मैं बचूंगा तो विचार बचेगा, विचारधारा बचेगी। पहले ख़ुद तो बच जाऊं, तब जनतंत्र का सोचूं, वाम-दक्षिण का सोचूं। यह कोरोना ऐसी आफ़त ले कर आया है कि सब की सिट्टी-पिट्टी गुम है। वरना ज़रा-सा कुछ हुआ नहीं कि अपने-अपने जुमलों के लट्ठ ले कर सब नरेंद्र भाई मोदी के पीछे पड़ जाते थे। उनके हर क़दम की समाजशास़्त्रीय विवेचना शुरू हो जाती थी। अब सब का समाज-बोध गायब है। अब सबको सामाजिक दूरी बनाए रखने की पड़ी है। कोई नहीं पूछ रहा कि ‘शारीरिक दूरी’ को ‘सामाजिक दूरी’ कह-कह कर दिमाग़ों में क्या बैठाना चाहते हो?
कोरोना तो चला जाएगा। लेकिन सामाजिक दूरी बनाए रखने का यह भाव जब भीतर तक उतर जाएगा तो उसे कैसे विदा करेंगे? अब तक हम समाजों में बंटे हैं, समुदायों में बंटे हैं, संप्रदायों में बंटे हैं। पता नहीं कौन-से अज्ञात भय से हमारी भुजाएं नाहक ही फड़फड़ाती रहती हैं। अब हम कोरोना-युक्त और कोरोना-मुक्त में भी बंट गए हैं। एक-दूसरे की छींक पर नथुने फुला रहे हैं। एक-दूसरे के ठसके को तिरछी निगाहों से देख रहे हैं। और, यह तो तब है, जब, दुनिया के हालात काबू से बाहर नहीं हैं और भारत के तो पूरी तरह काबू में हैं।
बराए-मेहरबानी गलत न समझें। मगर इतने हो-हल्ले के बीच मैं आपको यह बताने की हिमाकत कर रहा हूं कि भारत में हर 21 हज़ार की आबादी पर कोरोना का एक ही मामला सामने आया है और हर 6 लाख 85 हज़ार की आबादी पर एक व्यक्ति की ही इससे जान गई है। दुनिया में हर 5 हज़ार की जनसंख्या पर कोरोना का एक मरीज़ है और प्रति 81 हजार की आबादी पर एक की मौत हुई है। दुनिया भर में सामने आए कोरोना-मामलों में से 6 प्रतिशत की मृत्यु हुई है। भारत में अभी तक 3 प्रतिशत को ही नहीं बचाया जा सका है।
सो, महामारी-काल में भी भारत पर कु़दरत के इस रहम के बावजूद अगर हम एक-दूसरे को इस क़दर घूर कर देख रहे हैं तो ईश्वर न करे कि हालात और बिगड़ें। वरना कोरोना तो जो करेगा, सो, करेगा, हम वैसे ही आपस में सिर फोड़ चल बसेंगे। जहां-जहां कोरोना थोड़ा बेकाबू हुआ, ढील-पोल के कारण हुआ। हम भी अगर भारत में वक़्त पर चेत जाते तो इतना न भुगतते। तब्लीगी-जमात और थाली-पीट जुलूसों के करतबों की मेहरबानी से घरों में नजरबंदी की मियाद बढ़ गई। वरना समूची व्यवस्था का पहिया थोड़ा पहले फिर घूमना शु्रू कर देता। लेकिन अब तो जून में भी अगर भारत को पूरी तरह कोरोना-मुक्त घोषित कर दिया जाए तो अपने को भाग्यवान समझिए।
इससे ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है कि कोरोना के हमले से भारत उतना छिन्न-भिन्न नहीं हुआ है, जितना दुनिया के बाकी कुछ मुल्क़। दुनिया के साथ-साथ कोरोना ने भारत को भी कम-से-कम पांच साल पीछे धकेल दिया है। अब मेरी इस बात में सियासत मत तलाशिए कि पांच साल हमने ख़ुद को नोट-बंदी से ख़ुद पीछे धकेल ही लिया था। अब हम दुनिया से दस बरस पीछे चले गए हैं। और, ऐसा तो है नहीं कि कोरोना इस साल जाएगा तो अगले साल आएगा ही नहीं। जैसे हर साल सर्दी-जु़काम-फ़्लू का मौसम आता है, कोरोना-महाशय का भी आएगा। उसके आने का डर हमारे बदन की शिराओं में जिस तरह पिरो दिया गया है, वह हमारे घरों के दरवाजे ख़ुद-ब-ख़ुद बंद कर दिया करेगा। इसलिए बचे-खुचे दिनों में दुगनी-तिगुनी मेहनत के लिए तैयार रहिए। अलाली के दिन गए। खपने के दिन आने वाले हैं।
कोरोना न आता तो हमें तो यह पता ही नहीं चलता कि हम नाहक ही कितना डोलते-फिरते थे? अपनी अय्याशगाहों की रचना करते-करते हम ने यह सोचा ही कब कि हमारी बुनियादी व्यवस्थाएं कहां जा रही हैं? क्या इसीलिए हम कोरोना के लायक हो गए थे? घर में हमारे पांव टिकते ही कहां थे? घर का खाना देख कर हम नाक-भौंह सिकोड़ते थे। इधर-उधर हाहाहूहू में रात के दो बजाए बिना घर लौटने को हमारा मन नहीं करता था। क्या इसलिए हमें घरघुस्सू बनाने को कोरोना आया? हमने अपने को किस तरह तामझाम के मकडजाल में फंसा लिया था, हमें मालूम ही कहां था?
जब हमारी शिक्षा व्यवस्था सौदागरों के कब्जे में जा रही थी तो हम दुनिया भर में बिखरे घुड़दौड़ के मैदानों में व्यस्त थे, कैसीनो की गैमिंग-मेज़ों को गुलज़ार कर रहे थे और खेल-कूद पर सट्टा लगा रहे थे। तब हम शेयर बाज़ार के नियंताओं के हाथों अपने हमजोलियों को लुटते ख़ामोशी से देख रहे थे। जब हमारी स्वास्थ्य सुविधाओं का घनघोर व्यवसायीकरण हो रहा था तो हम गोआ से लेकर बैंकाक, मकाऊ और मॉरीशस के समंदर किनारे घूप सेक रहे थे। तब हम कैलेंडर-गर्ल के रचनाकारों को पूज रहे थे। अब आज क्लोरोक्वीन तक को मोहताज़ हो जाने का रोना-धोना क्यों? जब निजी अस्पतालों और बीमा कंपनियों की मिलीभगत हमारा सब-कुछ डकार रही थी, तब हमने आवाज़ उठाई होती तो बात थी।
दुनिया भर में साढ़े पांच हज़ार विमान सेवाएं हैं। 48 हज़ार विमान हैं। इनमें से 4900 निजी विमान हैं। 54 हज़ार हैलीकॉप्टर हैं। 350 के क़रीब क्रूज़-शिप हैं। 10 हज़ार से ज़्यादा सुपर-याच हैं। एक अरब से ज़्यादा कारें हैं। 45 हज़ार आलीशान सात-पांच सितारा होटल तो सिर्फ़ एक दर्जन बड़ी ब्रांड कंपनियों के हैं। लाखों बार-रेस्तरां हैं। इनमें क्या भजन-मंडलियां घूमती-ठहरती हैं? क्या इनमें मैं और आप खाते-पीते हैं? वे कौन हैं, जिनके बूते ये फल-फूल रहे हैं? और, जिनके बूते सैरगाहें फल-फूल रही हैं, वे किन के बूते फल-फूल रहे हैं?
कौन हैं, जिनके लिए इसाबेला इस्ले व्हिस्की की 43 करोड़ रुपए वाली बोतल बनती है? कौन हैं, जिनकी शाम मैकलेन व्हिस्की की सवा चार करोड़ रुपए की बोतल गटके बिना अधूरी रह जाती है? कोई तो हैं, जिनके लिए दुनिया भर में ऐसे वेश्या-रिजॉर्ट मौजूद हैं, जहां अपने निजी विमान और हैलीकॉप्टर से उतरा जा सकता है। कौन हैं, जिन्हें लुई वितां का सात लाख रूपए का जूता भी सस्ता लगता है और जिनके तलवों को 40-50 लाख रुपयों के एयर जॉर्डन, नाइकी और टेस्टोनी के जूतों बिना आराम ही नहीं मिलता है? वे कौन हैं, जो डेसमंड मेरियन के 33 लाख रुपए के सूट को भी गया-बीता समझते हैं और सवा छह करोड़ रुपए का स्टुआर्ट हगेज का सूट पहने बिना अट्टालिका से नीचे नहीं आते? जिनका काम औरोरा, तिबाल्दी, मार्ते ओमास और विस्कोंटी की क़लम जेब में लगाए बिना चलता ही नहीं? जिनकी कलाई के सामने चोपार्ड, पाटेक फिलीपे, पॉल न्यूमेन रॉलेक्स, ब्रेगुएट और जैकब ऐंड कंपनी की घडियां भी पानी भरती हैं और अगर वे ग्रॉफ डायमंड की साढ़े तीन अरब रुपए वाली घड़ी न पहनें तो जिनकी कलाई सूनी रह जाती है?
सवा सौ करोड़ रुपए वाली डेबी की सैंडल पहनने वाली स्त्रियां कौन हैं? वे स्त्रियां कहीं तो होंगी, जिनके लिए सुसान रोज़ेन की सवा दो अरब रुपए की बिकनी बनती है। 15-20 लाख रुपए की लांजरी पहनने वालियों को हेय मानने वाला संसार किस ने बनाया? हम ने तो नहीं। मगर इस संसार को बनने तो हमीं ने दिया है। ईश्वर ने धरती को इसलिए नहीं बनाया था कि हम उस पर सिर्फ़ तफ़रीह करें। सो, भुगतो कोरोना को। अगर इस कोरोना ने अब भी हमारे संसार को नहीं बदला तो आने वाली प्रलय के लिए तैयार रहिए।
सम्प्रति – लेखक वरिष्ठ पत्रकार श्री पंकज शर्मा न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।