत्र में कहा कि नौकरशाही के मन में विधायिका के प्रति अनादर का भाव जोर पकड़ लिया है,विधायी संस्थाओं के प्रति उनके मन में आदर एवं सम्मान का भाव अब नही रहा,इसलिए हाल के वर्षों में विभागाध्यक्ष समितियों की बैठक में आने से बचते रहे है।अब वह समिति की बैठकों में ना आने के लिए समितियों को पंगु बनाने के उद्देश्य से उपरोक्त पत्र संसदीय विभाग से जारी करवाया है।उन्होने सभापति से विधायिका की गरिमा और शक्तियों तथा स्थापित संसदीय परम्पराओं को यथावत बनाए रखने के लिए बिन्दुवार सुझाव देते उस पर विचार का अनुरोध किया है।उन्होने कहा कि उत्तरप्रदेश विधान परिषद की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमावली संविधान के अनुच्छेद 208(1) के अन्तर्गत बनाई गई है तथा एक जुलाई 1956 से लागू है।उक्त कार्य संचालन नियमावली के नियम 75 से नियम दो तक परिषद की समितियों के गठन एवं बैठकों/साक्ष्य के सम्बन्ध में नियमों को प्रावधानित किया गया है।कार्य संचालन नियमावली 1956 के नियम91(1) में प्रावधानित है कि किसी साक्षी को प्रमुख सचिव के हस्ताक्षर किए हुए आज्ञा पत्र द्वारा बुलाया जाता है।साक्षी ऐसे प्रपत्रों को प्रस्तुत करेंगा जिसकी समिति को आवश्यकता होगी। 

       सभापति को लिखे पत्र में श्री सिंह ने आगे कहा कि नियमावली के अन्तर्गत ही सभापति द्वारा सदन की समितियों का गठन प्रत्येक वर्ष किया जाता है।गठन के उपरान्त समिति समक्ष विचाराधीन विषयकों के संदर्भ में आवश्यकतानुसार शासन एवं प्रशासन के उच्चाधिकारियों एवं प्रमुख सचिव को साक्ष्य हेतु आमंत्रित किया जाता है एवं जनहित के प्रकरणों में विचार विमर्श के उपरान्त उनका निराकरण करवाया जाता है।प्रमुख सचिव संसदीय कार्य विभाग द्वारा प्रमुख सचिव विधान परिषद को कार्यपालिका के प्रमुख से अनुमोदन से भेजा गया पत्र आपत्तिजनक निन्दनीय और सभापति के विशेषाधिकार का हनन है।उन्होने लिखा है कि विधान मंडल की समितियां सदन का ही लघु स्वरूप होती है इसलिए समितियों को लघु सदन कहा जाता है। उन्होने लिखा है कि संविधान में शक्तियां का विभाजन का मूल सिद्धान्त लागू होता है,राज्य स्तर पर भी विधायिका और कार्यपालिका अपनी अपनी स्वतंत्र भूमिकाओं में कार्य करते है,इसलिए कार्यपालिका विधायिका को निर्देश देने की शक्ति नही रखती है।प्रमुख सचिव का पत्र समितियों की शक्तियों में हस्तक्षेप करना एवं विशेषाधिकार का हनन तथा सदन समितियों पर नियंत्रण करने का अनाधिकृत प्रयास है।उन्होने सभापति से इस पत्र पर कठोरतापूर्वक निर्णय का अनुरोध किया है।

     विधान परिषद के पूर्व सदस्य दीपक सिंह ने विधानसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर प्रमुख सचिव संसदीय कार्य द्वारा कार्य संचालन नियमावली में संशोधन हेतु भेजे गए पत्र को लेकर विरोध जताते हुए उनसे संविधान के अनुच्छेद 208,194 118 एवं उत्तर प्रदेश की विधायी गरिमा के संरक्षण का अनुरोध किया है।उन्होने लिखा है कि यह केवल एक प्रशासनिक प्रस्ताव नही है बल्कि विधायिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता पर प्रत्यक्ष आघात है।उन्होने लिखा कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार राज्यों की विधानसभाएं अपनी स्वायत्त नियमावली का निर्धारण करती है सरकार द्वारा भेजा गया यह प्रस्ताव इन संवैधानिक प्रावधानों की मूल भावना को कमजोर करता हैं और विधानसभा की स्वायत्तता को कार्यपालिका के अधीन कर देने जैसा है।उन्होने अध्यक्ष का ध्यान आकृष्ट करते हुए लिखा कि उत्तरप्रदेश की विधायी परम्परा विश्व संसदीय इतिहास में सम्मानित स्थान रखती है।केशव सिंह प्रकरण 1964 में उत्तरप्रदेश विधानसभा ने अपने विशेषाधिकारों और विधायी गरिमा की रक्षा के लिए जो निर्णय लिया था उसने यह सिद्द किया कि विधायिका स्वतंत्र एवं सर्वोच्च है।उन्होने लिखा कि यह पत्र मुख्यमंत्री को गुमराह कर तैयार करवाया गया प्रतीत होता है।इसका सार्वजनिक एवं संस्थागत विरोध आवश्यक है।  

     कांग्रेस से जुड़े श्री सिंह ने आगे लिखा है कि यह प्रस्ताव विधायिका को सटीक सूचना और साक्ष्य से वंचित कर देगा और समितियों को लगभग अप्रभावी बना देगा।ऐसे प्रस्ताव से भ्रष्ट अधिकारियों के मनोबल में वृद्दि होगी और सदन की गरिमा को ठेस पहुंचेगी।उन्होने अध्यक्ष से विधायिका की स्वतंत्रता विशेषाधिकार और संवैधानिक मर्यादा की रक्षा हेतु आवश्यक कदम उठाने का अनुरोध करते हुए कहा कि मैं वर्तमान में सदन का सदस्य नही हूं,परन्तु छह वर्षों तक इस पवित्र विधान मंडल में अपनी भूमिका निभाता रहा हूं।

     विधानसभा के पूर्व वरिष्ठ सदस्य अनूप संडा ने भी संसदीय कार्य विभाग के इस पत्र पर कड़ा विरोध व्यक्त करते हुए कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत है और विधायिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता पर आघात है।उन्होने कहा कि विधायिका हमेशा से नौकरशाही के ऊपर लगाम लगाने वाली शक्ति रही है लेकिन पिछले कुछ समय से जिस प्रकार राजनीतिक लोगों की प्रतिष्ठा गिरी है और नौकरशाह लोगों के आदर्श बनने लगे हैं उससे नौकरशाही को अपने अनुकूल नियम कानून बनाने के लिए एक तैयार पृष्ठभूमि मिल रही है। मुझे लगता है उसी के तहत विधानसभाओं की कमेटियों के जिनके द्वारा समय-समय पर कार्यपालिका की मनमानी या निकम्मेपन पर कुछ अंकुश लगता था और इन विधायी कमेटियों के समक्ष कई बार निरंकुश और अहंकारी नौकरशाहों के अहंकार को ठेस भी लगती थी। ऐसे में जब एक ऐसी सरकार सत्ता में है जिसके मन में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए गहरी प्रतिबद्धता नहीं है ठीक उसी वक्त नौकरशाही ने स्वयं को जवाबदेही से मुक्त करने के लिए और अपने लिए सुविधाजनक माहौल बनाने हेतु इस तरह के प्रस्ताव तैयार किए होंगे।

      समाजवादी पार्टी से जुड़े श्री संडा ने कहा कि..अपने अनुभव से मैंने समझा है कि पिछले एक अर्से से सुनियोजित ढंग से समाज में विधायिका के महत्व को कम करने का एक अघोषित अभियान जैसा चला हुआ है जिसके तहत समय-समय पर सांसद और विधानसभा में होने वाली कार्रवाई पर होने वाले खर्च की बात उठाकर सांसद और विधानसभा की बैठकों की उपयोगिता पर चर्चा होती रही है। और राजनीतिक नेताओं को लगातार गैर जिम्मेदार और भ्रष्ट साबित किया जाता रहा है।उन्होने कहा कि विधायी कमेटियों के समक्ष विभागीय प्रमुखों की उपस्थिति जिस प्रकार पहले अनिवार्य थी उन्हीं नियमों को लागू रहना चाहिए,अन्यथा अगले कुछ समय में विधायकों की प्रतिष्ठा, प्रभाव और कार्य क्षमता उल्लेखनीय रूप से कम होगी..।श्री संडा ने विधानमंडल के अध्यक्ष एवं सभापति से सदन की स्वायत्तता.मर्यादा और गरिमा को बनाए रखऩे के लिए कार्य संचालन नियमावली में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नही करने का अनुरोध किया है। सत्ता पक्ष से जुड़े विधान परिषद के एक मौजूदा सदस्य ने नाम नही देने का अनुरोध करते हुए कहा कि वह सार्वजनिक रूप से कहने की बजाय सभापति से और सदन के भीतर अपनी बात इसके विरोध में रखेंगे। मौजूदा व्यवस्था में बदलाव के वह कतई पक्ष में नही है।

    दरअसल उत्तरप्रदेश विधानमंडल की इन समितियों की बैठक विधान भवन के ही निर्धारित कक्षों में होती है।इसके सदस्य मौजूदा विधानसभा/विधान परिषद सदस्य होते है।विधानभवन से पांच सौ मीटर के दायरे में ही सचिवालय एनेक्सी,लोकभवन,बापू भवन में है जहां पर अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव एवं सचिवों के कार्यालय है।ऐसे में कम से कम इनमें शामिल होने से सरकारी कामकाज प्रभावित होने,इसमें शामिल होने आने जाने में समय नष्ट होने जैसे तर्क तो आधार नही हो सकते।फिलहाल विधानमंडल का सत्र इसी सप्ताह शुरू हो रहा है,देखना है कि विधानसभा के अध्यक्ष एवं विधान परिषद के सभापति इसे लेकर क्या निर्णय लेते है।      

सम्प्रति- लेखक अशोक कुमार साहू सेन्ट्रल ग्राउन्ड न्यूज(CGNEWS.IN) के संपादक एवं संवाद समिति य़ूएनआई के छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्य प्रमुख हैं।