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लॉक डाउन-2: कोरोना के साथ आर्थिक-मंदी के रोगाणु भी सक्रिय – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

भारत, कोविड-19 से लड़ाई के दूसरे दौर की शुरूआत में, जबकि देश इक्कीस दिनों के लॉकडाउन-1 की भली-बुरी मजबूर यादों के साथ लॉकडाउन-2 के मुहाने पर खड़ा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 14 अप्रैल को सबेरे 10 बजे केन्द्र सरकार की नई रणनीति का खुलासा करने वाले हैं। कोरोना-एपीसोड का सिलसिला शुरू होने के बाद पिछले पच्चीस दिनों में राष्ट्रीय-स्क्रीन पर मोदी की यह चौथी पेशकश है। इसके पहले वो 19 मार्च को जनता-कर्फ्यू की घोषणा के साथ आम जनता से रूबरू हुए थे। फिर उन्होने 24 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान किया था। उसके बाद उन्होने 2 अप्रैल को नौ मिनट का वीडियो बनाकर राष्ट्रीय एकता की बलैय्या लेते हुए खुद को राष्ट्र के नाम समर्पित किया था। कोरोना के रौद्र तांडव के बीच मोदी के तीनों राष्ट्रीय संबोधनों के ‘कंटेंट’ की सामयिकता, गंभीरता और प्रासंगिता से जुड़े सवालों पर मत-विमत से सोशल मीडिया के पन्ने भरे पड़े हैं। इसे मोदी के आव्हान की सफलता ही माना जाएगा कि कोरोना की कराहों के बावजूद महामारी से लड़ने वाले वीर-बहादुरों के लिए लोगों ने तालियां बजाईं, थालियां बजाईं और देश की एकता के प्रदर्शन के लिए दीए भी जलाए (बोनस में पटाखे फोड़े)।
अब, जबकि कोरोना के मरीज 10 हजार की संख्या पार करने वाले हैं, कोरोना के काले पर्दों के बैक-ड्रॉप में मोदी के चौथे राष्ट्रीय संबोधन को लेकर ‘एक्साइटमेंट’ का इंडेक्स उनके पूर्ववर्ती संबोधनों जितना ऊंचा नहीं है। गौरतलब है कि 24 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी के संबोधन को देश के 20 करोड़ लोगों ने सुना था। मोदी के मैनेजरों ने इसे एक मेगा-इवेंट में तब्दील करने के इंतजाम किए थे। 201 चैनलों ने इसका लाइव-प्रसारण किया था। 19 मार्च को मोदी के कर्फ्यू के ऐलान को 8.3 करोड़ दर्शकों ने सुना था।
राष्ट्रीय-त्रासदी के भीगे क्षणों में राजनीतिक कलाबाजियों की अपनी सीमाएं होती हैं, जो किसी भी राजनेता की नीतियों और नीयत को आसानी से मैला कर देती है। नीति और नीयत में जब मटमैलापन घुलने लगता है तो राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय-एकता के तकाजे रि-बाउंस होने लगते हैं। सच सिर्फ सच होता है। उसका कोई रंग नहीं होता है। सिनेमा की परछाइयों की तरह सच के रंगों को बदलना संभव नही हैं। कोरोना की त्रासदी ने देश में हेल्थ-केयर की असलियत और जरूरतों को उजागर कर दिया है। यह भी साफ कर दिया है कि पांच ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था के हमारे सपनों की हकीकत क्या है?
कोरोना की लड़ाई में आगे की राहें आसान नही हैं। इक्कीस दिन के लॉकडाउन-1 का रक्षा-कवच कितना कारगर रहा है, इसका परीक्षण होना बाकी है। लॉकडाउन-2 की कहानी में कोरोना के वायरस के साथ देश की आर्थिक-मंदी, भुखमरी, बेरोजगारी, बदहाली और सांप्रदायिक-तनाव जैसे रोगाणुओं के इलाज की दरकार परिस्थितियों को पेचीदा बना रही है। कोरोना से लड़ने का दीर्घगामी स्वास्थ्य और आर्थिक व्यवस्थाओं का रोडमैप सरकार के पास नही है। अभी तो सरकार को यह भी पता नहीं है कि चौदह दिन के अगले लॉकडाउन-2 के बाद कोरोना कहर का आकार कितना होगा और लॉकडाउन के चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए उसे कौन-सी रणनीति पर काम करना होगा ?
आम जनता जहनीतौर पर दो सप्ताह के दूसरे लॉकडाउन-2 के लिए तैयार है। वह लॉकडाउन की मजबूरियों को समझ चुकी है कि उसे खुद ही इस बीमारी से बचना होगा और लोगों को बचाना होगा। लेकिन जनता का जहन सवालों से मुक्त नहीं है। कई सवाल लोगों के दिलो-दिमाग में कुलबुला रहे हैं। इस लड़ाई में केन्द्र और राज्य-सरकारों का रूख उसने देख लिया है। कोरोना से लड़ने के सरकारी-संसाधन की फजीहत को भी जनता ने भुगत लिया है। यह किसी से छिपा नही है कि कोरोना की जांचों को किस प्रकार टाला जा रहा है? अस्पतालों की कमी भी उजागर हो चुकी है।
सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मोदी क्या लोगों को परेशान करने वाले सवालों को एड्रेस करेंगे? देश के सवालों की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के भाषणों का आकलन दर्शाता है कि मोदी देश के उन सत्तर प्रतिशत लोगों के सवालों को कभी भी एड्रेस नही करते हैं, जो उनके मतदाता नही हैं। कोरोना जैसी महामारी को सांप्रदायिकता का कफन पहनाने वाली गतिविधियां मोदी को कभी परेशान नही करती हैं। पहले भी और अभी भी सामाजिक वैमनस्य से जुड़े ऐसे मामलों में उनकी रणनीतिक-चुप्पी देश के भविष्य को कितना निरापद बनाएगी, यह लोगों को सोचना होगा। देश का अर्थ-शास्त्र घुटने टेक रहा है। आर्थिक-मंदी दरवाजे पर दस्तक दे रही है, बेरोजगारी का भूत सामने खड़ा है, भूख की लपटें दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही हैं। मुद्दा यह है कि मोदी संबोधन में किन सवालों को शरीक करेंगे? फिर भी मोदी चौंकाते हैं और कोरोना की कराहों के आर्तनाद में उनके राष्ट्रवादी मुहावरों में कितने सवालों का जवाब मिलेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 14 अप्रैल 20  के अंक में प्रकाशित हुआ है।