(जन्मदिन 23 जुलाई पर विशेष)
1921 में संस्कृत विद्यालय बनारस पर धरना देते समय अनेक सत्याग्रहियों के साथ आजाद भी पकड़े गए थे। तब वह चन्द्र शेखर तिवारी हुआ करते थे। खरे घाट की अदालत में मुकदमा चला। नाम पूछने पर ” आजाद” बताया। पिता का नाम “स्वाधीन” घर का पता “जेल”। 15 साल की उम्र थी। 15 बेंतों की सजा मिली। इन 15 बेंतों की चोट-घाव मामूली नही होते थे। आजाद के साथी क्रांतिकारी विश्वनाथ वैशम्पायन ने आजाद के मुख से उस सजा की कथा सुनी थी। वे घाव भी देखे थे। अपनी पुस्तक ” अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद ” में उन्होंने उस प्रसंग की चर्चा की है।
उस वक्त गण्डा सिंह सेंट्रल जेल के जेलर थे। आजाद की कम उम्र देखते हुए उन्हें काफी समझाया गया कि माफ़ी मांग लें। वह अडिग रहे। हर बेंत की चोट के जबाब में उन्होंने महात्मा गांधी की जय। भारतमाता की जय। वन्देमातरम जैसे देशभक्ति के नारे लगाकर अपने साहस और देशभक्ति का परिचय दिया। सजा में इस्तेमाल किये जाने वाले बेंत लम्बे और काफी पतले होते थे। गन्दे पानी में भीगते रहते थे। इन्हें ” कसूरी बेंत ” कहते थे। मेहतर नम्बरदार बेंत की सजा देता था। जिस दिन वह यह सजा देता उसे जेल अस्पताल से सेर भर दूध मिलता। वह सजा देने के पहले से ही पेड़ पर टाट के गद्दे बांधकर अभ्यास शुरु कर देता। जिस कैदी को बेंत लगते, उसे नंगा करके एक छोटा झीना सा कपड़ा लपेटने को दे दिया जाता। फिर पेट के बल कैदी को एक टिकटी से बांध दिया जाता, ताकि वह हिल-डुल न सके। ये टिकटी पेड़ से बांधी जाती थी। बेंत लगाने से पहले डॉक्टरी होती। दिल की बीमारी होने पर सजा कुछ टाल दी जाती। पेशेवर अपराधी आमतौर पर बेंतों की पीड़ा कम करने के लिए चरस-गांजा पी लेते। पैसे वाले सम्भाल कर मारने के लिए पैसे देते। ये सजा इतनी भयंकर होती कि सजा पाने वाला कैदी महीनों पीठ के बल लेट नही पाता। जोश से भरे आजाद बेफ़िक्र थे। मेहतर ने पूरी तैयारी और पूरी ताकत से पृष्ठभाग पर प्रहार किए। अकथनीय पीड़ा और बहते रक्त से बेख़बर आजाद ने हँसते हुए ये यातना झेली। घावों पर जेल डॉक्टर ने दवा लगाई, पर रक्त नही रुका। सजा के बाद जेल से निकलते हुए उन्हें जेल प्रशासन ने तीन आने दिए। उसे उन्होंने जेलर के मुहँ पर फेंक दिया। किसी तरह घिसटते हुए अपने रुकने के स्थान पर पहुँचे। सराय गोबर्धन में गौरी शंकर शास्त्री ने घाव भरने तक उनकी सेवा की। उनका काशी में ज्ञानवापी पर भव्य स्वागत हुआ था। भारी भीड़ उसमें उमड़ी थी। भीड़ उन्हें देख नही पा रही थी, इसलिए उन्हें एक मेज पर खड़ा किया गया था। उसी समय चरखे के पास खड़ा करके उनका एक चित्र लिया गया था। ये चित्र 1963 में प्रकाश में आया। वैशम्पायन जी के अनुसार आजाद ने अपने जीवनकाल में इस चित्र की कभी चर्चा नही की थी। हम लोग यही जानते थे कि झांसी में मास्टर रुद्रनारायण द्वारा लिए गए दो चित्रों के अतिरिक्त उनका कभी कोई चित्र नही लिया गया। 1963 में मीरजापुर में आजाद की प्रतिमा के स्थापना कार्यक्रम में इसकी चर्चा हुई। जानकारी मिली कि बनारस में वैद्य शिव विनायक मिश्र हैं, जो बताते हैं कि उन्होंने ही आजाद का अंतिम संस्कार किया था। आजाद के साथी वैशम्पायन ,भगवान दास माहौर, शचीन्द्र नाथ बख्शी, सदाशिव राव मलकापुरकर उनसे भेंट करने गए। वैद्यजी एक अलबम लेकर आये। बचपन का चित्र था। साथी तुरन्त पहचान गए। वैद्यजी ने बताया कि बेंत की सजा के बाद यह चित्र खींचा गया था।” मर्यादा” पत्रिका में छपा भी। क्रांतिकारी के तौर पर आजाद के मशहूर होने के बाद वैद्यजी ने रामपंचायतन के पीछे इसे छिपा दिया था। वैद्यजी कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। पुलिस अक्सर उनके यहां छापेमारी करती रहती थी। वैद्यजी ने आजाद की अस्थियाँ सुरक्षित रखी थीं। क्रांतिकारी साथियों को दर्शन कराए। उनके पास 1931 के अखबारों की कतरनें थीं। उससे पुष्टि हुई कि आजाद का अन्तिम संस्कार उन्होंने ही किया।
आजाद का मातृभूमि के प्रति समर्पण अद्भुत था। आजादी की लड़ाई में जुड़ने के साथ वह सारे पारिवारिक रिश्ते-नाते भूल गए। सिर्फ और सिर्फ एक नाता भारतमाता से। जिन्दगी का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मकसद भारतमाता को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराना। 1930 में आजाद कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी जी के सम्पर्क में थे। विद्यार्थी जी को जानकारी मिली कि आजाद के माता-पिता गांव भावरा में बहुत ही आर्थिक संकट में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। विद्यार्थी जी ने आजाद को घर भेजने के लिए दो सौ रुपये दिए। आजाद ने वे रुपये पार्टी के काम में लगा दिए। कुछ दिन बाद विद्यार्थी जी ने रुपये घर भेजने की जानकारी मांगी। आजाद ने कहा,” मेरे माता-पिता को तो फिर एक समय भोजन मिल जाता है। देश में तो लाखों-लाख ऐसे परिवार हैं, जिन्हें एक समय भी भोजन नसीब नही होता। माता-पिता का भूखा रहना मुझे मंजूर है लेकिन देश की आजादी के लिए लड़ने-जूझने वाले साथियों का भूखा रहना मैं बर्दाश्त नही कर सकता।” संगठन और साथियों के प्रति मेरी पहली और आखिरी जिम्मेदारी है, कहते हुए आजाद वहाँ से उठकर चले गए।
हर क्रांतिकारी एक्शन में आगे-आगे रहने वाले आजाद का साहस-शौर्य-संगठन कौशल सब अप्रतिम था। वह और उनके साथी जीते जी देश को जगाने के लिए प्राणों की परवाह किये बिना बड़े से बड़े साहसिक अभियानों को अंजाम देते रहे। फिर हंसते हुए बलिदान देकर अगली पीढ़ियों को उन यादों की रोशनी में अंधेरे का सीना चीरने का हौसला दे गए। … और आजाद! उनके तो जीते जी फिरंगी नजदीक नही पहुँच पाए। नाम आजाद था तो आखिरी वक्त तक आजाद ही रहे। उन आजाद और तमाम महान क्रन्तिकारियों को इसकी फ़िक्र कहाँ थी कि उनका इस आजादी में क्या योगदान माना जायेगा ? उन्हें कैसे याद किया जायेगा, इसे सोचने की कहाँ थी फुर्सत ? वे थोड़ा सा जिये। पर मन से देश के लिए जिये। मरे तो देश के लिए मरकर अमर हो गए। झांकिए… वे दिल में हैं। नमन।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर पिछले कुछ समय से लगातार लिख रहे है।