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सामाजिक बहिष्कार के मामलों पर बने सक्षम कानून –डा.दिनेश मिश्रा

जाति, धर्म, ऊँच-नीचे के भेदभाव के बगैर सभी व्यक्तियों को समाज में समान अधिकार मिलने की मनमोहक घोषणाएँ तो अक्सर सुनने में आती है पर कथनी व करनी में कितना बड़ा फर्क है इसकी मिसाल सिर्फ इन घटनाओं से मिल जाती है, जिसमें समाज के फरमान को न मानने की वजह से उस व्यक्ति या उसके परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया,जिससे वह परिवार से अनायास ही परेशानी में आ गया।

छत्तीसगढ़ में कुछ दिनों पहले मगरलोड के साहू परिवार में पुत्री की बीमारी के चलते उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया तथा उन्हें सामाजिक पंचायत बैठाकर जुर्माना भी लगाया गया जिससे उस युवती ने आत्महत्या कर ली। राजनांदगाँव के पास डोंगरगढ़ के ग्राम चिको में एक सिन्हा परिवार को सामाजिक बहिष्कार के तहत समाज से बहिष्कृत कर दिया गया जिससे उसके घर ग्रामीणों ने आना-जाना बंद कर दिया तथा उसके मजदूरी करने, बच्चों को पढऩे, ट्यूशन जाने पर भी पाबंदी लगा दी। कसडोल सोनाईडीह में एक साहू परिवार को अंधविश्वास में पडक़र हुक्का पानी बंद हो गया जिससे उसका गाँव में रहना दूभर हो गया। सरगुजा जिले के सेलूद में एक महिला का समाज के ठेकेदारों ने हुक्का पानी बंद कर दिया तथा वापस लेने के लिए जुर्माना मांगा व जुर्माना भरने के बाद भी उसे गाँव के लोग बातचीत नहीं कर रहे हैं। तेंदुआ गाँव में एक दुर्गाप्रसाद साहू व्यक्ति के अन्य जाति की महिला से शादी कर लेने से गाँव में पंचायत बैठाकर उसका आजीवन बहिष्कार कर दिया गया।यहाँ तक उस व्यक्ति की मृत्यु होने पर भी गाँव में उसका अंतिम संस्कार करने पर मनाही कर दी गई।रायपुर जिले के चिंगारिया में एक युवती के प्रेम विवाह करने पर समाज ने उस परिवार का बहिष्कार कर दिया।

हमारे देश में अनेक जातियाँ, उपजातियाँ हैं जिनके अलग-अलग कानून कायदे बने हुए हैं तथा उन समाज में विभिन्न दबंगों का बेलगाम पक्ष चलता है तथा उनमें परम्पराओं व रीति रिवाजों का मानने व जबरदस्ती मनवाने के नाम पर खुलेआम संविधान की अवहेलना की जाती है, जिसमें समाज से बहिष्कार कर देना, हुक्का-पानी बंद कर देना आदि है।मेरा सामाजिक जागरूकता के अभियान के चलते-चलते छत्तीसगढ़ में विभिन्न गाँवों में जाना होता है जिसमें ग्रामीणों से बातचीत होती है तब अनेक जानकारियाँ मिलती है जो प्रगतिशील व शहरी समाज की नजर में नहीं आ पाती।

सामाजिक बहिष्कार यह एक ऐसा हथियार है जो किसी भी परिवार का जीवन बरबाद कर देता है। मेरी मुलाकात अनेक ऐसे परिवारों से हुई जो अपनी विपदाएँ बताते-बताते आँसू भर आये। जाति, धर्म, वर्ग, छुआछूत व सामाजिक बंधन आज भी ग्रामीण अँचल में इतने कठोर हैं कि उनके बारे में सोच न सकते। तेंदुआ में मुझे पता चला कि सामाजिक रूप से बहिष्कृत किये गये व्यक्ति की मृत्यु हो गई है व उसकी विधवा अकेली है। बहिष्कार के कारण कोई ग्रामीण अंतिम संस्कार के लिए तैयार नहीं है तब पूछे जाने पर पता चला कि उस परिवार को यदि कोई सामान भी लेना होता था तो उसे गाँव बाहर, शहर से लेना होता था। गाँव में उसे कोई काम नहीं मिलता था, मजदूरों की कमी होने के बाद भी उनसे काम नहीं मिलता। गाँव में नाई, सेलून, होटल, किराना दुकान कहीं भी उससे कोई व्यवहार नहीं रखा जाता न ही तालाब में नहाने, हेन्ड पम्प में पानी भरने की अनुमति नहीं थी।यहाँ तक मरने के बाद भी उसका अंतिम संस्कार भी गाँव से बाहर करना पड़ा। एक अन्य परिवार ने मुझे बताया कि उस पर सामाजिक बहिष्कार के कारण उसके बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गया है। गाँव में बाकी बच्चे उसके बच्चों के साथ कक्षा में बैठना नहीं चाहते, यहाँ तक कि उसकी बेटी को ट्यूशन से भी निकाल दिया गया। एक महिला तो अपनी आपबीती बताते-बताते रो पड़ी। उसने कहा उसे हैन्ड पम्प में सबसे आखिरी में पानी भरने की अनुमति है। उसे अपना बाल्टी रखने के बाद हैन्ड पम्प व जमीन को पानी से धोना पड़ता है तभी वह पानी भर पाती है। सामाजिक बहिष्कार के शिकार एक परिवार ने कहा उसकी बिटिया ने उसकी जाति से बाहर विवाह कर लिया तो गाँव में जब पता चला तो उसका बैठक बुलाकर बहिष्कार कर दिया गया। उसका व उसके परिवार से पूरा गाँव संबंध नहीं रखता। यहाँ तक कि गाँव के लोग उससे नजर नहीं मिलाते, उसकी बात का जवाब नहीं देते, गाँव के किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में उसे नहीं आने की मनाही है। निजी कार्यक्रमों में उसे बुलाया ही नहीं जाता। वे अपने गाँव में समाज से कट गये हैं, ऐसे में आत्महत्या की इच्छा होती है। ऐसी भी घटनाएँ हुई हैं कि समाज के ऐसे व्यक्ति त्रस्त होकर बहिष्कृत न केवल गाँव छोडऩे की कोशिश की पलायन भी किया पर कुछ लोगों ने सबकुछ करने के बाद भी असफल रहने पर आत्महत्या कर ली।

ग्रामीण अँचल में किसी मामले में सामाजिक पंचायतों की बैठक होने के नाम से संबंधित पक्षों व उनके परिजनों का दिन का चैन हराम हो जाता है उनकी रातों की नींद उड़ जाती है, उनके मन में शारीरिक व आर्थिक सुरक्षा की चिंता समा जाती है, न जाने समाज के ठेकेदार कैसा निर्णय सुनाने वाले हैं। क्योंकि पंचायतों के निर्णय अप्रिय व जानलेवा होते हैं जबकि प्राचीनकाल में जब वृहद स्तर पर कानून, अदालतें नहीं थी तब स्थानीय लोग अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिये समाज के प्रमुख व सर्वमान्य लोगों के पास जाते थे तथा वे वास्तव में उन विवादों को शांतिप्रिय ढंग से सुलझाते थे। आज किसी देश में जहाँ पुलिस प्रशासन है, कानून है, अदालतें हैं वहाँ किसी भी सामाजिक पंचायत को कानून अपने हाथ में लेकर मनमाने फैसले लेने का कोई अधिकार नहीं है।

स्वतंत्रता के छह दशकों के बाद आज भी देश में सामाजिक बहिष्कार के विरोध में कोई सक्षम कानून नहीं है।इस कारण पीडि़त व्यक्ति यदि कहीं शिकायत भी कराता है तो उस पर कड़ी कार्यवाही नहीं होती। इस संबंध में जब हमने केन्द्र सरकार व राज्य सरकार के विभागों, नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो से जानकारी मांगी तब भी कोई आँकड़े उपलब्ध न होने की जानकारी मिली। जबकि सामाजिक बहिष्कार के मामले लगातार सामने आ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कानून बनाने से ही यह सामाजिक कुरीति समाप्त हो जायेगी, पर जनजागरण अभियान के कानून बनने के साथ ही कुरीति से अच्छी तरह से निपटा जा सकेगा।

 

सम्प्रति- लेखक डा.दिनेश मिश्रा अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष एवं कोई नारी डायन (टोनही)नहीं अभियान के संयोजक है।