जूनागढ़ ने सरदार पटेल की कश्मीर को लेकर सोच बदली। जूनागढ़ और हैदराबाद हिन्दू बहुल आबादी और मुस्लिम शासित रियासतें। कश्मीर मुस्लिम बहुल और हिन्दू शासक। 15 अगस्त 1947 तक इन तीनो रियासतों का मसला हल नही हो सका था। पटेल की प्राथमिकताओं में जूनागढ़ और हैदराबाद थे। पण्डित नेहरु की जड़ें कश्मीर में थीं। शेख अब्दुल्ला की दोस्ती ने इस लगाव को और बढ़ाया था। 3337 वर्ग मील में फैली जूनागढ़ रियासत की लगभग सात लाख आबादी में अस्सी फीसद हिन्दू थे। नबाब थे महाबत खान रसूलखानजी। हिंदुओं की आस्था का पवित्र केंद्र सोमनाथ मन्दिर इसी रियासत का हिस्सा था। मई 1947 में जिन्ना के खास शाहनवाज भुट्टो (जुल्फिकार अली भुट्टो के पिता ) रियासत के दीवान बने। 15 अगस्त तक रियासत ने खामोशी अख्तियार रखी। 17 अगस्त को जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय की घोषणा की खबर सरदार पटेल ने अखबार में पढ़ी। विदेश मंत्रालय को उन्होंने पाकिस्तान का रुख जानने के लिए कहा। 13 सितम्बर को पाकिस्तान ने विलय को मंजूरी दे दी। जूनागढ़ का सड़क मार्ग से पाकिस्तान से कोई कोई सम्पर्क नही था। लगभग हर ओर से भारतीय भूक्षेत्र से घिरी काठियावाड़ इलाके की इस रियासत के दक्षिण और दक्षिण पश्चिम में अरब सागर फैला है। यहां के वरावल पोर्ट से पाकिस्तान की दूरी तीन सौ मील है। माउन्टबेटन की मौजूदगी में एक बैठक में पण्डित नेहरु ने पाकिस्तान के फैसले को ठुकरा दिया। नेहरु ने कहा जूनागढ़ का फैसला वहाँ की जनता जनमत संग्रह के जरिये करेगी। माउन्टबेटन ने इसमें जोड़ दिया कि इस सिद्धांत को अन्य रियासतों के लिए भी लागू किया जाएगा। लियाकत खान की आंखे कश्मीर के लिये चमकीं। नेहरु ने कश्मीर हाथ से निकलने की आशंका में दुःख के साथ सिर हिलाया। जनमतसंग्रह की पेचीदगियों को पटेल भांप रहे थे। उन्होंने कहा कश्मीर के साथ हैदराबाद और जूनागढ़ में भी जनमत संग्रह कराना होगा। जिन्ना हैदराबाद और जूनागढ़ के लिए रजामन्द नही थे।
विदेश मंत्री के नाते जूनागढ़ पर पंडित नेहरु को बात करनी थी। पर ये जिम्मेदारी पटेल ने संभाली। कैबिनेट की सहमति थी। लेकिन पटेल निर्णायक थे। 19 सितम्बर 1947 को पटेल ने अपने भरोसेमंद वी पी मेनन को जूनागढ़ भेजा। बहुत कोशिश के बाद भी भुट्टो ने मेनन की नबाब से मुलाकात नही होने दी। उनकी बीमारी का बहाना बनाया। नबाब के बेटे से भेंट की पेशकश उन्होंने क्रिकेट मैच में व्यस्तता के हवाले से टाली। मेनन ने भुट्टो को टालू पाया। इस समय तक नबाब पूरी तौर पर मुस्लिम लीग से जुड़े भुट्टो की मुठ्ठी में थे। उन्हीं की आंख-कान से देख-सुन रहे थे। नबाब को रियासत के कामकाज से ज्यादा अपने कुत्तों में दिलचस्पी थी। कुत्तों के एक जोड़े की उन्होंने धूमधाम से शाही शादी की थी। मौके को यादगार बनाने के लिए रियासत में राजकीय छुट्टी भी कर दी थी। 24 सितम्बर को पटेल ने जूनागढ़ की सीमा पर सेना तैनात कर दी। पटेल की शह पर बम्बई में इकट्ठा हुए जूनागढ़ और काठियावाड़ के तमाम लोगों ने गाँधीजी के रिश्तेदार सामल दास गांधी की अगुवाई में अराजी हुकूमत का एलान किया। पाकिस्तान विलय रद्द करे, इसके लिए पटेल ने चार हफ़्ते इंतजार किया। इस बीच जूनागढ़ की दो जागीरें मनगरोल और बावरियावाड भारत में शामिल हो गईं। मनावादर के जागीरदार खान ने कुछ स्थानीय लोगों को गिरफ्तार कर लिया। कैबिनेट ने 21 अक्टूबर को तीनों जागीरों के भारत में विलय को मंजूरी दे दी। माउन्टबेटन सेना के इस्तेमाल के खिलाफ़ थे। वह सीआरपी भेजना चाहते थे। पटेल अडिग थे। 22 अक्टूबर को सेना ने मनावादर को कब्जे में ले लिया। 1 नवम्बर को अराजी हुकूमत के लोग जूनागढ़ में दाखिल हो गए। नबाब खतरा भांप कर अक्टूबर के आखिर में नकदी-जेवर,बेगमों और और कई कुत्ते जिन्हें वे सबसे ज्यादा प्यार करते थे, को लेकर पाकिस्तान के लिए उड़ चुके थे। हवाई जहाज में बैठते समय पता चला कि एक बेगम का बच्चा छूट गया है। नबाब इंतजार के लिए तैयार नही थे। वह बेगम यहीं छूट गईं। इसके पहले 27 अक्टूबर को दीवान भुट्टो ने मायूसी के साथ जिन्ना को लिखा कि यहां की हालत खराब है। नबाब साहब को रियासत छोड़नी पड़ी। स्थानीय मुसलमानों में भी पाकिस्तान को लेकर कोई उत्साह नही है। दो नवम्बर को अराजी हुकूमत ने रियासत पर कब्जा कर लिया। 7 नवम्बर को भुट्टों ने पहले सामल दास गांधी को फिर 8 नवम्बर को भारत सरकार को रियासत सौंपने का औपचारिक पत्र लिखा।
रीजनल कमिश्नर एन एम बुच ने वी पी मेनन को उसी रात भुट्टो के पत्र की जानकारी दी। पण्डित नेहरु उस समय माउन्टबेटन के साथ डिनर पर थे। मेनन ने उसी बीच उन्हें जूनागढ़ के ताजा घटनाक्रम की जानकारी दी। माउन्टबेटन और नेहरु के कहने पर मेनन ने पाकिस्तान सरकार को लिखा कि जनता की इच्छा जानने के बाद ही भारत जूनागढ़ को अपने में शामिल करेगा। मेनन ने देर रात पटेल को जगाया। पटेल ने जनमतसंग्रह के किसी भी प्रस्ताव का प्रबल विरोध किया। कायर तक कहा। बहुत समझाने पर जनमत संग्रह के लिए उन्होंने ” मैत्रीपूर्ण स्थिति ” की शर्त जोड़ने के बाद अपनी सहमति दी। 9 नवम्बर को ब्रिगेडियर गुरुदयाल सिंह की अगुवाई में सेना जूनागढ़ में दाखिल हुई। रियासत की सेना ने समर्पण किया। अराजकता खत्म हुई। शांति स्थापित हुई। सरकार ने वहाँ की प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए तेजी से इन्तजाम किये। इंतजामों में नबाब के छूट गए कुत्तों से छुटकारा लेना शामिल था, जिन पर उस दौर में सोलह हजार महीने का खर्च था।
चार दिन बाद 13 नवम्बर को पटेल जूनागढ़ पहुंचे। कहा कि हैदराबाद अगर दीवार पर लिखी इबारत नही पढ़ रहा तो जूनागढ़ के रास्ते जाएगा। भारी भीड़ वाली इस सभा मे भारत के समर्थन में हर हाथ उठा। पटेल ने कहा कि अब किसी और जनमत संग्रह की जरूरत नही। 20 फरवरी 1948 को फिर भी जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ। 2,01,457 में से 1,90,870 वोटरों ने अपने अधिकार का इस्तेमाल किया। केवल 91 ने पाकिस्तान के पक्ष में वोट दिया। मनावादर, मनगरोल और बावरियावाड़ में 31,434 वोटरों में केवल 39 ने पाकिस्तान का समर्थन किया। नबाब के हाथ से बाजी निकल चुकी थी। पाकिस्तान में उन्होंने भारतीय राजदूत श्रीप्रकाश से भेंट की। भारत सरकार की हर पेशकश को मंजूर करने के लिए सिर झुकाया। पर देर हो चुकी थी। राजदूत को कोई वादा न करने का निर्देश मिला। पटेल पाकिस्तान की चाल विफ़ल कर चुके थे। जूनागढ़ पर पाकिस्तान के रवैय्ये ने पटेल की कश्मीर में दिलचस्पी बढ़ा दी। अब उन्हें कश्मीर और हैदराबाद की फ़िक्र थी।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर पिछले कुछ समय से लगातार लिख रहे है।