उनका नाम था गया लाल।नाम कमाया गया राम बन कर। 1967 में हरियाणा विधानसभा के विधायक थे। एक दिन में दो बार दल बदला। फिर एक पखवारे में तीसरी बार। गया लाल के इस कौशल के साथ देश की संसदीय राजनीति में “आया राम गया राम ” का मुहावरा चल निकला। 1967 की हरियाणा विधानसभा दूसरे कारण से भी राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों की यादों में है। कांग्रेस की भगवत दयाल शर्मा की अगुवाई वाली सरकार अपने नामित अध्यक्ष उम्मीदवार को कांग्रेस विधायकों के दलबदल के कारण जीत नही दिला सकी थी। इन विधायकों की अगुवाई राव वीरेंद्र सिंह ने की थी। दलबदल के जरिए मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने वाले वह पहले राज नेता थे। यह भी हरियाणा ही था ! 1980 में केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई। राज्य में जनता पार्टी की भजनलाल की अगुवाई वाली सरकार थी। भजनलाल चालीस विधायको और सभी मंत्रियों सहित कांग्रेस में शामिल हो गए। सिर्फ झंडा बदला। मुख्यमंत्री वह बने रहे।
गोवा और कर्नाटक के हाल के नाटक और केन्द्र में काबिज़ सरकार की इसमे भूमिका की सरगर्म चर्चा के बीच पुरानी बातें याद की जानी चाहिए। कुछ भी नया नही है। मर्ज़ पुराना है। इलाज के लिए बना दल विरोधी कानून भी कुछ खास नही कर पाया। 1967 के 16 राज्यों के विधानसभा चुनाव कांग्रेस के उतार के लिए देश के राजनीतिक इतिहास में दर्ज है। इस चुनाव में आठ राज्यों में कांग्रेस बहुमत हासिल नही कर सकी थी। सात में उसकी सरकारें नही बन सकी थीं। यही साल था, जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दिग्गज सी बी गुप्त की सरकार चौधरी चरण सिंह और सोलह अन्य कांग्रेस विधायकों के दलबदल के कारण सिर्फ 18 दिन में गिर गई थी। चरण सिंह का उस दौर का सपना , यूपी के सी एम तक का था। कामयाब हो गए थे। 11 महीने उनकी सरकार चली थी। ” चेयर सिंह ” की पदवी पहली बार उन्हें तब बड़े समाजवादी नेता राज नारायण ने दी थी। यही राजनारायण जनता पार्टी की अंदरूनी उठा पटक के दौर में उनके ” हनुमान ” थे। पार्टी की टूट बाद चौधरी साहब प्रधानमंत्री भी बने थे। देश के अकेले प्रधानमंत्री, जिन्होंने इस कुर्सी पर रहते एक दिन भी लोकसभा का सामना नही किया।
आजादी के फौरन बाद 1948 में कांग्रेस के सोशलिस्ट खेमे के 11 विधायकों ने आचार्य नरेंद्र देव की अगुवाई में कांग्रेस छोड़ी थी। यह सिद्धांतों की लड़ाई थी। आचार्यजी और उनके साथियों ने विधानसभा की सदस्यता नैतिकता के आधार पर छोड़ दी थी। उपचुनाव में गजाधर प्रसाद जी के अलावा सभी हार गए थे। अयोध्या ( फैजाबाद ) में आचार्य जी भी । वह कैसे हारे, उसकी अलग कथा फिर कभी। लेकिन 1948 और 1967 के बीच के दलबदल की मंशा और 1967 से शुरु दलबदल के मकसद आमतौर पर उलट थे। 1967 से 1971 के बीच लोकसभा के 142 और विधानसभा के 1969 सदस्यों ने पाला बदला। 1983 तक दल बदल करने वाले विधायकों की संख्या लगभग 2700 थी। इनमे 15 मुख्यमंत्री और 212 मंत्री बनने में सफल रहे।
उस दौर की कांग्रेस केंद्र से विधानसभाओं तक अधिक प्रभाव वाली पार्टी थी। दल बदल और टूट की चोटें भी उसके हिस्से में ज्यादा आईं। प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गांधी सरकार का 1985 में पहला विधायी कदम दलबदल रोकथाम के लिए ही था। इसके लिए संविधान में संशोधन किया गया । उसमें दसवां शेड्यूल जोड़ा गया। दलबदल विरोधी कानून अस्तित्व में आया। इस कानून ने दलबदल मुश्किल तो किया । असम्भव नही। और वह शायद मुमकिन भी नही। अवसर मिलने पर कोई दल पीछे नही रहा। जो फायदे में रहा उसने सिद्धांतों का मुलम्मा चढ़ाया। जो घाटे में उसने सत्ता के बेजा इस्तेमाल और लोकतंत्र की हत्या का शोर मचाया। सदन से सड़क तक। राजभवन से राष्ट्रपति तक। स्पीकर से सर्वोच्च अदालत तक। इस सवाल पर लड़ाईयां कल भी लड़ी गईं। आज भी जारी हैं।
गोवा, कर्नाटक का हाल का घटनाक्रम देखें। 2017 में गोवा में 17 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। भाजपा 13 पर और अन्य दस थे। सरकार बनाने के राज्यपाल से न्योते की कांग्रेस की पहली दावेदारी थी। भाजपा ने जोड़तोड़ कर उसे पीछे छोड़ दिया। 2018 में कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़ा दल थी। उसके 104, कांग्रेस के 78 और जेडीएस के 37 विधायक थे। पर वहां कांग्रेस बड़े दल को सरकार बनाने के न्योते की विरोधी थी। केंद्र के प्रतिनिधि के नाते दोनों राज्यों के राज्यपालों की शुरुआती भूमिका वही थी, जो इस पद पर आसीन होने वाले महामहिम पूर्व की सरकारों में निभाते रहे । कर्नाटक में येदुरप्पा को पहले मौका मिला। बहुमत नही जुटा सके। कांग्रेस ने अपने से आधे से कम विधायकों वाले कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी।
2019 की विफ़लता ने कांग्रेस को बुरी हालत में पहुंचा दिया है । राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े और नेतृत्व संकट ने पार्टी के लिए और मुश्किल हालात पैदा किये हैं। उससे जुड़े तमाम लोगों ने सत्ता के सुरक्षित ठिकानों की तलाश शुरु कर दी है। गोवा का दलबदल और कर्नाटक के इस्तीफ़े उसी सफ़र का हिस्सा है। भाजपा भड़का रही है। बागियों को गले लगा रही है। प्रलोभन दिखा पास बुला रही है। इसमें सब सच हो सकता है। कुछ-कुछ भी सच हो सकता है। पर इसमे क्या अजूबा है ? कांग्रेस हो या टीडीपी सहित भाजपा विरोधी अन्य दल। अपने घर- कुनबे की हिफाज़त और उसे जोड़े रखने की उनकी अपनी जिम्मेदारी हैं। कर पा रहे हैं? संख्या के खेल में विपक्षी कोई मौका क्यों छोड़ेगा ? पर उसे मौका क्यों दे रहे हैं ? सत्ता ने उन्हें मजबूत किया है। सिर्फ चुनावी हार ने आपको इतना क्यों लाचार- मजबूर कर दिया ? बिना सत्ता क्यों नही लड़ पाते ? दावे दस गुनी ताकत से लड़ने की करते हैं। बातों से आगे क्यों नही बढ़ पाते? सत्ता देश की राजनीति का अन्तिम सच। उसके लिए हर रास्ता कुबूल। कौन पीछे है ? जो विलाप कर रहे हैं। उनका कल ! आज मुस्कुरा रहे लोगों से कुछ अलग है क्या !
सम्प्रति- लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते है।