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जातिगत जनगणना को रोकने की कोशिश आखिर क्यों – रघु ठाकुर

रघु ठाकुर

देश में जातिगत जनगणना को लेकर पिछले लगभग 12-13 वर्षो से बहस चलती रही है। जब पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जनगणना हुई थी तब भी यह मुद्दा उठा था कि देश में जनगणना के साथ ही जातीय जनगणना भी कराई जाए। परंतु उसे टालने के लिए तत्कालीन सरकार ने ऐलान किया था कि वह जातीय जनगणना पृथक कराएंगे। हालांकि इसका कोई औचित्य नहीं था। जब भारत सरकार नियमित जनगणना के मद में 6 हज़ार करोड़ रूपए खर्च कर रही थी तो उसी में एक कालम और जोड़ा जा सकता था। परन्तु कांग्रेस जबान से भले ही पिछड़े वर्गों के साथ रही हो पर कर्म से कभी नहीं रही। यहां तक कि जब 1990 में मण्डल कमीशन को लागू किया गया था, तब भी कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गाँधी ने संसद में कोई स्पष्ट पक्ष नहीं लिया था। इसका उन्हें राजनीतिक रूप से खामियाजा भी भुगतना पड़ा था और 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी उत्तर भारत में काफी कमजोर साबित हुई।

भारतीय जनता पार्टी भी पिछड़े वर्ग के लोगों के आरक्षण के पक्ष में अंर्तमन से नहीं है और इसलिए जब स्व. बी.पी. सिंह सरकार ने मण्डल कमीशन के क्रियान्वयन की घोषणा की तब श्री लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली और सरकार गिराने का बहाना खोज लिया। यद्यपि जब नरसिंहराव सरकार में स्व. सीताराम केसरी समाज कल्याण मंत्री बने तब उन्होंने अवश्य पूरे कौशल के साथ सुप्रीम कोर्ट से मण्डल कमीशन की सिफारिशों को क्रियान्वित करने के सरकारी प्रस्ताव पर सहमति हासिल की थी।

अब जब बिहार के मुख्यमंत्री ने जातिगत जनगणना की खुली माँग शुरू की है तब भारतीय जनता पार्टी और संघ के आरक्षण विरोधी बुद्धिजीवी मैदान में उतरे हैं। एक तो यह कहा जा रहा है कि श्री नीतीश कुमार ने चुनावी गणित के लिए जनगणना राग शुरू किया है। मैं इससे इंकार नहीं करूंगा। यह बहुत संभव है कि श्री नीतीश कुमार ने यह समय राजनैतिक रूप से जातीय जनगणना के लिए उपयुक्त महसूस किया हो और बिहार में पिछड़े वर्गों के नेतृत्व की पहल अपने हाथ में लेने का खेल शुरू किया हो। परंतु यह कोई बहस का मुद्दा नहीं है क्योंकि अमूमन राजनैतिक दल और सरकारें अपने हित-अहित के कारणों से मुद्दों को उठाती या विरोध करती है। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने अनुसूचित जनजातियों को पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ हाईकोर्ट के निर्णय को निरस्त करने और आरक्षण देने के निर्णय का कानून बनाया था। चूंकि यह काम अटल जी ने किया था अतः संघ व भाजपा के और देश के सभी सवर्ण प्रवक्ता जो पानी पी-पी पीकर आरक्षण को कोसते थे चुप हो गए, क्योंकि कर्ताधर्ता अटल बिहारी थे। और वह निर्णय उन्हें दोबारा चुनकर आने के लिए उपयोगी था।एक संघ के विद्वान प्रवक्ता ने 28 जुलाई के भास्कर में लेख लिखकर जातीय जनगणना का विरोध किया है उन्होंने इसके लिए निम्न आधार दिए:-

  1. जनगणना में जाति नहीं जरूरत पूछी जाए तभी पिछड़ों का हित होगा।
  2. 2010 में उन्होंने जातीय जनगणना के खिलाफ ‘‘मेरी जाति हिन्दुस्तानी’’ का अभियान चलाया था। यद्यपि यह मित्र अखिल भारतीय वैश्य संघ के पदाधिकारी रहे हैं और अपने जातीय कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं इसके कई प्रमाण है।
  3. उन्होंने यह भी लिखा है कि जब श्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने इस अभियान का समर्थन किया था। हालांकि 2014 के बाद श्री नरेन्द मोदी अपनी जाति का सार्वजनिक उल्लेख कर चुके हैं और पिछड़े वर्ग के नाम पर वोट माँगते रहे हैं। हाल ही के मंत्रिमंडल विस्तार के समर्थन में उन्होंने मंत्रियों के जातीय आधार को तर्क के रूप में प्रस्तुत किया था और उनके निर्देश पर भारत सरकार ने हाल ही में पी.एम.टी. (पी.जी.) याने नीट परीक्षा में आरक्षण की घोषणा की है।
  4. वे स्वतः लिख रहे हैं कि 1931 में जातिगत आरक्षण हुआ था और 90 साल से वही आधार चल रहा है। अब उनसे ही पूछा जाना चाहिए कि अब 90 साल के बाद अगर जातियों के आधार पर जनगणना हो और उसके परिणाम सामने आए तो इससे उन्हें या देश को क्या परेशानी है ? सत्य को छिपाना क्यों चाहिए और अगर जातीयता बुराई हो तो उस पर पर्दा क्यों डालना चाहिए, मिटाना क्यों नहीं चाहिए? देश में सभी राजनैतिक दल भाजपा सहित चुनाव के समय जातीय संख्या को आधार बनाते हैं। जाति के आधार पर सोशल इंजीनियरिंग के शब्द का प्रचलन श्री गोविंदाचार्य ने शुरू किया था जो संघ के है।
  5. इन मित्र ने 1871 की हण्टर रिपोर्ट का जिक्र किया है। इन्हें यह भी ज्ञान नहीं है कि हण्टर कमीशन जातिगत जनगणना के लिए नहीं बना था बल्कि शैक्षणिक अध्ययन के लिए बना था। उन्होंने यह भी झूठ लिखा है कि 1931 में कड़े विरोध की वजह से अंग्रेजों को जातिगत जनगणना को छोड़ना पड़ा था जबकि वे स्वतः अपने लेख में आरंभ में ही स्वीकार कर चुके हैं कि 1931 में जातीय जनगणना हुई थी। एक ही लेख में अंर्तविरोधी बातें लिखना उनकी योग्यता मानी जाए या मानसिक असंतुलन माना जाए मैं यह पाठकों पर छोड़ देता हूं।

6.जब भाजपा सरकार ने सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी तब इन्हीं महानुभाव ने उसका विरोध करने के बजाए                समर्थन किया था।

  1. जातिगत जनगणना तो 2011 में लगभग हो चुकी है। केवल उसकी रपट को सार्वजनिक किया जाना है, मंडल कमीशन ने तो 79-80 में टाटा इंस्टीट्यूट से जातियों की संख्या निकलवाई थी और पिछड़े वर्ग की आबादी को 52 प्रतिशत माना था। हालांकि हिन्दुस्तान की संसद के सभी संसदीय दलों का चरित्र पाखण्डी रहा है क्योंकि उन्होंने कभी भी संसद में एक जुट होकर इस रपट को पेश करने की माँग नहीं की। जो विरोधी दल छोटी-छोटी बातों पर संसद को ठप्प करते हैं, इतने गंभीर विषय पर मौन साध लेते हैं। इतना ही नहीं सवर्णों के आरक्षण का समर्थन करते हैं। जो कि भारतीय संविधान के आरक्षण संबंधी प्रावधान की परिधि के बाहर है। भारतीय संविधान में भारत सरकार को यह अधिकार दिया है कि, वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों और वर्गों की पहचान करें। यही अधिकार आरक्षण के अधिकार को जन्म देता है।

भारत सरकार को पिछड़ी जातिगत जनगणना के आंकड़े प्रसारित करना चाहिए। निसंदेह इससे भागीदारी की भूख कुछ बढ़ेगी परंतु भागीदारी की भूख ही लोकतंत्र और देश को मजबूत करती है। अगर सैंकड़ों साल भारत जैसा विशाल देश बाहरी हमलावरों मुगलों और अंग्रेजों का गुलाम रहा है तो इसके पीछे जातिवाद और भागीदारी का अभाव प्रमुख कारण रहा है।

मैं जातिवाद के खिलाफ हॅू और जाति को मिटाना चाहता हॅू। परन्तु जाति छिपाने से नहीं मिटेगी बल्कि जाति को मिटाने के लिए अंतर्राजातीय – विलोम विवाह, अंतरधर्मीय विवाह और भागीदारी की वृद्धि जैसे कदम उठाना होंगे। डा.लोहिया आरक्षण को ‘‘विशेष अवसर’’ का सिद्धांत कहते थे और बराबरी के समाज के लिए उसे सीढ़ी मानते थे।यह कितना विचित्र है कि भारतीय समाज के कई हज़ार वर्ष के इतिहास में जो लोग जाति आरक्षण का समर्थन करते रहे, उसके लाभार्थी रहे वे ही अब इस आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। क्योंकि काल का क्रम उल्टा है। जब तक आरक्षण ताकतवर के पक्ष में होता था वे समर्थन करते थे और जब आरक्षण कमजोर का सहारा बनने लगा तो उसका विरोध करते हैं। मैं इतना अवश्य कहॅूगा कि आरक्षण को तार्किक बनाया जाना चाहिए ताकि वह सबसे कमजोर लोगों तक पहुंच सके और सामाजिक न्याय और समता के समाज के निर्माण का माध्यम बन सके।

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर देश के जाने माने समाजवादी चिन्तक है।प्रख्यात समाजवादी नेता स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी है।