भारतीय संविधान का निर्माण, आजादी के आंदोलन के दौरान चली एक लंबी प्रक्रिया से हुआ था। 19 वीं सदी के आंरभ से ही यह चर्चा शुरु हुई थी कि, भारत के संविधान को ब्रिटिश कानूनो से नही वरन भारतीय जनता के द्वारा निर्वाचित संविधान सभा के द्वारा निर्मित होना चाहिये। यद्यपि उस समय तक ब्रिटिश, इसके हक में नही थे। 1928 में, स्व.मोतीलाल नेहरु ने भी शिक्षित वर्ग के नुमाइंदो के विचार विमर्श से एक संविधान के निर्माण की कल्पना प्रस्तुत की थी जिसे नेहरु रिपोर्ट कहा गया था। यद्यपि मुस्लिम लीग के सदस्यों द्वारा इस रिपोर्ट पर बहस के लिये, बुलाई गई बैठक से, बहिष्कार के बाद यह रपट भी केवल इतिहास का दस्तावेज बन कर रह गई। यद्यपि उस समय, स्व.जवाहरलाल नेहरु, इस प्रक्रिया से संविधान निर्माण के पक्ष में नही थे वरन वे चाहते थे कि संविधान निर्माण के लिये निर्वाचित संविधान सभा हो। हांलाकि जवाहर लाल नेहरु ने संविधान सभा के गठन के लिये कोई ठोस प्रारुप या रुप रेखा प्रस्तुत नही की थी।बल्कि उन्होंने अपने स्वभाव या रणनीति के तौर पर बयान देकर, कार्य मुक्त होने की परंपरा का निर्वाह किया था। 1934 में कांग्रेस ने भी जनता के द्वारा निर्वाचित संविधान सभा का प्रस्ताव किया था।
भारतीय संविधान के निर्माण के लिये व आजादी की रुप रेखा तय करने के लिये केबिनेट मिशन भारत आया था और उसकी रिपोर्ट के बाद 1946 में, भारत के संविधान निर्माण के लिये संविधान सभा का अप्रत्यक्ष तरीके से निर्वाचन हुआ था। संविधान सभा के सदस्यों का चयन, सीधे जनता के द्वारा तो नही हुआ था, बल्कि केन्द्रीय विधानसभा व राज्यों की विधानसभा के सदस्यो द्वारा इनका निर्वाचन हुआ। इसमें 389 सदस्य चुने गये थे जिनमें से 296 ब्रिटिश इंडिया के तथा 93 राजवाड़ो के राज्यो के थे। 9 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई थी तथा प्रथम सभा में केवल 207 सदस्य ही शामिल हुये थे क्योंकि मुस्लिम लीग ने, इसका बहिष्कार कर दिया था। डा.राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था तथा डा.बी.आर.अंबेडकर को संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी का मुखिया चुना गया था। हांलाकि संविधान निर्माण की प्रक्रिया में यह अवश्य ही तय कर लिया गया था कि निर्णय, बहुमत से नही होगा बल्कि आम सहमति के द्वारा होगा।बहुमत को अल्पमत को सहमत कराने की कसरत करनी होगी ताकि आमराय से सर्वसम्मति बन सके।
अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा आजादी के हस्तांतरण के बाद भी देश के संविधान की रचना के लिये, देश में एक बहस चली थी कि संविधान का निर्माण कौन करें? जनता से निर्वाचित प्रतिनिधि संविधान का निर्माण करें या देश की उस समय की आमतौर पर प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस व अन्य संगठन। कांग्रेस समाजवादी पार्टी जो कांग्रेस के अंदर रहकर ही विचार कार्यक्रम केन्द्रित राजनीति के लिये उत्प्रेरक की भूमिका में थी, का विचार था कि, संविधान के निर्माण के लिये, पृथक से , जनमत के द्वारा निर्वाचित संविधान सभा होना चाहिये।कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं स्व.आचार्य नरेन्द्रदेव, डा.राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण आदि ने, सैद्वांतिक आधार पर, नामजद संविधान सभा से बाहर रहने का फैसला किया था। 1942 के गांधी जी के, आव्हान पर हुये देश व्यापी ’’अंग्रेजो भारत छोड़ो’’ आंदोलन में, जो महत्वपूर्ण व साहसिक भूमिका समाजवादियो ने, अदा की थी, उसने भी समाजवादियो की एक विशेष पहचान जनमानस में बनाई थी। महात्मा गांधी चाहते थे कि समाजवादी संविधान सभा में शामिल हों तथा देश के संविधान की रचना में, अपनी भूमिका प्रदान करे। गांधी जी देश के विभाजन से निर्मित तनाव व हिंसा के वातावरण में एक आम राय से गठित संविधान सभा के पक्ष में थे। तथा उन्होंने, समाजवादियो को बुलाकर मध्यस्थता करने व समझाने का प्रयास भी किया था परंतु महात्मा गांधी के प्रति सारे सम्मान के बावजूद भी समाजवादी उस भूमिका के लिये तैयार नही हुये। वरना हो सकता था कि संविधान का समाजवादी कार्यक्रमो की ओर अधिक झुकाव होता। फिर भी संविधान ने देश की स्थिरता के लिये, तथा आजाद भारत की व्यवस्था संचालन के लिये एक आधार तो दिया ही था।
संविधान के निर्माण की प्रक्रिया में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दें थे, जिनके बारे में, संविधान सभा उस समय ज्यादा ठोस निर्णय नही ले सकी थी। महात्मा गांधी की कल्पना ग्राम स्वराज्य की थी तथा ग्राम पंचायती व्यवस्था को मजबूत बनाना इसके लिये जरुरी था। पर उस समय पंचायतो को ज्यादा अधिकार संपन्न नही बनाया जा सका। डा. लोहिया तो चौखम्बा राज्य की व्यवस्था की कल्पना करते थे, जिसमें केन्द्र, राज्य जिला व ग्राम के चार खंभों पर षासन का ढांचा खड़ा हो।परन्तु महात्मा गांधी व डा. लोहिया की कल्पना के अनुसार का ढांचा नही बन सका। बल्कि एक ऐसा केन्द्रीकृत ढांचा विकसित हुआ जिसमें सारी शक्तियां केन्द्र व सूबाई सरकारो के हाथ में केन्द्रित कर दी गई। तथा स्थानीय संस्थाओं के यतः जिला पंचायते या ग्रामीण पंचायते अधिकार रहित निर्वाचित भिखारी जैसी संस्थायें बन गई। अगर महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को नही हुई होती तो बहुत संभव था, कि गांधी जी के हस्तक्षेप से पंचायतो केा अधिकार संपन्न बनाने के ज्यादा प्रभावी प्रावधान किये जाते, परतु गांधी जी की अनुपस्थिति ने वह सब नहीं होने दिया।
1980 के दशक में जरुर जब स्व.राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने संविधान संशोधन कर पंचायती व्यवस्था को मजबूत करने के कुछ प्रावधान किये थे। तथा पंचायतो को आर्थिक, प्रशासनिक अधिकार देने का मार्ग प्रशस्त किया था। परंतु अभी भी यह प्रावधान समय व आवश्यकता के अनुकूल नही है।डा.लोहिया छोटी मशीन के पक्षधर थे जिसमें कम पूंजी में ज्यादा रोजगार पैदा हो सके। वे छोटी मशीन व छोटी तकनीक के पक्षधर थे। उनके शब्दों में वे उसे ’’लघु इकाई तकनीक’’ कहते थे परन्तु भारत के संविधान में भारत के विकास के लिये और रोजगार बढ़ाने के लिये लघु इकाई तकनीक को कोई स्थान नही मिल सका। डा.लोहिया के इस विचार और गांधी के ग्राम स्वराज्य तथा कुटीर और ग्राम उद्योग की कल्पना को बाद में जनसंघ के राष्ट्रीय महामंत्री के रुप में स्व.दीनदयाल उपाध्याय जी ने भी समर्थन दिया था। 29 नवम्बर 1954 के आर्गनाइजर अखबार में उनका अमृतसर से जारी एक बयान छापा था जिसमें उन्होंने कहा था ’’कुटीर ग्रामीण और लघु उद्योगो को अपना आधार बनाये बिना कोई भी आर्थिक योजना सफल नही हो सकती। पूंजी आधारित परियोजना के लिये सरकार का पूर्वाग्रह बेरोजगारी की समस्या को बढ़ा चुका है।अगर उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन लघु उद्योग क्षेत्र को सौपा जाता और बड़े पैमाने के उद्योगो को केवल पूंजीगत वस्तुओं का ही उत्पादन आरक्षित किया जाता तो ’’ग्रामीण कृशि मजदूर जो अभी वर्ष में आधे समय बेकार रहते है उन्हें लाभकारी रोजगार देना संभव हो जाता।’’
भारतीय संविधान में महात्मा गांधी और डा.लोहिया की मूल प्रतिबद्वताओं का समावेश नही हो सका हांलाकि आज भी ये प्रतिबद्वतायें यर्थातपरक सैद्वान्तिक और भारतीय परिस्थियों के सर्वथा अनुकूल है। कई बार ऐसा लगता है जो राजनैतिक समूह जिन्हें अपना आदर्श या नीतिकार घोषित करते है उन्हें वस्तुतः पूजकर पत्थर बना देते है।हांलाकि वे कर्म में उन्हें उतना ही अछूत समझते है।
संविधान में, रोजगार को, मूलाधिकार बनाने के बारे में भी प्रावधान नही जुड़ सका। यद्यपि डा.लोहिया तो बेरोजगारी की भयावह स्थिति को भॅापकर व अनुभव कर आक्रोश में कहते थे कि ’’मेरा बस चले तो मैं देश के झंडे को बदलकर ऐसा बना दूं जिसमें आधा आदमी व आधा जानवर हो।’’ उनके दिमाग में कोलकत्ता के वे रिक्शा चालक थे जो दौड़ते दौड़ते आदमी को खीचते थे तथा बैलो या जानवरो के समान कार्य करने को लाचार थे। अगर रोजगार का अधिकार संविधानिक हो जाता तो सरकारो का वैधानिक दायित्व बेरोजगारी को दूर करने का होता तथा उनके सामने बाध्यता होती जो कि नही हो सकी।
डा.लोहिया धारा 151 अपराध प्रक्रिया संहिता को समाप्त करने के पक्षधर थे क्योंकि यह बेरोजगारी को अपराध बनाती है। यह धारा बेरोजगारों या गरीबो को जिनके पास मकान या संपत्ति नही है अपराधी मानती है।यह ब्रिटिश सत्ता को टिकाये रखने का हथियार था तथा जनता को दबाने की, पर आजाद भारत में इसकी कोई उपयोगिता नही है। कम से कम इसे सुधारा तो जा ही सकता है।
महात्मा गांधी जिस शिक्षा की कल्पना करते थे वह नैतिक मूल्य परक और रोजगार परक थी। वे इसे ’’बुनियादी तालीम’’ कहते थे।डा.लोहिया ने समान शिक्षा की बात को बहुत मजबूती से शुरु किया था तथा उनका नारा था ’’राष्ट्रपति हो या चपरासी की संतान सबकी शिक्षा एक समान’’ । परन्तु आजादी के बाद भी देश में समान शिक्षा व निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था नही हो सकी।शिक्षा को मूलाधिकार के खंड में संविधान संशोधन के माध्यम से शामिल तो किया गया परतु वह एक निष्प्रभावी प्रावधान जैसा है। जब तक कालेज तक की शिक्षा यानी, 16 क्लास (स्नातकोत्तर तक) तक की शिक्षा को निशुल्क व समान रुप से उपलब्ध कराने की जबावदारी सरकार नही लेती तब तक इस शिक्षा के अधिकार का कोई अर्थ नही है। स्थिति यह है कि पिछले 40 वर्षो में, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की निजी दुकाने खुल गई है। विशेषतः भारत के विश्व व्यापार संगठन के हिस्सेदार बनने के बाद तो शिक्षा को पूर्णतः व्यापार बना दिया गया है तथा सरकारो ने क्रमशः अपने दायित्वो से स्वतः अपने आपको मुक्त कर लिया है।
संविधान में विकेन्द्रीकरण-रोजगार-शिक्षा-चिकित्सा संबधी जनोन्मुखी व चौखम्भा राज्य की कल्पना आधारित राज्य व्यवस्था के बारे में संवैधानिक प्रावधानो को बनाने की पहल करना होगी। सर्वोच्च न्यायालय जिसे संविधान सभा ने, संविधान के सर्वोच्च व्याख्याकार का दायित्व सौपा है ने भी स्पष्ट निर्णय दिया है कि संविधान का मूल ढांचा जिसमें पवित्र लक्ष्य यथा मूलाधिकार-धर्म-निरपेक्षता-नीति निर्देशक सिंद्वात-आदि शामिल है अपरिवर्तनीय है। ये देश के स्थाई लक्ष्य है जो शास्वत है। अन्य विषयो पर संशोधन या सुधार हो सकते है। इस संबध में, सरकारो को तथा जनमत को भेी जागृत होना होगा, तभी संविधान के पवित्र लक्ष्य हासिल हो सकते है।
भारतीय संविधान का निर्माण तीन वर्ष की सघन बैठको व विचार विमर्श के द्वारा हुआ व 26 जनवरी 1950 को इसे लागू किया गया।इस प्रक्रिया में ड्राफ्ट पर 7635 संशोधन पेश किये गये जिनमें से 2473 पर चर्चा हुई पेश सहमति से वापस ले लिये गये। तथा संविधान का अंतिम प्रारुप लगभग सर्वानुमति से ही हुआ। हांलाकि पाकिस्तान जो भारत की आजादी के साथ ही याने 14 अगस्त 1947 को आजाद देश घोषित हुआ था 9 वर्ष में अपना संविधान बना सका और वह भी वहां के विधिक विशेषज्ञो के द्वारा 1956 में, जिसमें जनमत या निर्वाचन की कोई भूमिका नही थी।शायद यही कारण रहा कि पहले दो वर्ष बाद 1958 में और पुनः चार वर्ष बाद 1962 में पाक को अपने नये संविधान को बनाना पड़ा।
इस अर्थ में भारतीय संविधान को सफल माना जाना चाहिए कि इसमें बड़े संशोधन केवल तीन चार बार ही हुये। एक तब जब, संपत्ति के मूलाधिकार को समाप्त किया गया और फिर 73-74 वां संविधान संशोधन जिसमें पंचायतो को अधिकार सम्पन्न बनाया।
सम्प्रति- लेखक रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक एवं समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी है।