दुनिया के 130 देशों को अपने शिकंजे में जकड़े कोविड-19 की पैदाइश चीन की है और नीचे लिखी कविता जिस सू लिज्ही ने लिखी है, एक मजदूर के रूप में उसका मुकद्दर भी चीन की राजनीतिक-व्यवस्था ने ही लिखा था। 14 जून 2014 को सू लिज्ही ने चीन के मशहूर शेनजेन औद्योगिक क्षेत्र में स्थित फॉक्सकोन कंपनी में काम की नारकीय परिस्थितियों से तंग आकर आत्म हत्या कर ली थी। इस युवा मजदूर कवि की कुछ कविताओं का हिंदी रूपांतरण सुभाषिनी श्रिया ने किया है। सू लिज्ही की यह कविता, भारत में कोरोना की लॉक-बंदी के दौरान दिल्ली-हरियाणा के दिहाड़ी मजदरों की मजबूरियों के विस्फोटक पलायन की पृष्ठभूमि का मार्मिकता को बंया करती है। कविता का शीर्षक ही ‘किराए का कमरा’ है-
दस बाय दस का कमरा, सिकुड़ा और सीलन भरा,साल भर धूप बिना, यंहा मैं खाता हूँ, सोता हूँ, हगता हूँ, सोचता हूँ, सता हूँ, सिर-दर्द झेलता हूँ, बूढ़ा होता हूँ, बीमार पड़ता हूँ, पर मरता नही।
फिर फीके पीले बल्ब के नीचे मैं ताकता हूँ, मूर्ख की तरह हंसते हुए इधर-उधर घूमता हूं, धीमी आवाज में गाता, पढ़ता कविताएं लिखता हर बार जब खिड़की या दरवाजा खोलता हूँ, लूम पड़ता है एक मुर्दा अपने ताबूत का ढक्कन हटा रहा है।
सू लिज्ही की कविता एक मजदूर की तकदीर की बदनसीबी बयां करती है और सवाल पूछती है कि कोविड-19 का कहर गुजर जाने के बाद भारत की गरीब और बेहाल जनता की इंसानी जरूरतों को सुलझाने के मसलों में सत्ताधीशों की संवेदनाओं, सरोकारों और सहारे का इंडेक्स क्या होगा? गौरतलब है कि राष्ट्रव्यापी लॉक-डाउन ने शहरी मजदूरों के रोजी-रोटी के सवालों को पेचीदा बना दिया है। यह मजदूर तबका आज आर्थिक-विनाश के कगार पर खड़ा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 24 मार्चे को जब देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी, तो उसके पहले ही देश के 36 राज्य व केन्द्र शासित प्रदेश इसे लागू कर चुके थे। महज चार घंटे की सूचना पर इक्कीस दिनो के लिए लोगों की जिंदगी को घरों में कैद करने का यह फरमान राजनीतिक और प्रशासनिक विशेषज्ञता की किसी भी कसौटी पर खरा साबित नहीं हुआ है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद विभिन्न महानगरों और शहरों प्रवासी मजदूरों का जो पलायन शुरू हुआ, उसका रत्ती भर आभास भी मोदी-सरकार के सूत्रधारों को नही था। 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में प्रवासी मजदूरों की संख्या 10 करोड़ आंकी गई है। यह आंकड़ा देश के कामगारों की कुल संख्या का 20 प्रतिशत है। कोविड-19 के प्रकोप से प्रभावित इन कामगारों को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। देश में करीब 47.1 करोड़ कामगार मजदूर हैं, जिनमें अस्सी प्रतिशत से ज्यादा असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं।
इन मजदूरों की व्यथा-कथा को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना टेढ़ी खीर है। पचास करोड़ कामगारों की जिंदगी का अगला सफर पथरीला है। उनकी राहें आसान नही हैं। इनकी जिंदगी कोरोना के प्रकोप और भूख-प्यास के जो पाटों के बीच मे पिसने के लिए विवश होती जा रही है। कोई भी इनकी बात कहने या इनती चिंताओं को समझने को तैयार नही हैं। मीडिया की चर्चाओं मे इन करोड़ों लोगो की भूख नदारद है। मजदूरों की जिंदगी में आए कोरोना के इस आकस्मिक तूफानों की चीत्कारों से इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया के स्क्रीन बेखबर से हैं। भूख-प्यास और बीमारी की दोहरी मार ने जिंदगी को दूभर बना दिया है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश की सीमाओं पर पुलिस इनका रास्ता रोक कर खड़ी है। मोदी-सरकार को लगता है कि कोरोना से निपटने के लिए जो उपाय किए गए हैं, वो ऐतिहासिक हैं। सरकार को यह आभास नहीं है कि उसने जाने-अंजाने आत्म-मुग्धता और अति आत्म-विश्वास के फेर में गरीबों की जिंदगी को कितना दूभर बना दिया है। केन्द्र-सरकार ने लॉकडाउन का कदम उठाने के पहले उससे उत्पन्न परिस्थितियों का आकलन करने में चूक की है।
चार घंटे की अल्प-सूचना पर 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा से उत्पन्न पीड़ाएं दर्शाती हैं कि सारे मसले और उससे जुड़ी प्राथमिकताओं का आकलन कितने हलके-फुलके ढंग से किया गया था। भारत में कोविड-19 का शिकंजा बढ़ता जा रहा है। सरकार ने जो सोचा था, महामारी उन दायरों को पीछे छोड़ चुकी है। लॉकडाउन का एक पखवाड़ा बीत जाने के बावजूद शहरों की तंग गलियों के तंग मकानों मे फड़फड़ाते देहाती-कामगारों की तकलीफों का सिलसिला अभी थमा नही हैं। उनके गांवों तक पहुंचने वाली मीलों लंबी सड़कों पर सरकारी पुलिस के बेरियरों की रोक ने उनकी राहों को जंगल-पहाड़ों की पथरीली पगडंडियों की ओर मोड़ दिया है। बहरहाल, बकौल चीनी कवि सू लिज्ही वो लोग अपने दड़बों के दरवाजे खोल कर बाहर निकल आए हैं। भले ही मुश्किलों के इस सफर का अंजाम चाहे जो हो..।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 07 अप्रैल 20 के अंक में प्रकाशित हुआ है।