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यादों-सपनों का अपना शहर सुलतानपुर – राजखन्ना

केरोसिन का डिब्बा-कुप्पी किनारे हुए। लैम्प पोस्ट जिनकी चिमनी शाम होते पोछी-चमकाई जाती, बेनूर हुए। स्ट्रीट लाइट के खंभे खड़े होने और नीम से ढंके शहर के दरख़्त जमीन पर आने शुरू हुए। पाइप लाइन के लिए शहर ने अगले चार-छह साल इंतजार किया। घरों में नल से पानी पहुंचा। उधर सड़क के मटमैले कंकड़ों की धूल शांत करने के लिए पानी की टंकी खींचती भैंसा गाड़ी निकलना बंद हो गईं। गली-मोहल्ले-चौराहों के किनारे पानी की टंकियां बनी। जल्दी ही टोटियां उखड़ी-टूटी। ऐसे ज्यादातर ठिकाने गुमटियों-खोखों से ढंक गए। रेलवे स्टेशन रोड और बाधमंडी में इक्कों और शहर में घूमते जानवरों के पानी पीने के लिए बनी चरही भी लापता हो गई।
1857 के पहले आबादी गोमती के उत्तर बसती थी। पुराना सुल्तानपुर। आजादी की पहली लड़ाई में वहां के वाशिंदों की बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के बाद अंग्रेजी फौजों के कोप का शिकार हुआ। बस्तियां आग और तोप के गोलों के हवाले कर दी गईं। इलाका चिराग़े गुल एलान हुआ। गोमती के दायें अंग्रेजी पलटन का ठिकाना था। पल्टन बाजार, गोरा बैरेक, मेजरगंज, पार्किन्सगंज मोहल्ले तभी के नाम समेटें हैं। तब गोमती पर पुल नहीं था। अंग्रेजों को आजादी के दीवानों को जीतने में भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। इस जीत के बाद अंग्रेजों ने मौजूदा शहर बसाया।
गोमती का दायां किनारा ऊंचाई पर बाढ़ के संकट से मुक्त था। चौड़ी सड़कें बनीं। दोनों किनारे नीम के पेड़ों की कतार। नई पीढ़ी को अजूबा लगेगा। पूरा चौक भी नीम की ठंडी छांव में था। गलियां भी ऐसी जिनमें ट्रक गुजर सके। गभड़िया और गंदा नाले पूरे शहर की गंदगी बहा ले जाते। जहां आज आफिसर्स कालोनी के बंगले आबाद हैं, वहां दूर तक पसरा कम्पनी बाग था। कैथोलिक चर्च के विशाल परिसर में तब स्टेला मैरिज कांवेंट ने हिस्सा नहीं बांटा था। प्रोटेस्टेंट चर्च परिसर में दुकानों-मकानों का दूर तक पता नहीं था। सुंदर लाल पार्क का बड़ा मैदान तब बड़ी नुमाइश, सर्कस, सभाओं और नियमित क्रिकेट के लिए सुरक्षित था। फायर ब्रिगेड दफ्तर की इमारतें जहां आज खड़ी हैं,वहां एक खूबसूरत पार्क हुआ करता था। बस स्टेशन से आगे फिर गोलाघाट तक के दूर पीछे जंगल था। जीआईसी की फील्ड पर तब इमारतें नहीं उगीं थीं। गया प्रसाद, जगराम दास, राम जानकी मंदिर, सुराजदीन मंदिर जैसी धर्मशालाओं पर तब स्थाई कब्जे नहीं हुए थे।
सच है डामर की सड़कें नहीं थीं। हफ्ते में मंगल-शनीचर हाट लगता। सवारी कम थीं। गिनी-चुनी रेल गाड़ियां स्टेशन से गुजरती-ठहरती। बसें-लारियां भी अड्डों पर चुनिंदा थीं। पर बस स्टेशन और वर्कशाप के बड़े-बड़े शेड पर देर शाम आसरा लेते कबूतरों-पक्षियों के झुंड सुरक्षित थे। कारें उत्सुकता जगातीं। अपने घर के पास के चौराहों पर खड़े बच्चों के पास उनकी गिनती करना एक बड़ा काम हुआ करता था। शाम कुछ जल्दी उतरती। लैम्प-लालटेन की मंद रोशनी में शहर जल्द ऊंघता। रात कुछ लंबी होती लेकिन सुबह मुर्गे की बांग भी सुनाई देती। पक्षियों की चहचाहट भी। आंगन में गौरैय्या भी फुदकती और हरसिंगार के फूलों की बिछी चादर भी। कलेक्ट्रेट में चौकीदार का खतरा था। पर वहां अमियां थीं। इमलियां भी।
तरक्की जरूरी थी। हुई। वक्त के साथ चलना था। दो कदम बढ़ के चले। आबादी बढ़ी। पुरानी बस्तियां घनी होती गईं। रिहाइशी इलाकों में बाजार-स्कूल सब बन गए। नए मोहल्ले बसे। अनियोजित। अराजक विकास। पालिका से अपेक्षाएं बढ़ीं और उसे पैसे की जरूरत। पालिका तिजारत में लग गई। सबसे आसान रास्ता दुकानों का निर्माण। उसकी पेशगी-प्रीमियम-किराया। दूकानें सुंदर लाल मैदान निगल गईं। फिर शहर की भीतरी सड़कें। मुख्य मार्ग भी नहीं बख़्शे गए। नीचे जब जगह नहीं बचीं तो ऊपरी मंजिल बना दी गई। कमजोर बुनियाद ने लचक दिखाई तो खंभों का सहारा दे दिया। जरूरतें कब पूरी हुईं। पेशाबघर और कांजी हाउस तक नहीं छोड़े गए। जिला पंचायत भी पीछे नहीं रही। उसने अपने नार्मल स्कूल कम्पाउंड की कब्जे की हर सूत जमीन पर दूकानें बनवा दीं। अपना प्रवेश द्वार असुरक्षित कर दिया। ट्रस्ट-संस्थाएं भी पीछे नहीं रहीं। मौनी मंदिर की दुकानों-आवासों में मंदिर तलाशिएगा। राम लीला मैदान के स्कूल-दुकानों में गुम मैदान को खोजिएगा।
तो तरक्की की दौड़ में लगे शहर की नई बस्तियों में एक चौपहिया विपरीत दशा से आ रहे दोपहिया की राह रोकने को काफी हैं। नालियों के कीचड़-पानी और रास्ते के कूड़े से होकर गुजरना इस तरक्की की एक शर्त है। सात दशकों के बाद यहां सीवेज का बंदोबस्त नहीं। रोज निकलने वाले कूड़े के निस्तारण का इंतजाम इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए जमीन नहीं। केंद्र इसे सबसे गंदे शहर में गिनता है। बिजली-पानी और नगरीय सुविधाओं सब का टोटा है। अतिक्रमण-जाम के पाटों बीच शहर कसमसा-कराह रहा है। कभी गोलाघाट से दरियापुर पंद्रह मिनट में पैदल टहलते थे। पूरे शहर को सायकिल से इतने ही वक्त में नापते थे। अब हर जाम आधा-पौन घंटा ले जाता है। गोमती के उजाड़ पुराने पुल से निहार रहा हूं। गोमती के मैले आंचल में रोशनियों के बीच अंतहीन समस्याओं के अंधेरे में डूबा शहर बेचैन करता है। वह शहर जो कभी नीम के पेड़ों और साफ सुथरे माहौल बीच उस दौर की जानलेवा टीबी के मरीजों का निदान स्थल था, लंबे दौर से इसे सुरक्षा देने वालों का चारागाह है। फिर भी सपनों-अपनों का शहर ही अच्छा लगता है। जो कहीं भी रहो। शाम ढलते कहीं रुकने नहीं देता। पास बुला लेता है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।उन्होने अमेठी के भी महज कुछ वर्षों पहले तक जिला मुख्यालय रहे सुलतानपुर शहर का अतीत से वर्तमान तक बहुत ही सिलसिलेवार सुन्दर और वास्तविक चित्रण किया है।