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‘बंद गली के आखिरी मकान’ में कोरोना व रोशनी की जद्दोजहद – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

बंद गली का आखरी मकान -‘दायीं ओर कच्ची दीवार, जिसमें बीच-बीच में गोबर का लेप उघड़ गया था। बीच में पिरोड से पुता वो आला, जिसके ऊपर तक ढिबरी के धुंए की काली लकीर और नीचे बहे हुए तेल की धारा का दाग। बायीं ओर दीवार नीची थी, खपरैल झुग आई थी और ओलती के मोटे-मोटे बांस। पांयताने टीन के पुराने संदूकों पर पोटरियां , गठरी-मुठरी और पुराने कागज-पुर्जे। ऊपर खूंटी से लटकता हुआ तार का एक खोंसना, जिसमें पुरानी चिट्टियाँ, पुरजे, गैर-तामील हुए सम्मन, रसीदें, और बैनामे और पुरनोट खुंसे हुए थे….कोने में पड़ी एक खटिया थी, जिसके सिरहाने से बाहर सब-कुछ दीखता था…वह कच्चा मकान गली का आखिरी मकान था…।

वर्ष 1969 में, पचास साल पहले डाॅ. धर्मवीर भारती के संग्रह में वर्णित यह मकान भारतीजी की कहानी में भले ही ‘गली का आखिरी मकान’ रहा हो, लेकिन उत्तर भारत के देहातों, कस्बों और छोटे नगरों के गली-कूचों में ढेरों की तादाद में बने इससे ज्यादा बदहाल और बदनुमा मकान मौजूद हैं, जहां गुरबत और गरीबी अपने बदनसीबी के चीथड़ों के साथ मौजूद है। फर्क बस इतना है कि धुंएदार लालटेन और दिया-बाती की जगह लट्टुओं ने ले ली है। ठीक से याद नहीं कि भारतीजी की इस कहानी को कब पढ़ा था, लेकिन जहन में ‘बंद गली का यह आखिरी मकान’ एकाएक कुलबुला उठा, जबकि कोरोना के खिलाफ जंग में पूरा देश अपनी एकता दिखाने के लिए रोशनी का समन्दर लेकर महामारी के अंधेरों को परास्त करने के लिए उतर पड़ा। बहरहाल, दिल्ली के नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक की ऊंची मीनारों पर दीयों का यह मंगल-गान, लुटियंस के पांच सितारा बंगलों मे टिमटिमाती मोमबत्तियों का यह आव्हान, मुंबई के समुद्री किनारों और बहुमंजिला इमारतों पर मंडराते काले सायों के खिलाफ यह दीप-दान और भोपाल के अरेरा एवं श्यामला-हिल्स पर बने महलनुमा मकानों के शिखरों पर रोशनी का यह इम्तिहान राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और प्रशासनिक द्दष्टि से भले ही कितना रूमानी हो, लेकिन रोशनी के पीछे दबे पांव चल रहे अंधेरे तूफान की तबाही बंद गली के आखिरी मकानों मे भूख-प्यास, गुरबत-बेहाली और बेरोजगारी के रूप में पूरी शिद्दत से कुहराम मचा रही है।

सोमवार को रोशनी के इन नौ मिनटों की रूमानियत की कहानी में टीवी चैनलों और मीडिया में पर चांद-तारे चहकते नजर आएंगे, सोने की इबारत से इतिहास के पन्ने भरे होंगे, राष्ट्रभक्ति के नए आयाम गढ़े जाएंगे, राष्ट्रद्रोहियों की नई फेहरिेस्त सामने होगी, सवाल पूछने वालों की लानत-मलामत होगी, सदियों से बिखरा देश पहली मर्तबा एक लय, एक ताल होकर एकता के सूत्रों मे बंधेगा…। अपने घरों की रोशनी को अंधेरे से ढक कर दियों की रोशनी से एकता का उजास पैदा करने का यह अभिनव और अदभुत् प्रयोग के किसी भी सिरे को पकड़ना मुश्किल है। राजनीतिक-रसायन में घुली रोशनी में भभकते सायों की तासीर कई खतरों की ओर इशारा कर रही है।

रोशनी मे छिपे सायों के उस पार ‘बंद गली के आखिरी जर्जर मकान’ में पसरी अधपकी जिंदगी की उन कहानियों पर गौर करना और समझना जरूरी है, जिनकी तकलीफों की इबारत को हाशिए पर ढकेला जा रहा है। लॉक-डाउन के बाद पहले कुछ दिनो में गरीबी, गुरबत और भुखमरी की ये कहानियां लाखों की संख्या मे सड़को पर उमड़ पड़ी थी। बंद गलियों के दड़बेनुमा मकानों में सड़ांध मारती जिंदगियों का सैलाब सा फूट पड़ा था। लेकिन पहले गुरबत के इन सवालो का निजामुद्दीन मरकज की नापाक और अक्षम्य करतूतों के सहारे किनारे कर दिया गया और भूख-प्यास के सवाल दीए-बत्ती की रोशनी में नहाते नजर आएंगे।

कोरोना से दूरियां बनाने के लिए सोशल-डिस्टेंसिंग और क्वारेंटाइन के पैमानों के विरोधाभासो का आंकना होगा। लुटियंस के बंगलों में बैठकर सोशल-डिस्टेंसिंग और क्वारेंटाइन का पालन करना अलग बात है, जबकि बंद गली के दड़बेनुमा मकानो में रहने वालो के लिए सोशल डिस्टेंसिग और क्वारेंटाइन की मजबूरियां अलग हैं। इससे जुड़े सामाजिक और आर्थिक सवालों की तासीर अलग है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के 37 प्रतिशत लोग एक कमरे के मकान में रहते हैं। दो कमरो में रहने वाले हिंदुस्तानियों का आंकड़ा 32 प्रतिशत है। चार फीसदी लोग बेघर भी हैं। विडम्बना यह है कि ये एक या दो कमरे के मकान भी पक्के नहीं है। ज्यादातर झुग्गी-झोपड़ियों में सांस लेना भी मुश्किल होता है। एक झोपडी में औसतन पांच या छह लोग रहते हैं, जो सोशल डिस्टेंसिंग के पैमानों की खिल्ली उड़ाते हैं। सवाल यह है कि इन बेघरों के लिए छत और सौ वर्ग फीट के मकान में सोशल डिस्टेंसिग के लिए जरूरी फासलों का इंतजाम कैसे हो?

मसले सिर्फ लोगो के लिए रहने के मकान तक सीमित नही है। कोरोना और क्वारेंटाइन से आर्थिक सवाल भी जुड़े हैं। सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी क्षेत्रों में लगभग 29 फीसदी आबादी दिहाड़ी मजदूरी के आसरे जिंदा रहती है और गांवो में 47 प्रतिशत लोग खेतिहर मजदूर हैं। झुग्गी-झोपड़ियों में क्वारेंटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग भूख और बेरोजगारी का अंधेरा बनकर उभर रहा है। पांच अप्रैल की रात नौ बजे, जबकि मोम-बत्तियों और दीयों के वंदनवारों के साथ लगा कि रोशनी राहों पर किलकारियां भर रही है भारत एकजुटता के नगमें गुनगना रहा है, राजनीति नई अंगड़ाइयां ले रही है, राष्ट्रवाद उफान भर रहा है, रोशनी के पीछे भागता अंधेरा बंद गली के आखिरी मकानों में आर्तनाद मचाने के लिए आतुर है। इसे अनसुना करना भी राष्ट्र-द्रोह होगा…।

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 06 अप्रैल 20  के अंक में प्रकाशित हुआ है।