
कोरोना महामारी का भयावह प्रकोप आजाद भारत की उन गिनी-चुनी घटनाओं में शुमार है, जिससे निपटने के राजनीतिक और प्रशासनिक इरादों को ऐतिहासिकता की कठिन कसौटियों पर बेरहमी से जांचा- परखा जाएगा। देशकाल और परिस्थितियां राजनीतिक नेतृत्व को इतिहास में अपना मुकाम बनाने का मौका देती हैं। आजादी के बाद भारत के नव-निर्माण, भारत-चीन युध्द, भारत-पाकिस्तान युध्द, बांगला-देश का अभ्युदय, आपातकाल, परमाणु-विस्फोट, कारगिल-युध्द जैसी घटनाएं इतिहास का सबब बनी हैं। भारत में कोरोना का कहर फिर उन ऐतिहासिक क्षणों को लेकर सामने आया है, जो किसी भी राजनेता की सफलताओं से इतिहास की सृष्टि करते हैं। फिलवक्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी परीक्षा के उन क्षणों के रूबरू खड़े हैं। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक मिजाज में देश का सबसे अव्वल इतिहास-पुरूष बनने की ललक किन्हीं भी परिस्थितियों में, कहीं भी छलक पड़ती है।यह आकांक्षा उनकी कमजोरी भी है और यही उनकी ताकत भी है। कमजोरी इस मायने में कि इतिहास में, आजादी के पहले या बाद, जो घट चुका है, जिसे वो दफ्न नही कर सकते, उसकी कई मान्यताओं से उन्हें परहेज है।यह उनकी ताकत इसलिए है कि कुछ नया अभूतपूर्व करने की चाहत उनकी ऊर्जा के सौर-मंडल को हमेशा गतिमान बनाए रखती है। लेकिन इतिहास की सच्चाइयों और ऊंचाइयों को लकीरें काटकर बदलना संभव नही है और इतिहास किसी को कबूल करे, यह व्यक्ति के अपने हाथों में नही होता है। जो लोग ऐतिहासिकता के तकाजों को दरकिनार कर समय के पन्नों में दर्ज होने की ऐसी कोशिशें करते हैं, वो जाने-अनजाने तानाशाही प्रवृत्तियों को आकार-अंजाम देते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में नोटबंदी, धारा 370, तीन तलाक जैसे फैसलों के पैटर्न में जो निरंकुशता दिखती है, वह मोदी के लोकतांत्रिक व्यवहार को कॉम्प्लेक्स बनाती है। इन फैसलों के चश्मे में प्रधानमंत्री के नाते उनके कार्यकलापों में लोकतंत्र के सरोकार हाशिए पर खड़े नजर आते हैं। मनमानेपन की यही शिकायतें कमोबेश कोरोना के मामले में भी सामने आ रही हैं। शायद इसका एक कारण यह है कि मोदी को केन्द्र में रहना पसंद है। उनके आसपास दो-तीन घेरे लगभग खाली होते हैं और नगण्य मौजूदगी वाले होते हैं।
मोदी घटनाक्रमों को अपने हिसाब से राजनीति का जामा पहनाते हैं। प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी के छह साल के कार्यकाल की क्रोनोलॉजी उनकी कई खूबियों को बयां करती है। नोटबंदी या सर्जिकल स्ट्राइक जैसी घटनाओं को आपातकाल के राजनीतिक मनोविज्ञान में ढाल देना अथवा कोरोना जैसे जानलेवा आर्थिक और चिकित्सकीय आपातकाल के कैनवास में मेगा-इवेंट के रंग भर देने की उनकी क्षमता चौंकाने वाली है। पांच अप्रैल को रात 9 बजकर 9 मिनट पर कोरोना के खिलाफ भारत में घरों की बत्तियां गुल करके चिराग जलाने की कहानी कोरोना की अनगिनत परेशानियों के बीच एकता की झिलमिलाती मुस्कराहट ढूंढने का अदभुत नमूना है। दर्द के समंदर में चिरागों की रोशनी के सहारे एकता का सितारों भरा आकाश जमीन पर उतारने के इस जतन की कोई सेटेलाइट इमेज अभी तक सामने नहीं आई है। (यह अलग बात है कि अमिताभ बच्चन जैसे सेलीब्रिटी अंधेरे ग्लोब में दमकते भारत की फेक-इमेज के सहारे कल्पनाओं को परवान दे चुके हैं)।
मीडिया पर दीपोत्सव के इस जश्न के पहले भी मोदी कोरोना के घटनाक्रमों को न्यूज-इवेंट में तब्दील करके अपने तरीके से राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे हैं। वो या उनके समर्थक यह जरूर कहते हैं कि कोरोना जैसे महासंकट का राजनीतिक उपयोग नहीं होना चाहिए, लेकिन उनकी मशीनरी हमेशा इन घटनाओं को मेगा-इवेंट में तब्दील करती रही हैं। कोरोना-वायरस के गहराते संकट के बीच शुक्रवार, 24 मार्च 20 के दिन प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन को देश के कोई 20 करोड़ लोगो ने सीधा सुना था। संबोधन में मोदी ने देश भर में इक्कीस दिन के लॉकडाउन का ऐलान किया था। भारत के 201 चैनलों ने इसका लाइव प्रसारण किया था। टीवी दर्शकों को यह आंकड़ा ऐतिहासिक है। इसके पहले आईपीएल के फायनल मुकाबले का सीधा प्रसारण देखने के लिए 13.3 करोड़ दर्शक जुटे थे। दर्शकों के लिहाज से मोदी ने अपने 19 मार्च के संबोधन में जुटे दर्शकों की संख्या को पीछे छोड़ दिया था। एक दिन के कर्फ्यू का यह ऐलान 8.3 करोड दर्शको ने सुना और देखा था। लॉकडाउन का न्यूज-इवेंट नोटबंदी की तुलना में चार गुना बड़ा था। नोटबंदी की घोषणा को सुनने वाले दर्शकों की संख्या 5.7 करोड़ थी। ये आंकड़े ब्राडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल ने जारी किए है।
कोरोना का आर्तनाद भले ही बड़े से बड़े न्यूज-इवेंट में ढाल दिया जाए, लेकिन इतिहास की दलीलों में कोरोना की कहानियां और उनका कथानक आम लोगों की कराह के रूप में ही दर्ज होगा। न्यूज-इवेंट कभी भी इतिहास नहीं हो सकती। कोरोना वायरस से होने वाली मौतों के डरावने आंकड़ों के साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर कई खतरे पैदा हो रहे हैं। ये खतरे लोकतंत्र में विद्रूपता पैदा करने का सबब बनेंगे। विद्रूपता और बदलाव के इन क्षणों में राजनीतिक-नेतृत्व की भूमिका ही उसकी ऐतिहासिकता को निर्धारित करेगी।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 08 अप्रैल 20 के अंक में प्रकाशित हुआ है।
 CG News | Chhattisgarh News Hindi News Updates from Chattisgarh for India
CG News | Chhattisgarh News Hindi News Updates from Chattisgarh for India
				 
			 
						
					 
						
					