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हिमांशु द्विवेदी-आसिफ इकबालः दो धाराओं के पत्रकार – दीपक पाचपोर

दीपक पाचपोर

छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर रायपुर में आयोजित राज्योत्सव में राज्य अलंकरण पुरस्कार हेतु अलग-अलग श्रेणियों में जिन चार पत्रकारों को सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है, उनमें दो ऐसे हैं जो मेरे दिल के बेहद करीब हैं- हरिभूमि समाचारपत्र समूह के प्रबंध संपादक डॉ.हिमांशु द्विवेदी और आसिफ इकबाल। इन्हें क्रमशः ‘माधवराव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता पुरस्कार’ और ‘चंदूलाल चंद्राकर स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार’ 5 नवंबर को होने वाले समापन समारोह में बतौर मुख्य अतिथि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद देंगे।

इन दोनों ही पत्रकारों के बीच एक पूरी पीढ़ी का फासला है, अनेक विषमताएं हैं लेकिन दोनों के ही भीतर अलग-अलग परिवेश में रहकर भी लेखन और अखबारनवीसी का अनंत स्रोत प्रवाहित होता चला आ रहा है। एक ओर तो आसिफ पिछले लगभग डेढ़ दशक से किसी भी अखबार से वैसे सक्रिय रूप से नहीं जुड़े हैं (नाममात्र के लिए उनके प्रशंसक द्वारा निकाले जाने वाले एक समाचारपत्र के संपादक तो हैं, परंतु विशेष भूमिका नहीं निभाते और न ही समय देते हैं) जैसा कुछ अरसा पहले तक भिड़े हुए थे, तो हिमांशु द्विवेदी इसी अवधि में उभरे छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के सुपरस्टार हैं। कुछ माह पहले आसिफ के लेखों और रिपोर्टों के संग्रह का विमोचन करते हुए मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने कहा था कि “लगभग सारे पत्रकार कोई न कोई काम लेकर मेरे दरवाजे पर आ चुके हैं, परंतु यह अकेला ऐसा शख्स है, जो कभी मेरे पास कोई मदद मांगने नहीं आया।” दूसरी तरफ हिमांशु ऐसे पत्रकार हैं, जिन्होंने बहुत अल्प समय में बड़ी छलांग लगाई है और इसका कारण न केवल उनकी प्रबंधकीय कुशलता है बल्कि सत्ता व राजनीति के गलियारों में उनकी धमक है, जिसे सभी महसूस करते हैं। मंत्रिमंडल के सदस्य, हैवीवेट राजनीतिज्ञ, समाज में निर्णायक भूमिका निभाने वाले छोटे-बड़े चेहरे-मोहरे और उच्चाधिकारी उनसे गलबहियां करते नजर आते हैं। उनका लोकसंग्रह व्यापक है। हर रोज वे दो-चार मंत्रियों-सचिवों या बड़े नेताओं के घर-कार्यालय नाप आते हैं, तो सुबह-शाम ‘हरिभूमि’ के प्रांगण में अनेक असरदार लोगों की कतारें उनसे मिलने का इंतजार करती रहती हैं। पत्रकारिता करने के ये दोनों ही अपने-अपने ढंग हैं, जो स्वभाव, प्रवृत्ति, पसंद और संस्थान की जरूरत के मुताबिक तय होते हैं। आसिफ अपने कैरियर के दौरान सभी तरह के लोगों के बीच उठते-बैठते तो थे, परंतु बहुत ज्यादा अपनापा उन्होंने कैरियर के बाद बनाकर नहीं रखा है। जीवन को अपनी एक खेल पत्रिका, परिवार और अपने कुछ निजी मित्रों के बीच सहेजकर रखा हुआ है। अलबत्ता उनके किये कामों का ही यह असर है कि उन्हें आज भी पत्रकारिता में सक्रिय लोगों के बीच वैसा ही सम्मान मिलता है, जो आज से करीब डेढ़ दशक पहले तक प्राप्त होता था। पत्रकार संगठनों से वे जुड़े हैं, निष्पक्ष चुनाव कराते हैं, इस पेशे से जुड़े कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं। बस! आंचलिक पत्रकारिता की जो भी कमियां और सीमाएं रही हैं, उसी में आसिफ ने अपने काम की बदौलत ऐसी धाक जमाई थी, जिसकी अनुगूंज अब तक सुनाई देती है। पत्रकारिता के बदले हुए परिवेश में आसिफ खुद को नहीं ढाल सके, जिसमें हिमांशु जी की एक तरह से शुरुआत ही हुई है। आसिफ हमारी परंपरागत पत्रकारिता की आखिरी निशानी की तरह हैं, तो हिमांशु वर्तमान पत्रकारिता की नुमाइंदी करते हैं, जिसमें आपको अपने भीतर के पत्रकार और प्रबंधक को साथ लेकर चलना होता है। हालांकि अक्सर होता यह है कि भीतर के पत्रकार को जीवित रखने की कोशिश में संपादक एक असफल प्रबंधक हो जाता है, तो प्रबंधक को शक्ति प्रदान करने के चक्कर में उसके अंदर का पत्रकार बेमौत मारा जाता है। हिमांशु जी इस मायने में सफल हुए हैं- उनमें ऐसा कोई अंतर्द्वंद्व नहीं है और उनके भीतर संपादक व प्रबंधक के बीच अच्छी छनती है। आज के व्यवसायिक माहौल में कौन सी पत्रकारीय शैली सही है, कौन सी गलत, यह तय करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है।
अनेक ऐसी बातें हैं, जो मुझे इन दोनों ही हस्तियों का दीवाना बनाती है। आसिफ से मेरा नाता 1973 से है। मैंने जब अंग्रेजी अखबार ‘हितवाद’ से अपना कैरियर शुरू किया, अखबारी दुनिया का वह मेरा पहला मित्र बना। रायपुर में अकेले रहने के कारण उसका कुटुम्ब मेरा ही विस्तारित परिवार था। किसी फिल्मी हीरो की तरह बेहद स्मार्ट, क्रिकेट के बेहतरीन खिलाड़ी और अपने पिता की तरह जमाने से चार कदम आगे चलने वाले युवा आसिफ का प्यार अपनी सहपाठिन आशा वारोरकर से हुआ, तो उनकी शादी का हलफिया गवाह मैं बना- अपने स्वजातीय महाराष्ट्रीय ब्राम्हण समाज में खलनायक बनकर। आसिफ का घर राष्ट्रीय एकात्मता का प्रतिनिधि है। उसके पिता अब्दुल हमीद खान ने अंजुम से शादी की जो मायके की तरफ से शिंदे परिवार की थीं। आसिफ की बहन परवीन ने भी हिंदू परिवार में शादी की है और अब वह पद्मिनी महापात्र हैं। शायद यही कारण है कि वे हिंदूवादी अखबार ‘युगधर्म’ में काम करने वाले मुस्लिम पत्रकार थे, जिनकी संस्थान के प्रति निष्ठा हमेशा संदेह से परे रही। हिमांशु द्विवेदी का रूझान चाहे हिंदूवादी भारतीय जनता पार्टी की ओर हो, अपने नजरिये और व्यवहार में वे बेहद उदार और सर्व धर्म समभावी हैं। दोनों ही पत्रकारिता के जरिए अकूत ताकत बटोरकर भी अत्यंत विनम्र और मित्रों पर जान लुटाने वाले व्यक्तित्व हैं।
वर्षों छत्तीसगढ़ से बाहर रहकर भी मेरा संपर्क आसिफ से बना रहता था। ऐसा भी हुआ कि आसिफ जब कोरबा में नौकरी करने आये तो घर मिलने तक मेरे ही क्वार्टर में रहे और जब मैं रायपुर नौकरी करने आया तो उसका घर मेरा आसरा बना। डॉ. हिमांशु से मेरा परिचय 2002 के बाद हुआ, जब मैं भारत एल्यूमीनियम कंपनी लिमिटेड में जनसंपर्क प्रमुख बनकर छत्तीसगढ़ लौटा। कंपनी के संबंध में छपने वाली खबरों को लेकर प्रारंभिक मुलाकातें उनसे हुईं, जो बाद में परस्पर सम्मान और भावात्मक लगाव में बदलती गई। मौका-बेमौका कठिनाइयों में वे मेरे मददगार भी साबित होते रहे, जरूरत पड़ने पर मेरे डोलायमान स्वभाव के बावजूद नौकरी भी देते रहे। मैं ही ऐसा हतभागी हूं, जो उनके साथ लंबा काम करने का अवसर नहीं बना सका।
ऐसी ही कुछ समताओं और समान्तरताओं के बावजूद दोनों में अनेक फर्क भी हैं। आसिफ पत्रकारिता की पुरातन हो चली परंपराओं में जीने वाले पत्रकार हैं, तो हिमांशु आधुनिक पत्रकारिता की चमक से आलोकित अखबारनवीस हैं। उनकी एक जेब में संपादकीय और दूसरी में अक्खा प्रबंधन समाया हुआ है।बहुत कम उम्र में उन्होंने बड़ा मुकाम हासिल कर लिया, जिसका श्रेय उनके काम के समन्वयवादी स्टाईल और सर्वस्पर्शी दृष्टिकोण को जाता है। वे पत्रकारिता के बड़े-बड़े मूल्यों का खोखला नाद नहीं करते, मालिक और पत्रकार सेवकों के अंतर्संबंधों को व्यवहारिक तौर पर अपनाते हैं। वे साफ कहते हैं- ‘‘आपके विचारों को प्रकाशित करने के लिए आखिर कोई मालिक क्यों पैसे लगाएगा!’’ वे जानते हैं कि अखबार की व्यवसायिकता को अगर व्यवहारिक रूप से न अपनाया जाए तो अखबार ‘टाइटेनिक’ की तरह अपने साथ सैकड़ों कर्मचारियों को भी डुबो देगा। राजनीति अखबार को क्या मदद कर सकती है, यह भी वे जानते हैं। लंबे समय तक इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी प्रकाशन ‘जनसत्ता’ में कार्य का मेरा अनुभव दूसरा था, जहां मालिक भी अपना फोटो छपने पर नाराज हो जाते थे। मैं हैरत के साथ हिमांशु जी के सहज आत्मविश्वास का मुरीद बन जाता हूं जब मैं देखता हूं कि कैसे वे अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक समारोहों से भी समाज के श्रेष्ठीवर्ग को जोड़कर उसका लाभ समाचारपत्र की ओर मोड़ देते हैं।मुझे वे एक रोमांटिक शख्सियत लगते हैं, जो पत्रकारिता को रुमानी अंदाज में जीते हैं। ‘काला चश्मा तैनूं जचदाए’ समेत उनका बटनबंद कॉलर वाला शर्ट, लकदक कपड़ों का चुनाव, आलीशान कारों में कमांडोज़ के साथ चलना मुझे इसलिए आकर्षित करता है क्योंकि वक्त पड़ने पर वे जनसुराज अभियान की वास्तविकता देखने मई-जून की चिलचिलाती धूप में भी निकल पड़ते हैं। अपने प्रबंधकीय बोझ के नीचे उन्होंने अपनी कलम को दबने नहीं दिया है। कम लिखते हैं, पर जब भी लिखते हैं, फोड़कर रख देते हैं। उनके बारे में जो भी कहा जाए, खुद मैंने पाया है कि ‘हरिभूमि’ में उन्होंने सभी राजनैतिक दलों और विचारों को महत्व दिया है, बावजूद इसके कि ‘हरिभूमि’ के मालिकों का जुड़ाव एक विशिष्ट विचारधारा से है तथा इसी के बल पर वे अपना आर्थिक साम्राज्य भी बनाए हुए हैं,जिन्हें थामे रखना स्वाभाविक रूप से हिमांशु जी के पदेन उत्तरदायित्वों में से एक है।अपने प्रबंधकीय कौशल तथा व्यवहार कुशलता के चलते उन्होंने विरोधी राजनैतिक दर्शन में आस्था रखने वाले साथियों और लोगों को कभी निराश नहीं किया और न ही व्यवसाय का बोझ सहकर्मियों पर डाला। कोई भी राजनैतिक दल यह शिकायत नहीं कर सकता कि उनके विचारों और खबरों को ‘हरिभूमि’ में समुचित स्थान नहीं मिलता। शायद यही कारण है कि सभी दलों में उनके मित्र हैं और काफी कम समय में ‘हरिभूमि’ को उन्होंने छत्तीसगढ़ के स्थापित अखबारों के खिलाफ मुकाबले में खड़ा कर दिया है। वे बहुत ही उम्दा वक्ता हैं और मुझे अक्सर लगता है कि आने वाले समय में हम उन्हें पढ़ने के साथ बड़े और राष्ट्रीय मंचों पर बोलता सुन सकेंगे। सच कहा जाए तो उनके भाषणों का स्तर देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था यानी संसद के किसी भी सदन के सदस्यों के बराबर, अनेक से बेहतर, होता है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर हम उन्हें आने वाले समय में राज्य सभा में देखें। वे संपादकों में ऐसे अपवाद हैं जो प्रतिस्पर्धी अखबारों के स्थापना दिवस समारोहों में भी उदारतापूर्वक सहभागी होते हैं। लेखन-प्रबंधन-मिलनसारिता के विरल संयोजन ने उन्हें ऐसा कामयाब बनाया है। कम से कम मेरी जानकारी के नौकरी करने वाले संपादकों में वे सर्वाधिक ताकतवर हैं।
इधर आसिफ का अपने मित्रों के साथ तो हमेशा स्नेह रहा है, लेकिन उनकी शिष्य परंपरा में अनेक ऐसे लोग मिल जाएंगे जो उन्हें आज भी ‘जल्लाद’ के रूप में याद करते हैं। आसिफ खुद बहुत ही सलीके से जीने वाले और इसी अंदाज में पत्रकारिता करने वाले रहे हैं। अपने लिखने-पढ़ने की चीजों, टेबल-कुर्सी से लेकर खबरों को भी बहुत ही तरतीब से पेश करते हैं और वैसी ही नफ़ासत व सटीकता की अपेक्षा अपने चेलों से भी रखते हैं। यही कारण है कि उनकी ठुंकाई-पिटाई को सह सकने में सफल हो चुके पत्रकार आज प्रदेश के अनेक समाचार पत्रों में अपना बेहतरीन योगदान दे रहे हैं। (यह विडम्बना ही है कि छत्तीसगढ़ के ज्यादातर प्रमुख अखबारों में काम करने के बावजूद वे किसी प्रमुख समाचारपत्र में संपादक नहीं बन सके।) हिमांशु जी अपने सहकर्मियों के प्रति बेहद उदार और सहयोगात्मक रहते हैं। अनेक लोगों को अपनी ओर से आर्थिक मदद कर देना, आड़े वक्त पर उन्हें सहारा देना उनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है, जो उन्हें एक लोकप्रिय संस्थान प्रमुख का दर्जा दिलाती है। अखबार के काम-काज में वे न्यूनतम हस्तक्षेप करते हैं लेकिन सतर्कता पर्याप्त बरतते हुए पत्र को उसके उद्देश्यों से विचलित नहीं होने देते। निर्धारित तारीख पर अपने कर्मचारियों को वेतन देने वाले गिने-चुने अखबारों में हरिभूमि ही है। यह उनकी कार्य कुशलता ही नहीं, सहकर्मियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता भी है।शायद ये कुछ ऐसे कारण हैं, जिनके चलते इन दोनों को मिले पुरस्कारों से मैं वाकई मुदित हूं।हिमांशु जी और आसिफ भाई को मेरी ढेरों बधाइयां!

 

सम्प्रति-साभार वरिष्ठ पत्रकार श्री दीपक पाचपोर की फेसबुक वाल से।श्री पाचपोर जनसत्ता समेत कई प्रमुख समाचार पत्रों से जुड़े रहे है।