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विदेशी पूंजी निवेश यानी काले धन को सफेद करने का खेल – रघु ठाकुर

भारत सरकार ने पिछले दिनों अचानक रक्षा विभाग, खाद्य प्रसंस्करण, और औषधि आदि क्षेत्रो में शतप्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश को अनुमति प्रदान कर दी।बहुत सम्भव है कि मोदी सरकार ने एन.एस.जी की सदस्यता पाने के लालच में अमेरिका को कुछ ज्यादा खुश करने के चक्कर में यह निर्णय अचानक लिया हो, हालांकि एन.एस.जी का सदस्य न होने से व्यापार या किसी रुप में कोई क्षति होने वाली नही थी।यह तो मोदी के सलाहकारों की अज्ञानता और अपरिपक्वता की सलाह थी कि भारत अगर एन.एस.जी का सदस्य बन जायेगा तो प्रधानमंत्री की विदेश यात्रायें तर्क संगत तथा सफल सिद्व होगी तथा यह उनकी कूटनीति और विदेश नीति की सफलता का झंडा गाढ़ देगा।

प्रधानमंत्री के अमेरिकी संसद में भाषण के बाद जिसके बारे में भारत के प्रचार तंत्र ने ऐसा प्रचार किया था कि मानो अमेरिकी ससंद ने अपना नेता श्री मोदी को चुन लिया हो। अमेरिकी संसदो ने 72 बार तालियां बजाई,11 बार खड़े हो होकर बजाई,आदि बढ़े-चढ़े प्रचार से अखबार भरे पड़े थे।हालांकि मैंने इन समाचारों को पढ़कर फेसबुक पर टिप्पणी की थी कि अभी भी अमेरिकी सांसदो और भारतीय सांसदो में इतना फर्क शेष है कि वे श्री मोदी से हाथ मिलाने के लिये भारतीय सांसदो के समान टेबलो पर नही लेटे जैसा कि बिल क्विलंटन के भारत की संसद के भाषण के समय हुआ था। अमेरिकी लोकतंत्र एक पूंजीवादी लोकतंत्र है परंतु उसकी नीतियां व्यक्तिपरक नही बल्कि राज्यपरक होती है। वहां सरकार या राष्ट्रपति चार साल का होता है,पंरतु राज्य एक स्थाई और दीर्घकालीन संकल्पना है इसलिये उनकी नीतियां व्यक्तिपरक नही होती बल्कि दीर्घकालिक और सुविचारत होती है।भारतीय लोकतंत्र निर्वाचित सांमती लोकतंत्र है जिसकी नीतियां व्यक्तिपरक या राजतंत्रीय याने राजा की इच्छा के अनुकूल होती है। और इसका प्रमाण प्रधानमंत्री श्री मोदी के अमेरिकी संसद में भाषण के दो दिन बाद ही मिल गया, जब अमेरिकी संसद ने भारत को अमेरिका के विशेष सहयोगी मानने वाले निजी प्रस्ताव को अमान्य कर दिया। अगर यह प्रस्ताव पारित हो जाता तो भारत अमेरिका का रणनीतिक मित्र होता तथा विश्व राजनीति और संतुलन पर उसके महत्वपूर्ण प्रभाव होते। दूसरे इस प्रस्ताव को राष्ट्रपति ओबामा और उनकी सरकार नही लाई बल्कि एक प्राइवेट बिल के तौर पर रखा गया और यह अन्तरनिहित ही था कि इसे गिरना था।परंतु भारतीय विदेश नीति के निंयत्रको की समझ को क्या कहा जाये कि ये इस बड़ी घटना के निहितार्थ समझने के बजाय तालियों की गिनती लगाते रहे।

हमारे विदेश मंत्री और विदेश सचिव इसी समय चीन यात्रा पर थे और वीजिंग में और वहां से लौटकर ऐसे बयान दे रहे थे कि जैसे चीन एन.एन.जी की सदस्यता के बारे में उनका समर्थन करने वाला है। और जब चीन ने एन.एस.जी की बैठक में भारत को अकेले सदस्यता का समर्थन नही किया तो भारतीय मीडिया ने चीन को पानी पी पी कर कोसना शुरु कर दिया। आर.एस.एस के प्रचारको ने सोशल मीडिया और अखबारो में यह अभियान छेड़ दिया कि अब भारतियों को चीन के सामान का बहिष्कार कर राष्ट्र भक्ति का प्रर्दशन करना चाहिये। हालांकि ठीक इसी समय संघ के स्वयंसेवक और म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान चीन में जाकर चीनी कम्पनियों को भारत में आने की दावत दे रहे थे।यहां तक की वहां से लौट कर 28 जून को उन्होंने अखबार वालो से स्पष्ट तौर पर कहा कि चीनी कम्पनियों को बुलायेगें परंतु संघ के राष्ट्र भक्तो ने इस पर कोई आपत्ति नही की। याने जनता चीनी माल का बहिष्कार करें और उनका मुख्यमंत्री चीन की कम्पनियों को कारपेट बिछाकर दावत दे। यह एक साथ अन्तरविरोधी बयान और कार्य क्षमता संघ की ही विशेषता है।

विदेशी पूंजी निवेश के मामले में भी आर.एस.एस और उनकी संस्था स्वदेशी जागरण मंच बखूबी ऐसे ही दोहरे आचरण का कौशल सिद्व कर रही है।पिछले 20 सालो से संघ और उनकी सहयोगी संस्थाये विदेशी पूंजी निवेश, डंकल प्रस्ताव, वैश्वीकरण आदि की न केवल आलोचना करती रही बल्कि गांव-गांव में आम लोगो को इसके विरुद्व कहती रही है।परंतु अब जब उनकी संस्था और बहुमत वाली सरकार केन्द्र में है तब इस विदेशी पूंजी निवेश के खुले दावत नामा पर वे चुप है और सरकार के साथ है। अटलजी के प्रधानमंत्री काल में भी उन्होंने यही खेल खेला था। अटल बिहारी वाजपेयी ने 25 सौ आयात के लिये प्रतिबंधित सामानो की सूची को आयात के लिये खोल दिया था और संघ के स्व.श्री दंतोपंत ठेगड़े उसका विरोध करते रहे तथा अटलजी की सरकार विदेशी माल को रास्ता खोलती रही। एक स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के रुप में विदेशी पूंजी निवेश, विदेशी समान का मार्ग प्रशस्त करता है और दूसरा स्वयंसेवक भारतीय मजदूर संघ का नेता बनकर उसके खिलाफ अभियान चलाता है परंतु चुनाव में दोनो साथ होते है।

लगभग यही खेल आज भी चल रहा है। मोदी सरकार विदेशी पूंजी ला रही है और संघ के स्वयंसेवक कोरी शाब्दिक बयानबाजी कर रहे है।सरकारी पक्ष की ओर से यह कहा गया है कि इस पूंजी निवेश से 3 वर्षो में 3 लाख करोड़ की विदेशी पूंजी इन क्षेत्रो में आयेगी।अब जरा हम इस पर तथ्यात्मक विचार करें।-

1.प्रधानमंत्री ने जो जनधन योजना शुरु की और जो निंसदेह एक अच्छी योजना है के माध्यम से जनधन के खातो में लगभग 60 हजार करोड़ रुपया जमा हुआ है।अगर बगैर पूंजी निवेश की अपील के केवल खाते खुलने मात्र से ही देश के गरीब लोगो ने 60 हजार करोड़ रुपया खातो में जमा कर इतनी विशाल पूंजी तैयार की तो भारत सरकार देशी पूंजी निवेश की अपील करे और उसे प्रोत्सोहित करे तो आसानी से देशी पूंजी निवेश हो सकता है।

2.भारत की कई वित्तीय संस्थाओं ने यह आंकलन जारी किया है कि देश में बैंको का एन.पी.ए. याने गैर बसूली योग्य राशि 10 लाख करोड़ के बराबर है। अगर सरकार इस 10 लाख करोड़ की एन.पी.ए को बसूल कर ले तो विदेशी पूंजी निवेश से तीन गुना से अधिक राशि मिल जायेगी। यह कहना कि यह रकम डूब गई है तथ्य आधारित नही होगा। क्योंकि रकम को डूबाने वाले की सम्पतियां मौजूद है।अगर सरकार यह कानून बनाये कि बैंक का बकाया जमा नही करने वालो की देशी और विदेशी सारी सम्पतियां जब्त की जायेगी तथा उन्हें तब तक जेल में रखा जायेगा,जब तक बकाया रकम जमा नही हो जाती तो कुछ ही माह में यह राशि वसूल हो सकती है।

3.    रक्षा के क्षेत्र में विदेशी पूंजी के परिणाम देश को नुकसान दायक हो सकते है क्योंकि एक तो भारत की सामरिक गोपनीयता विदेशियो के पास रहेगी और दूसरे भारत के सामरिक शोध तथा उत्पादन पर भी विपरीत असर पड़ेगा। पूर्व राष्ट्रपति स्व.कलाम ने भारतीय रक्षा अनुसाधन को काफी ऊंचाई पर पंहुचाया था। आज ब्रम्हास और तेजस हमारे सैन्य बल में शामिल है और देशी उत्पादन है। कुछ लोग यह तर्क देते है कि हमें हथियारो की विदेशी तकनीक की उपलब्धता नही होगी परंतु वे यह भूल जाते है कि जब हम स्वतः अपना शोध करेगे तो हमें विदेशी तकनीक पर निर्भर नही होना पड़ेगा। दुनिया के हथियार बेचने वाले तो सभी को तथा परस्पर प्रतिद्धन्दी राष्ट्रो में होड़ पैदाकर दोनो को हथियार बेचते है। एफ 16 सामरिक विमान पहले पाक को बेचा फिर उसके मुकाबले के नाम पर भारत को बेचा। कभी-कभी इस व्यापार के खेल के लिये वे अलग-अलग नाम की कम्पनियों और दलालों का उपयोग करते है।इन शस्त्रों से शक्तिशाली बनने का प्रयास वैसा ही है जैसा कुश्ती के पहले कोई पहलवान दवाई का इस्तेमाल करें। दवाई का बल अस्थाई होगा। यह एक प्रकार की सामरिक अस्त्रों की अंतरराष्ट्रीय डोपिगं होगी।

4.जो लोग मेक इन इंडिया का या भारत में कारखाने लगाने से लोगो को रोजगार मिलने का या फिर इन कम्पनियों से कर मिलने का तर्क दे रहे है उन्हें जानना चाहिये कि इन विदेशी कारखानों के स्थापित करने में जमीन पानी ओैर प्राकृतिक सम्पदा भारत की नष्ट होगी।साथ ही कभी दुघर्टना होने की किसी भी प्रकार की क्षति भी भारत को सहना होगी।मशीनीकरण इतना स्वचालित हो चुका है कि इन कारखानों में कोई बड़ी संख्या में रोजगार नही निकलेगे। सब काम मशीन से होगा और मशीनों के परिचालन के लिये उनके अपने वैज्ञानिक, इंजीनियर आदि होगे। हमारे देश के तो कुछ चौकीदार और मिस्त्रियों को कुछ दिनों के लिये थोड़ा बहुत काम मिल सकता है यह भी नही भूलना चाहिये कि भारत में श्रम विदेशों की तुलना में बहुत सस्ता हैं।जो अमेरिकी या यूरोप का इंजीनियर 70 लाख रुपया वेतन लेता है उसके स्थान पर भारत में 2-4 लाख रुपये में योग्यतम इंजीनियर, या वैज्ञानिक मिल जायेगा। जहां अमेरिकी श्रमिक औसतन 10 हजार रुपया प्रतिदिन लेता है भारत का श्रमिक 2-3 सौ रुपये रोज पर मिल जायेगा।विदेशी कम्पनियों को सस्ता श्रम मिल जायेगा। जहां तक टैक्स का सवाल है तो भारतीय कम्पनियां भी टैक्स चुकायेगी तथा भारत की धरती पर बने हुये हथियार कोई भारत को बगैर मुनाफे के मिलने वाले नही है याने जमीन हमारी, पानी हमारा, जंगल हमारा, मजदूर हमारे और मुनाफा तथा निंयत्रण विदेशियों का। खाद्य प्रसंस्करण में तो किसी तकनीक की जरुरत ही नही है भारत अतीत से 56 व्यजनो का देश रहा है हम परमाणु बम बना सकते है तो क्या टमाटर की चटनी, आलू के पापड़ या ठंडा पेय तैयार नही कर सकते। औषधियो के क्षेत्र में विदेशी दवा कम्पनियों को भारत में व्यापार मिलेगा और भारत की जनता पेटेन्ट के नाम पर मंहगी दवाई खरीदने को विवश होगी।

दरअसल यह विदेशी पूंजी निवेश तीन कारणों से कराया जा रहा है।-

1.    अमेरिका व यूरोप को खुश करना।

2.    विश्व व्यापार संगठन के समझौते का पालन करना।

3.    तीसरे एक कटु सत्य यह भी है कि यह विदेशी पूंजी निवेश वास्तव में भारतीय काले धन की वापसी है स्विजरलैण्ड के बैंको में भारतीय जमाधन का 32 प्रतिशत बैंक से निकाला जा चुका है। प्रधानमंत्री ने सितंबर तक काले धन को सफेद कर लेने की चेतावनी दी है और यह विदेशी पूंजी निवेश वास्तव में भारतीय काले धन का सफेदी करण है। क्या देश की जनता इस षड्यंत्र को समझेगी?

 

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक है।वह समाजवादी लोकतांत्रिक पार्टी(लोसपा) के संस्थापक अध्यक्ष भी है।