विभाजन की पीड़ा थी। पर उसकी अनिवार्यता और जिम्मेदारी कुबूल करने को लेकर वह दो टूक थे। 11 अगस्त 1947 को सरदार बल्लभ भाई पटेल ने एक सार्वजनिक सभा में कहा,” लोग कहते हैं कांग्रेस ने देश का विभाजन कर दिया। यह सत्य है। पर किसी भय या दबाव के बिना। सोच विचार करके यह निर्णय हमने लिया।” उन्होंने याद किये अंतरिम सरकार के अपने अनुभव ,” मैं विभाजन का प्रबल विरोधी था। लेकिन जब मैं सरकार में आया तो मैंने पाया कि एक चपरासी से बड़े अधिकारी तक साम्प्रदायिक नफ़रत से भरे हुए हैं। इस हालत को लटकाए रखने और तीसरे पक्ष (अंग्रेजों) की दखल की जगह अलग होना बेहतर था।
10 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में उन्होंने कहा,” विभाजन के लिए तब तैयार हुए जब लगा कि हम सब कुछ खो देंगे। हमने विभाजन शर्तों पर स्वीकार किया। वे पूरा पंजाब चाहते थे। हमने उसे विभाजित कराया। वे पूरा बंगाल और कलकत्ता चाहते थे। हमने कहा उसे बांटिए। जिन्ना खंडित पाकिस्तान नही चाहते थे। पर उन्हें निगलना पड़ा। इसके साथ कानून बना कर दो महीने में सत्ता हस्तांतरण की हमने शर्त रखी। हमने इस बात की गारण्टी मांगी की देसी रियासतों के मामले में ब्रिटिश सरकार कोई दख़ल नही देगी।”
देसी रियासतों का मसला जटिल था। छोटी-बड़ी 554 रियासतें।वे अलग आजाद वजूद के सपने संजोए हुए थीं। उन्हें तिरंगे तले लाना सबसे बड़ी चुनौती थी। पटेल इसे लेकर बहुत गंभीर थे। 25 जुलाई 1947 को चैंबर ऑफ प्रिंसेज को संबोधित करते हुए लार्ड माउंटबेटन ने कहा,” भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ने देसी रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपने तमाम दायित्वों से मुक्त कर दिया है। लेकिन अगर कोई नई व्यवस्था स्थान नही लेगी तो सिर्फ अराजकता जन्म लेगी। ऐसी अराजकता सबसे पहले वहां रहने वालों के हितों को चोट पहुंचाएगी।” सलाह दी,” वे अपने नजदीकी देश से रिश्ता कायम करें।” सचेत किया ,” वे अपने पड़ोसी आजाद देश से अलग नही भाग सकते। उस जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से भी नही जिसकी उन पर सीधी जिम्मेदारी है।”
पर माउंटबेटन की सलाह काफी नही थी। वैभव, राज-पाट, अकूत सम्पदा को खुद ही सौंप देना इतना आसान नही था। इन रियासतों के भारत में विलय की जिम्मेदारी सरदार पटेल के कंधों पर थी। बेहद काबिल सेक्रेटरी वी पी मेनन दिन रात उनके साथ थे। पटेल ने इस काम को आजादी की तारीख तक पूरा कर लेना चाहते थे। विलय के लिए राजी होने वाले राजाओं के लिए शर्तें उनके रुतबे और रियासत की हैसियत के मुताबिक अलग-अलग थी। सामान्यता उनकी उपाधियां और झंडे कायम रहने,सलामी जारी रहने,निजी संपत्ति पर अधिकार और सालाना प्रिवी पर्स जैसी सहूलियतें शामिल थीं। जो इन पर भी राजी नही थे,उनके सामने रियासत की जनता का दबाव झेलने की चेतावनी थी। अंग्रेजों का संरक्षण खत्म हो रहा था। विलय से कम की शर्त पर नई बन रही सरकार मदद के लिए तैयार नही थी। कम वक्त में पूरी की जाने वाली यह मुश्किल प्रक्रिया थी। भोपाल के नबाब ने अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम रखने के लिए ब्रिटिश ताज के प्रति अपनी वफ़ादारी की माउंटबेटन को दुहाई दी। तमाम और भी तजबीजें पेश कीं। उधर से मायूस होने पर विलय को राजी हुए। जोधपुर के महाराजा शुरु में भारत के साथ विलय को रजामंद हुए। फिर पाकिस्तान की ओर पेंगें बढ़ाईं। सलाहकारों ने मुस्लिम देश से तालमेल के खतरे गिनाए। राजा फिर भारत की ओर आये। विलय पत्र पर दस्तख़त से पहले वाइसराय के सेक्रेटरी पर उन्होंने पिस्तौल तान दी। गुस्सा थमा तो दस्तख़त कर दिए। देश के सुदूर दक्षिण कोने में त्रावणकोर की समृद्ध रियासत रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। राजा नेपथ्य में थे। कमान एक काबिल वकील और महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री सर पी सी रामास्वामी के हाथों में थी। हर हाल में अलग वजूद के लिए बजिद थे। विलय से इनकार करके रियासत वापस पहुंचे। सेना की वर्दी पहने एक युवक ने उन्हें चाकुओं से घायल कर दिया। हमला करने वाला केरल सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य था। फिर रामास्वामी ने अस्पताल से ही विलय के कागजों पर दस्तख़त की सलाह भेजी। 30 जुलाई को राजा ने दस्तख़त कर दिए। तय तारीख 15 अगस्त तक तीन को छोड़कर शेष रियासतें भारत का हिस्सा बन चुकी थीं। इनमें जूनागढ़ के नबाब ने पाकिस्तान से जुड़ने का प्रस्ताव कर दिया। शुरुआती चुप्पी के बाद पाकिस्तान ने 13 सितम्बर 1947 को इसे मंजूरी दी। जूनागढ़ निवासी साम्बल दास गांधी ( गांधी जी के भतीजे ) की अगुवाई में रियासत की जनता ने अपनी सरकार गठित कर ली। डरे नबाब पाकिस्तान के लिए उड़ लिए। नबाब को अपने कुत्तों से बेहद प्रेम था। अपनी बेगमों को उन्होंने यहीं छोड़ना कुबूल किया। लेकिन जहाज में उनके खजाने के अलावा कुत्ते साथ थे। पाकिस्तान से मोहभंग बाद उन्होंने भारत सरकार को फिर पत्र भेजा। लेकिन उसका जबाब कभी नही मिला। रियासत में जनमत संग्रह में विलय के पक्ष में दो लाख से अधिक और विपक्ष में सिर्फ इक्क्यानवे वोट पड़े। 9 नवम्बर 1947 को उनके प्रधानमंत्री शाहनवाज भुट्टो ( जुल्फिकार भुट्टो के पिता ) ने प्रशासन भारत सरकार को सौंप दिया।
कश्मीर के राजा हरी सिंह ने रियासत पर पाकिस्तानी हमले के बाद 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय का पत्र भेजा। सबसे ज्यादा हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली ने छकाया। रियासत को आजाद रखने की उनकी कोशिशों के बीच वहां कासिम रजबी की अगुवाई में रजाकारों के आतंक का राज था। भारी अशांति-असुरक्षा के बीच जी रही वहां की बहुसंख्य आबादी की मदद की गुहार थी। शेष भारत का हस्तक्षेप का दबाव था। सैन्य हस्तक्षेप की दशा में पाकिस्तानी हमले की आशंका थी। पंडित नेहरु को मामले के सयुंक्त राष्ट्र संघ में उठने की फिक्र थी। पटेल अब और देरी के लिए तैयार नही थे। जिन्ना की मौत के दो दिन बाद भारतीय सेना की टुकड़ी 13 सितम्बर 1948 को हैदराबाद के लिए रवाना हुई। सिर्फ 4 दिन में रियासत भारत कब्जे में थी। दो हजार रजाकार मारे गए। सेना के 42 जवानों की शहादत हुई। 17 सितम्बर को निजाम ने रियासत की जनता को शेष भारत की जनता के साथ शांति से रहने का रेडियो संदेश दिया। छः दिन बाद फिर बयान दिया। कासिम रजबी और उसके लोगों ने हिटलरी तरीके से रियासत पर कब्जा कर आतंक का राज स्थापित कर रखा था। मैं विलय को पहले ही राजी था।
सरदार पटेल, नेहरु मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री थे। कार्य शैली और फैसलों को लेकर उनके नेहरु से मतभेद थे।टकराव भी। पर ये सब देश हित में था। पटेल की गांधी जी में अगाध आस्था थी। उन्हें यह हमेशा याद रहा कि नेहरू गांधी जी की पसंद हैं। आजादी के ठीक पहले 1946 में उन्होंने गांधी जी के कहने पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ी थी। यह जानते हुए कि कांग्रेस अध्यक्ष ही आगे प्रधानमंत्री होगा। उस वक्त 15 राज्यों में 12 ने पटेल का और 2 ने आचार्य कृपलानी के नाम का प्रस्ताव किया था। एक राज्य से कोई प्रस्ताव नही आया था। गांधी जी नेहरु के लिए अध्यक्ष पद चाहते थे। कृपलानी के जरिये अपनी इच्छा की पटेल को उन्होने जानकारी दी। पटेल ने उस इच्छा का आदर किया। लेकिन उनके जीवनकाल में ही दोनो दिग्गजों के बीच टकराव शुरु हो गए। सरकार के मुखिया होने के नाते प्रधानमंत्री के फैसले को आखिरी मानने को पटेल तैयार नही थे। वह प्रधानमंत्री को ,”बराबरी के लोगों में प्रथम ” मानते थे। गांधी जी को दोनो को मतभेदों की जानकारी थी। दुर्भाग्य से इस मसले पर गांधी-नेहरु-पटेल की प्रस्तावित बैठक की तारीख 30 जनवरी 1948 चुनी गई। वह मनहूस तारीख जिस दिन बापू की हत्या कर दी गई। गांधी के बाद दोनों ने फिर एक बार साथ काम करने का संकल्प लिया। हालांकि ये मतभेद बने रहे।
पटेल कश्मीर मुद्दे को सयुंक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के सख्त खिलाफ थे। वह नेहरु की चीन नीति से असहमत थे। चीनी हमले के बारह साल पहले 7 नवम्बर 1950 को उन्होंने नेहरु को लिखा,” चीन की सरकार ने शांतिपूर्ण मंशा के अंधेरे में हमे धोखा देने का प्रयास किया,जबकि हम खुद को चीन का मित्र मानते हैं। पर चीनी हमे अपना दोस्त नही मानते।” तिब्बत पर चीनी कब्जे को लेकर सचेत करते हुए लिखा,” चीन का विस्तार लगभग हमारे दरवाजे पर आ पहुंचा है। स्थिति ऐसी है कि न ही हम आत्म संतुष्ट हो सकते हैं और न ही ढुलमुल रवैय्या अपना सकते हैं।” आगे राष्ट्रपति पद को लेकर दोनों में बड़ा टकराव हुआ। नेहरु उस वक्त गवर्नर जनरल के पद पर काम कर रहे सी राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। पटेल की पसंद डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद थे। वही राष्ट्रपति बने। 1950 में नेहरु की इच्छा के विपरीत राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। टंडन को पटेल का साथ था। इस चुनाव ने नेहरु को काफी खिन्न किया। उन्होंने कहा कि लगता है,मैं अपनी उपयोगिता खो चुका हूं। इस्तीफ़े तक की पेशकश कर दी। इन मतभेदों के बीच भी नेहरु और पटेल का सरकार में साथ बना रहा।
सरदार पटेल की मुस्लिमों को लेकर सोच पर भी सवाल उठते रहे हैं। उन्हें मुस्लिम विरोधी माना गया। दिलचस्प है कि संविधान सभा की अल्पसंख्यक विषयक सलाहकार समिति के अध्यक्ष पटेल ही थे। इस समिति की सर्वसम्मति से की गई सिफारिशों में अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति की रक्षा की गारण्टी शामिल थी। विभाजन के दंगों के दौर में दिल्ली में मारकाट मची हुई थी। पटेल ने माउंटबेटन और नेहरु के साथ बैठक में कहा,” दिल्ली, लाहौर बन जाये, ये मुझे कुबूल नही। उन्होंने दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए। अगले दिन रेलवे स्टेशन पर चार दंगाई हिंदुओं को गोली मार दी गई।” 31 मई 1947 को भारतीय सेना के कमांडर इन चीफ रे बुचर से उन्होंने कहा,” मैं पूरे भारत में मुसलमानों की सलामती और भले की गारंटी लेने को तैयार हूं।” पटेल को मुस्लिम विरोधी बताने वाले उनके अमृतसर और लखनऊ के भाषणों का जिक्र करते हैं। 30 सितम्बर 1947 को उन्होंने अमृतसर में कहा था,”मुझे यकीन नही होता कि यही अमृतसर है, जहां कुछ वर्ष पहले हमने जालियांवाला बाग के शहीदों जिनमे हिन्दू,मुसलमानों और सिखों सबका रक्त शामिल था,के स्मारक बनाने की बात की थी। मैं आपसे एक अपील करने आया हूँ। शहर छोड़कर जा रहे मुसलमानों की हिफाजत का वचन दें। अगर कोई बाधा डालेगा तो हमारे शरणार्थियों की हालत दुःखद हो जाएगी।” पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने शिकायत की, कि पटेल मुसलमानों को पाकिस्तान जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
पटेल ने 6 जनवरी 1948 को लखनऊ में कहा,” मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूँ। फिर भी मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन बताया जाता है। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि भारत के प्रति निष्ठा की महज घोषणा से बात नही बनेगी। उन्हें इसका व्यावहारिक सबूत देना होगा। इसी लखनऊ में दो राष्ट्रों के सिद्धान्त की नींव रखी गई। इस सिद्धांत को फैलाने में शहर के मुसलमानों का भी योगदान रहा है। एक सवाल मैं पूछना चाहता हूं। हाल ही में मुस्लिम कांफ्रेस में कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले पर कुछ क्यों नही बोला गया?मैं दो टूक बता देना चाहता हूं। आप दो घोड़ों की सवारी नही कर सकते!
बेबाक पटेल के भाषण के ठीक अट्ठारह दिन बाद 24 जनवरी 1948 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय के दीक्षांत समारोह में पंडित नेहरु का भाषण था। सेक्युलर, भावुक और संवेदनशील नेहरू ने कहा ,” मुझे अपनी विरासत और पूर्वजों पर नाज है, जिन्होंने भारत को सांस्कृतिक और बौद्धिक महानता प्रदान की। आप इस बारे में क्या महसूस करते हैं? आप अपने को हिस्सेदार मानते हैं? आपको फख्र है कि यह सब आपका भी है या इससे अलग अपने को मानते हैं? मैं यह सवाल इस लिए कर रहा हूँ,क्योंकि हाल के वर्षों में कई ताकतों ने सक्रिय होकर लोगों के दिमाग को गलत चैनेल की ओर डाल दिया है। हम सबका दिमाग साफ होना चाहिए। हम अनिवार्यता सेकुलर राज में यकीन करते हैं,जहां सभी धर्मों और विचारों के लिए स्थान होता है। हम अलग धर्म और आस्था में विश्वास करने वाले हो सकते हैं। पर इससे हमारी सांस्कृतिक विरासत अलग नही हो सकती।”
पटेल ने हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को पागलपन कहते हुए खारिज किया। पर वह सेक्युलर नेता होने का प्रमाणपत्र नही चाहते थे। महात्मा गांधी ने कुछ मुस्लिमों की पटेल की शिकायत के जबाब में कहा था,” कभी- कभी उनका मुंहफट अंदाज गैरइरादतन चोट पहुंचा सकता है लेकिन उनके विशाल हृदय में सबके लिए स्थान है।” पटेल प्रधानमंत्री रहे होते तो क्या कर पाते, यह सवाल अब बेमानी है। आजाद भारत में उन्हें सिर्फ़ चालीस महीने की उम्र मिली। 15 दिसम्बर 1950 को उनका निधन हुआ। इसके साथ ही सत्ता में रहते हुए असहमति की सबसे सशक्त आवाज शांत हो गई। वह आवाज जो नेहरु के बराबर ताकत रखती थी। जो देश हित में नेहरु की नाराजगी की फिक्र किये बिना उठती थी। जिसकी नेहरु पूरी कद्र और इज्ज़त करते थे। ”””’और सत्तर साल बाद भी देश की तमाम मुसीबतों के बीच जब-तब सड़क से सदन तक जिसका जिक्र होता है,”लौह पुरुष ” के नाम से।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।