भारत सरकार ने सेन्ट्रल रूल ऑफ 2007 जो 2008 में अधिसूचित हुये थे,में संशोधन किया है। इसमें से दो संशोधन विशेष महत्व के एवं चर्चा योग्य है। क्योंकि इनका प्रभाव संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकारों के विपरीत हो सकता है।पहला संशोधन यह है कि 2008 की अधिसूचना में विभागीय गोपनीयता शब्द का इस्तेमाल किया गया था। यानी जो विभाग इस अधिसूचित अधिसूचना के अन्तर्गत आते थे उनमें कार्य कर चुके सेवानिवृत होने वाले बड़े अधिकारी विभाग के बारे में कोई गोपनीय या अन्य प्रकार से महत्वपूर्ण जानकारी बगैर अनुमति के सार्वजनिक नहीं कर सकते है। सन 2008 में कांग्रेस सरकार के जमाने में यह नियम बनाया गया था। यद्यपि इस नियम की भी कोई आवश्यकता नहीं थी और यह भी लोकतांत्रिक तथा संवैधानिक कसौटी पर प्रतिकूल ही माना जायेगा।
चूंकि शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारी नगण्य अपवाद छोड़ दें तो आमतौर पर कायर और अवसरवादी होते हैं। कायर और अवसरवादी से मेरा तात्पर्य है कि ये जब तक पद पर रहते है तो सत्ताधीशों और राजनैतिक बाहुबलियों की गुलामी करते है। और बाद में जब सेवानिवृत हो जाते है तो कुछ दस्तावेज़ जिन्हें वे अनधिकृत ढंग से अपने पास रख लेते है, और कुछ सूचनाएं जो उन्हें प्रचार तंत्र में जारी करने से लाभ मिल सके के लिए एक अर्थ में बेचते है। वैसे भी नौकरशाहों को बड़े राजनैतिक पदों पर रखने की परंपरा शुरू करने का अपराध कांग्रेस पार्टी ने किया था। चूंकि नौकरशाही का प्रशिक्षण अपने अधिकारी के लिये केवल ‘‘हां’’ कहने का होता है, ‘‘न’’ उनके शब्दकोश में नहीं होता यह उनके लिए व विशेषतः छोटे कद के अलोकतांत्रिक मानस वाले भ्रष्ट सत्ताधीशों के लिये मुफीद होते हैं, क्योंकि वे उनके इशारे पर सब कुछ काला पीला कर सकते है। जब इस प्रकार के नौकरशाहों की भर्ती राजनैतिक सत्तातंत्र में याने राज्यपाल, राज्यसभा, लोकसभा, मुख्यमंत्री, मंत्री और आयोगों में शुरू हुई तो उसका एक और दुष्परिणाम निकला कि नौकरशाहों ने सेवानिवृत के काफी पहले से ही सत्ताधारी दल और अगर वहाँ नहीं जमा तो प्रतिपक्षी दल के नेताओं के साथ भीतरी गठजोड़ बनाना शुरू कर दिया। कुछ समय के लिए ये क्रांतिकारी बन जाते है, और सत्ताधीशों के अवैधानिक तथा अपराधिक कामों की सूचना प्रतिपक्ष को और छिपे तौर पर मीडिया को पहुंचाते है तथा उनके विश्वसनीय हो जाते है। जब प्रतिपक्ष सत्ता में आता है तो ये उनके विशेष सहयोगी सलाहकार बन जाते है। यद्यपि नौकरशाह, अपवाद छोड़कर चाहे सत्ता समर्थक हो या प्रतिपक्षी कुल मिलाकर दोनों तरफ उनकी भूमिका एक जैसी ही होती है।
जो चलन कांग्रेस ने शुरू किया वह धीरे-धीरे बढ़ता गया और राजनैतिक सत्ताधारियों की आम परम्परा बन गया। यहाँ तक की अब नामजद होने वाले पदों में आई.पी.एस., आई.ए.एस. के कोटे बन गये हैं।याने इतने प्रतिशत पदों पर सेवानिवृत आई.पी.एस. होंगे और इतने प्रतिशत पर सेवा आई.ए.एस. होंगे। इस विकृति ने तो अब न्याय पालिका को भी निगल लिया है। पतन का दौर इस सीमा तक पहुंच गया है कि, हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तक एक छोटे से राज्य के राज्यपाल बनने या राज्यसभा का मेम्बर बनने को लालायित रहते है। प्रशासन तंत्र के ऊपर दूसरे जो दुष्प्रभाव हुए हैं वे अपनी जगह है इसका सबसे बुरा प्रभाव संवैधानिक अंगों की साख पर हुआ है। कार्यपालिका अपनी साख पहले ही खो चुकी थी, अब न्याय पालिका अपनी साख की गिरावट के अंतिम चरण पर है।
पिछले सात वर्षां से केन्द्र में भाजपा सरकार और इसके प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी नाम भले ही अलग है, परन्तु उनके तौर तरीके कांग्रेस पार्टी की सरकार से भिन्न नहीं है। कुछ अर्थां में वे कांग्रेस का विस्तार साबित हो रहे है। याने जिस शासन और प्रशासनिक संस्कृति की शुरूआत कांग्रेस ने की थी उसे ही वे आगे बढ़ा रहे है।
पेंशन नियमों में वर्तमान मोदी सरकार ने जो संशोधन प्रस्तावित किये हैं, उनमें 20 विभाग या एजेंसियां शामिल हैं जिनका संबंध देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा से जुड़ा है। जैसे सी.बी.आई., आई.बी., रॉ, ई.डी., अर्ध सैनिक बल, राजस्व इन्टेलिजेन्स आदि। इनसे संबंधित पेंशन रूल्स में एक संशोधन यह किया गया है कि पहले जो परिभाषा की गई थी उसमें केवल डिपार्टमेंट या एजेंसी को शामिल किया गया था। अब उसमें ‘‘डोमेन’’ शब्द भी जोड़ दिया गया है। याने ‘‘डोमेन ऑफ डिपार्टमेंट’’। और डोमेन की परिभाषा बहुत व्यापक होती है। ‘‘डोमेन’’ में विभागीय कार्य या दस्तावेज़ के अलावा उसके संपर्क व संबंध में आने वाले सभी कार्य या व्यक्ति वे देश के हों या दुनिया के सरकार के हो या गैर सरकारी सभी शामिल हो जाते है। याने अब इनसे संबंधित कोई सूचना कोई सेवानिवृत अधिकारी सरकार की अनुमति के बिना बाहर जारी नहीं कर सकता और अगर करता है तो सरकार अपराधिक कार्यवाही के अलावा उनकी पेंशन को आंशिक या पूर्ण रूप से बंद कर सकती है। इसे ऐसा समझा जाये कि अगर सरकार का कोई मंत्री अनुचित तरीके से किसी के अपराधिक या अन्य मामलों में गलत फँसाने के लिए आदेश या संकेत किसी अधिकारी को देता है तो वह सेवाकाल के दौरान तो पहले ही खुलासा नही कर सकता था, अब सेवाकाल के बाद भी नहीं कर सकेगा। सत्ता के अपराधों के रहस्य उसे जहर के समान पीना होंगे और वे उसके साथ ही दफन हो जायेंगे।
जिस प्रकार 19वीं सदी के प्रथम खंड में जर्मनी में हिटलर के कार्यकाल में हुआ था या फिर रूस में स्तालिन के जमाने में हुआ था कि सत्ता के जुल्म और रहस्य अधिकारियों के साथ ही दफन हो गये। इसी की पुनरावृत्ति भारत में होगी। याद करिये कि आपातकाल के बाद जब श्रीमती इंदिरा गाँधी सत्ता से हट गई और जनता पार्टी की सरकार ने शाह कमीशन बनाया तो उनके कई अधिकारियों ने शाह कमीशन के समक्ष अपनी या सरकारी आदेशों की गलती को स्वीकारा था।परन्तु इस संशोधन के बाद अब ऐसी घटनाओं का खुलासा तो दूर उनकी ओर इशारा भी नहीं हो सकेगा। क्योंकि पेंशन रूल में जो दूसरा संशोधन किया गया है उसमें भी खुलासे की परिभाषा बहुत व्यापक कर दी गई है।यानी अधिकारी अब विभाग से जुड़े किसी व्यक्ति के बारे में सीधा उल्लेख तो नहीं ही कर सकेगा अब उसके संबंध में कोई रिफरेंस भी नहीं दे सकेगा। यानी संकेत को भी अपराध बना दिया गया है। ये दोनों संशोधन, देश की नौकरशाही को अंधा-गूंगा व बहरा बनाने का औजार है, तथा संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विरूद्ध हैं। पर आश्चर्य है कि, सरकार के इस लोकतंत्र के गलाघोटू कदम का विरोध, संसद के किसी भी प्रतिपक्षी दल ने नहीं किया। करेंगे भी कैसे पुरानी कहावत जो है -‘‘कांच के मकान में रहने वाले, कांच के मकान पर पत्थर नहीं फैंकते।’’ यानी सत्तापक्ष व प्रतिपक्ष दोनों, व लगभग सभी संसदीय दल, इस पर एकमत है कि नौकरशाही की आजादी को सीमित रखा जायें न केवल सेवाकाल में बल्कि उसके बाद भी।
इस घटना से यही सिद्ध होता है कि, आपातकाल के प्रावधान भले ही लागू न हों पर, उसका अंतर्मन अभी भी जिंदा व सक्रिय हैं। तथा पीछे के दरवाजे से, अपने, कदम, पुनः बढ़ाने की तैयारी में हैं।अनुत्तरदायी और असीमित सत्ता की लालसा, सत्ताधीशों को तानाशाही की ओर ढकेलती है। तथा वक्ती तौर पर इस लालसा में बंटे सत्ताधारी भूल जाते है कि, वे जिस अंधी गली में प्रवेश कर रहे हैं, उसका कोई अंत नहीं होता। तानाशाह बनना संभव भी है और आसान भी, पर तानाशाही रूपी शेर की सवारी से उतरना खतरनाक होता है।
सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।प्रख्यात समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।