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‘घर-वापसी’ के सवालों में घिरा ‘पीएम केअर्स फंड’ का इस्तेमाल – उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

कोविड-19 के दरम्यान तबलीगी जमात, सेना की पुष्प वर्षा और राष्ट्रीय एकता की मजबूती से जुड़े घटनाक्रमों के बीच हाशिए पर खड़े घर वापसी के लिए परेशान करोड़ों प्रवासी मजदूर एकाएक राजनीति और मीडिया के मेन-स्ट्रीम में सुर्खियां बटोरने लगे हैं। सबब यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि उनका संगठन श्रमिकों की घर वापसी का सारा खर्च वहन करेगा, क्योंकि रेल मंत्रालय खाली हाथ और भूखे पेट प्रवासी मजदूरों से घर-वापसी के लिए रेल भाड़ा अथवा आने-जाने का खर्च वसूल रहा हैं, जबकि घर वापसी का इंतजाम केन्द्र को करना चाहिए। मोदी प्रधानमंत्री केअर्स फंड मे जमा हजारों करोड़ रुपयों का इस्तेमाल मजदूरों के लिए क्यों नहीं कर रहे हैं ?
मजदूरों को केन्द्र सरकार ने लॉक डाउन के तीसरे चरण में घर लौटने की इजाजत दी थी। प्रवासी मजदूरों के साथ केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के अमानवीय सलूक के किस्से किसी से छिपे नहीं है। कोरोना से दहशतजदा मजदूरों के साथ लाठी चार्ज, मारपीट और गिरफ्तारियों की बेदर्द कहानियों के शीर्षक लोगों के जहन में अभी भी ताजा है।
प्रवासी मजदूरों से रेल किराए की मांग के बाद केन्द्र सरकार के प्रवक्ता बगलें झांक रहे हैं। सोनिया गांधी की इस पहल ने कोरोना के विमर्श को नया मोड़ दे दिया है। राष्ट्रीय विपदा के नाम पर कोरोना के मामलों में केन्द्र सरकार की भूमिका को राजनीतिक सवालों से परे रखने की कोशिशों को झटका सा लगा है। सत्ता के गलियारों में सरकार के पैरोकार की अमृत वाणी और राष्ट्रवादी मुहावरे सन्नाटों की चुप्पी फांक रहे हैं । सेना व्दारा कोरोना वाॅरियर्स पर पुष्प वर्षा की राष्ट्रीय-आयोजन के अगले दिन ही प्रवासी मजदूरों की घर-वापसी ‘लुटियंस’ के गले में फांस बनकर अटक गई है।
बकौल सी-वोटर कोविड-19 के दूसरे लॉकडाउन के दरम्यान हुए सर्वेक्षणों मे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लोकप्रियता के सर्वोच्च मचान पर खड़े हैं। सी-वोटर के सर्वेक्षण में 93.3 फीसदी लोगों ने माना है कि कोरोना से निपटने के मामले में मोदी ठीक तरीके से काम कर रहे हैं। बहरहाल, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस सर्वेक्षण में घर वापसी के लिए परेशान करोड़ों प्रवासी श्रमिक और स्थानीय मजदूर शरीक किया गया हैं अथवा नहीं? वैसे कोरोना के रोड मैप में प्रवासी मजदूरों के लिए कोई पगडंडी नहीं छोड़ी गई थी। लॉकडाउन के बाद श्रमिकों का दहशतजदा पलायन उनकी अनदेखी और नगण्य होने का पुख्ता परिस्थितिजन्य साक्ष्य है।
वोटों की राजनीति भी कोरोना प्लान में श्रमिकों की अनदेखी की बड़ी वजह है। भारत में 90 प्रतिशत रोजगारों का निर्माण अनौपचारिक सेक्टर में होता है। त्रासद यह है कि अनौपचारिक रोजगार मे जुटे ये बंदे किसी भी ‘पाॅलिटिकल कांस्टीट्यूएंसी’ का हिस्सा नहीं होते है। इसलिए इनका कोई खैरख्वाह भी नहीं होता है। भारत के संसदीय प्रणाली और कानून-व्यवस्था में ऐसा कोई प्लेटफार्म उपलब्ध नहीं है, जहां ये लोग अपनी बात रख सकें। ये लोग काम कहीं करते हैं, और मतदाता-सूची में इनका नाम कहीं और होता है। यही वजह है कि इन करोड़ो मजदूरों को चार घंटो की अल्प-सूचना पर लॉकडाउन के नाम पर रोटी और रोजगार से महरूम कर दिया गया और कहीं कोई आवाज नहीं उठी। जबकि संख्या के लिहाज से (2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक) भारत में 10 करोड़ प्रवासी मजदूर बसते हैं।
मानव-शक्ति के रूप में भारतीय कामगार मजदूरों की संख्या करीब 47.1 करोड़ है, जिनमें 80 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। कोरोना के सोशल-डिस्टेंसिंग के मद्देनजर हालात कितने दर्दनाक है कि 37 प्रतिशत लोग एक कमरे के मकान में रहते हैं। दो कमरों के मकानों मे रहने वालों का आंकड़ा 32 फीसदी है। केन्द्र सरकार ने इस मुद्दे पर गौर ही नहीं किया कि कोरोना से संघर्ष में इन लोगों की ओर विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है। घोर गरीबी से संघर्ष करने वाले देश के प्रधानमंत्री मोदी के ध्यान में पचास करोड़ मजदूरों की भुखमरी और बेरोजगारी का नहीं आ पाना आश्चर्य पैदा करता है।
सोनिया ने कोरोना अथवा देश की आर्थिक नीतियों से जुड़े मसलों के विमर्श को गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी के उन सवालों की ओर मोड़ दिया है, जो देश की बुनियादी समस्याओं को एड्रेस करते हैं। केन्द्र सरकार शायद गौर करेगी कि कोरोना संकट महज सोशल मीडिया का मिडिल क्लास शगल नहीं है, जिससे ‘लॉकडाउन’ या ‘क्वारेन्टाइन’ रसोई में पकवान बनाने की ‘रेसिपी’ और ‘नेटफ्लिक्स’ के सनसनीखेज सीरियल्स अथवा रामायण-महाभारत के पुनर्प्रसारण के सहारे में निपट लिया जाए। प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी जैसे मुद्दे उन गहन मानवीय सवालों की जरूरतों की ओर इशारा करते हैं, जो सरकार की प्राथमिकताओं से ओझल हो चुके हैं। सोनिया ने इस माध्यम से गरीबों और साधनहीन मजदूरों को एड्रेस करने की कोशिश की है, जो कांग्रेस की ‘कोर-कांस्टीट्यूएंसी’ मानी जाती है। बजरिए मिडिल क्लास ट्रोल-आर्मी सोशल मीडिया और गोदी मीडिया में मजदूरों से जुड़े सोनिया गांधी के सवालों पर सवालों की गोलाबारी शुरू हो गई है। लेकिन मजदूरों के हित में सोनिया की इस पहल को नैतिकता का आधार हासिल है, क्योंकि ‘राइट टु एज्युकेशन, राइट टु फुड, राइट टु इन्फॉर्मेशन जैसे कानून यूपीए कार्यकाल की देन हैं। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में भले ही इन कानूनों के दायरे सिमटने लगे हों, लेकिन जनहित और गरीबों से जुड़े कानूनों की जरूरत हमेशा बनी रहती है। कोई भी सरकार उसे नजरअंदाज करके समर्थ नहीं हो सकती है…।

 

सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 05  मई के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह संपादक भी रह चुके है।