यू पी में अपने बुरे दिनों में भी भाजपा शहरी निकाय चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करती रही है। लेकिन इस बार की उसकी जीत अलग कारणों से महत्वपूर्ण हो गई है। केंद्र में उसकी साढ़े तीन साल से सरकार है।प्रदेश में कुछ महीनो पहले ही प्रचंड बहुमत से पार्टी लम्बे वनवास के बाद सता में आई है।स्वाभाविक रूप से ऐसे में यह चुनाव केंद्र- प्रदेश की सरकार और पार्टी की लोकप्रियता के इम्तेहान के रूप में लिए गए। अनुकूल नतीजों ने भाजपा का उत्साह बढ़ाया है।
नोटबंदी और जी एस टी को लेकर नाराजगी के मुखर स्वर सबसे ज्यादा शहरी क्षेत्रों में उठे थे। माना जा रहा था कि भाजपा के परम्परागत समर्थक इन सवालों पर पार्टी और उसकी सरकार से खिन्न है। मोदी को लेकर मोहभंग और लहर उतार का भी शोर था। गुजरात का रण भी इस चुनाव से जुड़ गया था।कांग्रेस इस चुनाव में कुछ कर सकेगी इसकी उम्मीद शायद कांग्रेस समर्थकों को भी न रही हो लेकिन भाजपा के खिलाफ नतीजे जाने की हालत में कांग्रेस गुजरात में इसके लाभ की उम्मीद लगाये थी। नतीजों ने कांग्रेस को निराश किया तो भाजपा के हौसले बुलंद किये।
फ़िलहाल भाजपा के लिए इन चुनावों की यह जीत यू पी से ज्यादा गुजरात के लिए महत्वपूर्ण है।प्रदेश में कांग्रेस भले कहीं मुकाबले में न रही हो लेकिन अमित शाह, स्मृति ईरानी, योगी सहित भाजपा के तमाम महत्वपूर्ण नेता गुजरात जीतने निकले राहुल गांधी को अमेठी की दुर्गति की याद दिला रहे हैं। गुजरात से यूपी के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। वह वहां इसका असर छोड़ेंगे इसकी बहुत उम्मीद नहीं करनी चाहिए। लेकिन मतदान के पूर्व प्रचार युद्ध के दौरान प्रतिद्वंदी की जीत-हार का एक मनोवैज्ञानिक असर होता है। जीते पक्ष को हौसला मिलता है।पराजित का मनोबल कमजोर होता है। भाजपा इस मौके को छोड़ना नहीं चाहती।इसलिए यू पी के अपने मुख्य प्रतिद्वंदी सपा-बसपा की ओर से बेपरवाह है।
पार्टी गुजरात में राहुल गांधी और कांग्रेस को यू पी और खासकर अमेठी के नतीजों का आइना दिखाने की कोशिश में जुटी है। अमेठी गांधी परिवार का पर्याय है और वहां के हर छोटे बड़े चुनाव के नतीजे से इस परिवार की अपने गढ़ में हैसियत मापी जाती है। अमेठी को जो जानते हैं, उनके लिए वहां कांग्रेस की हार में कुछ ख़ास नहीं है। कांग्रेस लोकसभा छोड़ बाकी चुनावों में बार-बार वहां हारती रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अमेठी की पाँचों विधानसभा सीटों पर हारी। इस बार तो वहां की चार में दो नगर पंचायतों में उसके उम्मीदवार भी नहीं थे।
अमेठी को लेकर पार्टी का हर छोटा- बड़ा फैसला यहां तक कि वहां पार्टी के किसी नेता का कार्यक्रम सिर्फ और सिर्फ गांधी परिवार की सहमति से होता है। वहाँ का पार्टी प्रबंधन स्थानीय नेता-कार्यकर्त्ता नहीं बल्कि गांधी परिवार के वेतनभोगी प्रतिनिधि करते हैं। स्वाभाविक रूप से उन्हें राहुल गांधी के हुक्म का इन्तजार होता है। राहुल के सामने पूरी पार्टी सँभालने की चुनौती है और यह चुनौती उन्हें अमेठी के लिए मुश्किल से वक्त देती है। उनके महीनो के अंतराल पर अमेठी के दौरे रस्मी होते हैं। फिर भी अमेठी उन्हें जिताती है। इसलिए क्योंकि अमेठी उनसे और उनके परिवार के जरिये देश-दुनिया में पहचानी जाती है।
विधानसभा और निकाय चुनाव में अमेठी अपनी अलग राह पकड़ती है।तब वहां के मतदाता राहुल या उनके परिवार के अमेठी से लम्बे जुड़ाव को दरकिनार कर अपनी जरूरतों और स्थानीय समीकरणों पर केंद्रित होते है। वे मान चुके हैं कि उनका बड़ा प्रतिनिधि आमतौर पर उसके काम नहीं आएगा ।इसलिए वे बाकी चुनावों में उन्हें चुनते हैं जिन तक उनकी पहुँच हो और जो सुलभ हो सके। राहुल को अपने संसदीय चुनाव अलावा अमेठी के अन्य चुनावों में पार्टी की दुर्गति का खामियाजा पूरे देश में भुगतना पड़ता है। गुजरात चुनाव में इसे फिर से दोहराया जा रहा है।
लोकतंत्र में एक चुनाव की परीक्षा पूरी होती है और अगली परीक्षा उसके नतीजों से जुड़ जाती है। भाजपा यू पी की जीत को गुजरात के लिए शुभ मान रही है। उधर गैर भाजपाई जो इस चुनाव में भाजपा की हार की उम्मीद में थे उन्होंने इन चुनाव के नतीजों के अन्यत्र असर को ख़ारिज करना शुरू कर दिया है। हार अगर विपक्षियो का मनोबल कमजोर कर रही है तो हर जीत भाजपा की जिम्मेदारी और लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ा रही है। शहर से केंद्र तक फ़िलहाल सिर्फ भाजपा और उसकी सरकारेँ है।उनके लिए अब किसी अगर-मगर की गुंजाइश नहीं। गुजरात सामने है तो 2019 भी दूर नहीं।
सम्प्रति-लेखक श्री राज खन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।एक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक से जुड़े श्री खन्ना जाने माने राजनीतिक विश्लेषक भी है।