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वरिष्ठ नागरिकों की छूट बन्द करने की रेलवे की कोशिश दुर्भाग्यपूर्ण – रघु ठाकुर

ऐसी खबरे हैं कि रेल मंत्रालय वरिष्ठ नागरिकों को टिकट पर मिलने वाली छूट को वापस लेना चाहती है। इसके लिए कुछ तर्क और तैयारियां शुरू की गई है,जैसे टिकिट पर यह अंकित किया जायेगा कि इसमें वास्तविक यात्रा व्यय के खर्च की तुलना में रेल का कितना घाटा है।यानी वरिष्ठ नागरिक के टिकट में रेल विभाग कितना पैसा अनुदान के रूप में दे रहा है।और इसी संदर्भ में वरिष्ठ नागरिकों के टिकटो पर यह अंकित किया जा रहा है कि उसमें रेल विभाग को 57 प्रतिशत का घाटा हो रहा है।

नियोजित रूप से यह भी प्रचारित किया जा रहा हैं कि यह रियायती सुविधा गैस सिलेण्डर के कार्यक्रम के समान है और जिस प्रकार गैस सिलेण्डर के अनुदान को कम करने की या छोड़ने की पहल प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री, सांसदों और बाद में अफसरों और नागरिकों तक हुई थी उसी प्रकार यह पहल हो रही है।सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर दें कि गैस सिलेण्डर के अनुदान और वरिष्ठ नागरिकों के रियायती टिकट में बुनियादी फर्क है। गैस सिलेण्डर पर अनुदान पूर्ववर्ती सरकारों ने मंहगाई के मुकाबले के लिए देना शुरू किया था और सम्पन्न तबके को इसे दिया जाना पहले भी उचित नहीं था।

वरिष्ठ नागरिकों को टिकट में कुछ रियायत देना यह न केवल भारत में बल्कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से की गई एक वैश्विक पहल है।संयुक्त राष्ट्रसंघ ने समूची दुनिया में वरिष्ठ नागरिकों की चिन्ता करते हुए उनके हित और जरूरतों के अनुरूप कुछ कार्यक्रम विश्व स्तर पर तैयार किये थे।बाजारवाद की युवा पीढ़ी वरिष्ठजनों का सम्मान करे अर्थात् उनकी चिन्ता करे इस दृष्टिकोण से सारी दुनिया में वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाने की शुरूआत हुई थी। वरिष्ठ नागरिकों की सुविधा के लिए एक चार्टर भी तैयार हुआ था जिस पर भारत सहित दुनिया के काफी देशों ने हस्ताक्षर किये थे और तदनुसार देश के लगभग सभी जिला मुख्यालयों पर भारत सरकार की पहल पर वरिष्ठ नागरिकों की समितियां बनाई गयी जिसकी जिला अधिकारी नियमित बैठके करते हैं और उनसे चर्चा के माध्यम से वरिष्ठ नागरिकों की समस्यायों का समाधान करते है। इतना ही नहीं पुलिस को भी यह निर्देश राष्ट्रीय स्तर पर दिये गये है कि वे थानों में वरिष्ठ नागरिकों की सूची रखे ताकि उनकी सुरक्षा की देखभाल हो सके।

वरिष्ठ नागरिकों को रेल टिकट में सुविधा की मांग जनता ने नहीं की थी बल्कि स्वतः भारत सरकार ने अपनी ओर से इसकी घोषणा और शुरूआत की। उसे रेल बजट में संसद में पारित कराया। इसके पीछे तर्क यह था कि वरिष्ठ नागरिकों का अकेले यात्रा करना तकलीफप्रद होता है उनकी दवा, सामान, सुरक्षा और सुविधा के लिए उन्हें अमूमन कोई एक सहयोगी साथ रखना होता है यानी एक व्यक्ति की यात्रा के लिए दो टिकट लगते है और इसी को आधार मानकर सभी सरकारें वरिष्ठ नागरिकों को कुछ सुविधा देतीं रहीं है। समाज का उन लोगों के प्रति कृतज्ञता का दायित्व है जिन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष देश सेवा में लगाये।

रेल विभाग के द्वारा यह बताना कि वरिष्ठ नागरिकों के टिकट पर 57 प्रतिशत का घाटा हो रहा है नितांत गलत है।रेल विभाग के आंकड़े झूठे प्रचार पर आधारित है। कहने को रेल विभाग वरिष्ठ नागरिकों को 40 प्रतिशत की छूट देती है पर वह वस्तुतः 30 प्रतिशत के आसपास ही होती है क्योंकि आरक्षण, सुपर चार्ज आदि में रियायत नहीं होती। यह रियायत केवल मूल टिकट पर होती है।दूसरे जब रेल विभाग यात्री पर होने वाले खर्च की गणना करता है तो खर्च में उन सब सफेद हाथियों का भी खर्चा शामिल होता है जो तंत्र के कृपा पात्र है। मंत्री और अधिकारियों के सैलून, पूर्व सांसद के रेल पास जिनमें यह पूर्व सांसद को एसी द्वितीय श्रेणी के पास मिलते है। पूर्व विधायकों को दिये जाने वाले फ्री कूपन और रेल मंत्रालय द्वारा जारी किये जाने वाले औसतन 50 हजार टिकट सौजन्यता पास होते है। इन सबकी वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा का बोझ आम आदमी को उठाना पड़ता है। फिर रेल के घाटे के नाम पर आमयात्री या वरिष्ठ नागरिकों को दोषी ठहराया जाता है।

एक लोकतांत्रिक प्रणाली में अफसरों के लिए सैलून के नाम पर पृथक रेलगाड़ी की व्यवस्था करने पर कितना खर्च होता है। जो एक प्रकार की राजतंत्रीय प्रणाली है जिसमें बहुत भारी खर्चा आता है, और खर्च के साथ-साथ हजारों रेल कर्मी इन महाराजों के सैलूनों के परिचालन और सुरक्षा व्यवस्था में लगे रहते है। जो व्यक्ति संसद का चुनाव लड़कर हार गये या जिन्हें जनता ने नकार दिया या उनकी ही पार्टी ने उन्हें अगले टिकट का योग्य नहीं माना ऐसे लोगों को ताजिदंगी दो एसी के पास देने का क्या औचित्य है? क्या यह अलोकतांत्रिक नहीं है ? परन्तु सौजन्य पास के नाम पर सरकारें अपने अनुकूल प्रचारक और संस्थाओं तथा व्यक्तियों के लिए हजारों पास बांटती है जिन पर भारी खर्च होता है। क्या यह रेल के घाटे का कारण नहीं है। जो क्रिकेट के खिलाड़ी अरबपति है उन्हें रेल के मुफ्त पास देना रेल को घाटे में ले जाना नहीं है। अगर सैलून से लेकर इन सब मुफ्त पासधारियों के यात्रा के खर्चा को समेकित रेलयात्री खर्च में से हटा दिया जाये तो मालूम पड़ेगा कि रेल यात्री खर्च की तुलना में कुछ ज्यादा ही पैसा दे रहे है। इसी प्रकार अफसरशाही ने, रेलमंत्री के मुंह से, कहलवाया है कि, एक स्टापेज देने पर तीन करोड़ का घाटा रेल्वे को होता है अब स्टापेज में खर्च क्यों होता ? स्टाफ वही है। गाड़ी वही हैं हालांकि समय का तो फर्क पड़ सकता है पर खर्च या घाटा क्यों होगा। बल्कि उस स्टापेज पर चढ़ने-उतरने वाले यात्रियों से भाड़ा मिलेगा जो, रेल्वे की आय बढ़ायेगी। ऐसे आंकड़े रेल विभाग परोसता है तथा जनता को गुमराह करने का प्रयास करता है।अभी वरिष्ठ नागरिकों का नंबर आया है फिर महिलाओं का नंबर आयेगा, फिर विकलांगों का नंबर आयेगा और फिर ऐसे बढ़ते बढ़ते उन सभी के लिए रियायत के नाम पर दी जाने वाली एक मामूली बूंद को भी सरकारी तंत्र पी जायेगा।

दरअसल सरकार का यह कदम और झूठा प्रचार वैश्वीकरण के समझौते के अनुपालन में उठाया जा रहा है। चूंकि विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर सरकार ने हस्ताक्षर कर विदेशी पूंजी और कर्ज लेने के लिए अपना घाटा समाप्त करने के नाम पर अनुदान समाप्त करने, सुविधायें समाप्त करने का समझौता किया है। इसी से सरकार वरिष्ठ नागरिकों को इसका पहला शिकार बना रही है। तथा अपने झूठे प्रचार से आम लोगों में अपमानित कर रही है। सरकार के इस प्रचार से दूसरे यात्री वरिष्ठ नागरिकों को हिकारत की नजर से चोर के समान मानने लगे है। देश के 30 करोड़ वृद्धों और वरिष्ठ नागरिकों को सम्मान देने की बजाय हास्यास्पद बनाना और अपमान का पात्र बनाने का कार्य सरकार कर रही है। बाजारवाद की व्यवस्था एक अमानवीय व्यवस्था है। जिसका सिद्धांत होता है – ‘सरवाईवल आफ दि फिटेस्ट‘। तत्पर्य है क्षमता हो तो जिन्दा रहो, वरना मरो। एक तरफ भारत सरकार के नियंत्रक भारतीय अतीत और सभ्यता के गुण गाते है और भारतीय सभ्यता, मानवीय सभ्यता है यह दावा करते है परन्तु कर्म में बाजारू सभ्यता यानी सायलाक सभ्यता को अपनाते है जो कर्ज के सिक्कों के वजन के बराबर इंसान का मांस काटकर लेने वाली है।

सरकार गति के नाम पर बुलेट ट्रेन, प्रीमियम ट्रेन आदि की कल्पना करती है। बुलेट ट्रेन के नाम पर उसके ट्रेक को बनाने के लिए, उसकी तकनीक के लिए लाखों करोड़ का कर्ज जापान, फ्रांस, जर्मनी और दुनिया के देशों से लिया जावेगा। इस कर्ज पर भारी ब्याज देश को चुकाना होगा और ये गाड़ियां किस के लिए होंगी ? केवल समाज के चंद बड़े लोग व्यवस्था और तंत्र के लोग यानी संपन्न तबके के खास-खास लोगों के लिए। इस पर होने वाले लागत खर्च को संपूर्ण रेल का घाटा बताया जायेगा। उस घाटे का गुनहगार देश के वृद्धजनों को बताकर उनकी गर्दन काटने की तैयारी की जायेगी। पूंजीवाद और बाजार की व्यवस्था ऐसी ही अमानवीय व्यवस्था होती है जिसकी नजरों में सबसे कीमती पैसा और मुनाफा तथा सबसे महत्वहीन मानव और मानवता होती है। भोपाल के एक पत्रकार मित्र ने मेरे फेस बुक पर टीप लिखी है कि – ’’सरकार अब पूंजीवाद के रास्ते पर चलकर मुफ्तखोरी खत्म कर देगी।’’ मुझे उनकी समझ पर तरस आता है। मैं उन पत्रकार मित्र के बारे में कोई टिप्पणी किये बगैर इतना अवश्य कहूंगा कि आज सरकारें लूट और मुफ्तखोरी का संगठित गिरोह है। जिन्हें जनमत की नासमझी से इसका पट्टा मिला हुआ है।

यही पत्रकार मित्र राज्य सरकारों के द्वारा तीर्थ यात्रा के लिए चलाई जा रही रेलगाड़ियों को महान काम बताते है तथा उनका गुणगान करते है। मैं इन तीर्थयात्री गाड़ियों का विरोधी नहीं हूं बल्कि हमारी समाज के प्रबुद्धजनों के अन्तरविरोध और सत्ता की गुलामी से चिन्तित हूं। जो लोग मुफ्त टिकट वाली, मुफ्त खाने वाली, तीर्थ यात्रा को महान काम बताते है वही लोग वरिष्ठ नागरिकों की यात्रा और उसमें दी जा रही मामूली छूट के लिए मुनाफाखोरी और अपराध बताते है। अच्छा हो कि सरकार सैलूनों से लेकर पूर्व सांसदों, पूर्व विधायकों और सौजन्य पास धारियों से लेकर अरबपति क्रिकेटरों की सुविधायें खत्म करें। बुलेट ट्रेन और गति के नाम पर विदेशी कर्ज लेना बंद करे तथा भारतीय रेल को जनता के लिए सस्ते यातायात के रूप में रहने दे।

 

सम्प्रति-लेखक श्री रघु ठाकुर देश के प्रतिष्ठित समाजवादी चिन्तक है।लोहियावादी श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।