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कोरोना के मानवीय तकाजों के आईने में मोदी का भाषण – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

कोरोना एपिसोड के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चौथे राष्ट्रीय संबोधन के कुछ घंटों के भीतर ही मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर हजारों प्रवासी मजूदरों के उग्र महापलायन की घटना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आम लोगों के विश्‍वास के दायरे तेजी से सिकुड़ने लगे हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे का यह ट्वीट काफी कुछ बयां करता है कि- ‘सिर्फ बांद्रा में नहीं, सूरत में भी दंगा हो रहा है। यह केन्द्र सरकार द्वारा प्रवासी मजदूरों के लिए घर वापसी की व्यवस्था करने में सक्षम नहीं होने का एक परिणाम है। ये प्रवासी मजदूर भोजन या आश्रय नहीं चाहते हैं, वो घर वापस जाना चाहते हैं’। लाठी-गोली के माध्यम से भूख-प्यास से परेशान भीड़ का विसर्जन गहराती समस्या का समाधान नहीं हैं। संकट के समय परदेसी होने का मानसिक दबाव, अनिश्‍चितता और असमंजस पेट की आग को कई गुना विकराल और भयावह बना देता है। क्षेत्रीयता, स्थानीयता और अस्मिता की राजनीति ने अपने देश में ही परदेसी और पराए होने की भावनाओं को घनीभूत किया है।
संकट के समय अपनों का साथ और अपने घर का एहसास सबसे बड़ा सुरक्षा-बोध होता है। इसी कारण लोग सड़कों पर उतर पड़े हैं। लॉकडाउन-1 के वक्त ही दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों के प्रवासी मजदूरों की भयातुर भाव-भंगिमाओं का तूफान सड़कों पर उफन पड़ा था। समझना मुश्किल है कि केन्द्र सरकार इस गहन मानवीय समस्या की गहराइयों को कैसे और कितना आंक रही है?
कोरोना से जुड़ी समस्याओं के कई पहलू हैं। भरोसा था कि लॉकडाउन-2 के पहले केन्द्र सरकार उन सभी त्रासद समस्याओं को ध्यान में रखकर कार्य योजना बनाएगी, जो आम जनता भुगत चुकी है। लेकिन राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चौथी प्रस्तुति में भूख-प्यास, रुपए-पैसे और बेरोजगारी से तरबतर वो सवाल हाशिए पर नजर आए, जिनको लेकर देश का गरीब अवाम बुरी तरह बेचैन और बेताब था। प्रवासी मजदूरों का तबका लॉकडाउन के दरम्यान सबसे ज्यादा बदहाली और भुखमरी का शिकार हुआ है। लॉकडाउन-2 की घोषणा के वक्त प्रधानमंत्री मोदी प्रवासी मजदूरों में वह विश्‍वास पैदा नहीं कर सके, जो जरूरी था। प्रवासी मजदूरों को लगता है कि उन्हें अनदेखा और अनसुना किया जा रहा है। बांद्रा की घटना इसकी परिचायक है।
वैसे भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अंदाजे-बयां में उनकी आत्म-मुग्धता उनके शब्दों से आगे चलती हैं। आत्म-मुग्धता गफलत भी पैदा करती है। मोदी अपने तरीके से तथ्यों को परोसते है और मानते है कि लोग उस पर विश्‍वास करेंगे। गौरतलब है कि लोग आंख मूंद कर उनकी बातों पर विश्‍वास भी करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में उन्हें किसी भी बात को कहने से पहले उसे तथ्यों की कसौटी पर कड़ाई से तौलना चाहिए। जैसे कि मंगलवार के संबोधन में मोदी ने यह बताया कि बड़े और विकसित राष्ट्र की तुलना में उनकी सरकार ने ज्यादा कारगर तरीके से कोरोना से निपटा है। जब हमारे यहां कोरोना का एक भी केस नहीं था, भारत ने कोरोना प्रभावित देशों से आने वाले यात्रियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी थी। भारत में जब मरीजों की संख्या सौ का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी, विदेशों से आने वाले यात्रियों के लिए 14 दिनों का आइसोलेशन अनिवार्य कर दिया गया था। दूसरा, विकसित राष्ट्रों की तुलना में भारत में कोरोना के मरीजों की संख्या काफी कम बताते वक्त मोदी यह तुलना करना भूल गए कि वहां कोरोना पीड़ित टेस्ट की व्यवस्था और आंकड़ा क्या है?
बकौल मोदी, इक्कीस दिन का लॉकडाउन लागू करने के मामले में भी सरकार ने बिल्कुल देरी नहीं की। कोरोना घटनाओं की क्रोनोलॉजी और तथ्यों की पड़ताल मोदी के भाषण में प्रस्तुत इन तथ्यों से असहमत नजर आती है। राष्ट्रीय त्रासदी के क्षणों में प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय-उद्बोधनों की गंभीरता को कमतर करना कभी भी मुनासिब नहीं माना जाता है, लेकिन तथ्यों में शब्दों की हेरा-फेरी भी कई मर्तबा मुसीबत का सबब बन जाती है। विदेशी यात्रियों के स्क्रीनिंग की हकीकत यह कहती है कि 8 जनवरी से 23 मार्च तक 15 लाख विदेशी यात्री भारत आए थे, जिन्हें क्वारेंटाइन किया जाना था, लेकिन केन्द्र के साथ राज्य सरकारें इसके प्रति लापरवाह बनी रहीं।
वैसे केन्द्र सरकार लॉकडाउन-2 के दरम्यान उठाए जाने वाले कदमों के संबंध में बुधवार को गाइडलाइन जारी करने वाली है। गाइडलाइन जारी होने के बाद यह पता चल सकेगा कि लोगों के लिए सरकार कितने पुख्ता और परिपक्व कदम उठाने जा रही है। फिलवक्त हेल्थकेयर का ढांचा आश्‍वस्त करने वाला नहीं है। अर्थव्यवस्था पर प्रधानमंत्री की खामोशी चिंता पैदा करने वाली है। पिछले शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी ने नारा दिया था- ‘जान है तो जहान है’। लेकिन मंगलवार के राष्ट्रीय उदबोधन में उनके शब्दों में जहान खो गया था। मोदी ने यह नहीं बताया कि पहले लॉकडाउन में जिन मजदूरों के भूख सहने की क्षमता खत्म हो चुकी है, उनके लिए वो क्या करने वाले हैं? चिकित्साकर्मियों की सुरक्षा की जरूरतों को कैसे पूरा किया जाएगा? लॉकडाउन-1 के बीते 21 दिनों में देश की आर्थिकी 63 बिलियन डॉलर का नुकसान सह चुकी है। लॉकडाउन-2 की पूर्णाहुति के समय महामारी की आग में 120 बिलियन डॉलर स्वाहा हो चुके होंगे। इन भयावह सच्चाइयों के मामलों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आश्‍चर्यजनक खामोशी ओढ़े हुए हैं।

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 15 अप्रैल 20  के अंक में प्रकाशित हुआ है।