भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने पहली बार देश के 27 राज्यों के सभी नगर निकायों की वित्तीय स्थिति को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की है, उस पर इन निकायों के साथ ही राज्य सरकारों को भी सावधान हो जाने की आवश्यकता है। आने वाले समय में राज्य सरकारों को अपने नगर निकायों की वित्तीय दशा सुधारने को लेकर गंभीरता का परिचय देना होगा, क्योंकि शहर ही विकास के वाहक होते हैं। वास्तविकता में यदि स्थानीय निकायों की स्थिति नहीं सुधरी तो वे सदैव समस्याओं से घिरे रहेंगे।
चिंता की बात यह है कि इससे शहरों में रहन-सहन का स्तर तो दुष्प्रभावित होगा ही, वे अर्थव्यवस्था को संबल भी प्रदान नहीं कर सकेंगे। रिजर्व बैंक के अनुसार, हमारे नगर निकाय वित्तीय रूप से इतने दुर्बल हैं कि उनका बजट ब्रिक्स देशों के स्थानीय निकायों की तुलना में बहुत कम है। इसका मतलब यह है कि हमारे शहर इस संगठन यानी ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका और चीन के शहरों की तरह प्रगति कर पाने में नाकाम हैं। आखिर जब उनके पास पर्याप्त धन ही नहीं होगा तो वे स्वयं का विकास कैसे कर सकते हैं?
भारतीय रिजर्व बैंक ने राजस्व के जिन नए स्रोतों की बात की है वह शहरों में रहने वाली जनसंख्या को थोड़ी महंगी पड़ सकती है, क्योंकि इसमें खाली जमीन पर टैक्स लगाने, भवनों के विस्तार या उनके आधुनिकीकरण को लेकर नई टैक्स व्यवस्था करने, भवनों से ज्यादा जमीन पर टैक्स लगाने, राज्य सरकार की तरफ से वसूली गई स्टांप ड्यूटी में नगर निगमों को ज्यादा हिस्सेदारी देने, नगर निगमों को निजी क्षेत्र के साथ मिल साझेदारी कर विकास करने जैसे सुझाव शामिल हैं। लेकिन इससे जनता पर कर का दुष्प्रभाव पड़ेगा और उन्हें महंगाई की मार सहनी पड़ सकती है। इसलिए यहां सोच विचार कर कदम उठाना होगा।
मजबूत बुनियादी ढांचा
मालूम हो कि वर्ष 2050 तक देश के नगरों में रहने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा हो जाएगी और देश की जीडीपी में भी उनका अहम हिस्सा होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम स्वयं को उनके समायोजन हेतु तैयार पा रहे हैं? वर्ष 2010 से 2050 के बीच भारत की शहरी आबादी में लगभग 50 करोड़ लोगों के शामिल हो जाने की संभावना है। वर्ष 2011 में देश की शहरी आबादी लगभग 37.7 करोड़ थी। इसका अर्थ यह हुआ कि मौजूदा स्तर पर ही जहां शहरी आवासीय व्यवस्था, बुनियादी सुविधाएं, जलापूर्ति, बिजली, परिवहन आदि का इतना अभाव है, वहीं उस समय तक इनकी आवश्यकता बढ़कर दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी। ऐसे में मानक में सुधार तथा विस्तार को लेकर कुछ जरूरी सुधारों की अनुमति देना भी पर्याप्त कदम होंगे।
कहा जाता है कि प्रभावी शासन की कमी के कारण शहरों की स्थिति खराब है। लेकिन इसका उल्टा भी सच है। जैसे भारतीय शहरों का प्रारूप और इसके बाद के अराजक विकास और भ्रष्टाचार स्वयं ही त्रुटिपूर्ण शासन का निर्माण करते हैं। नगरीय निकायों की वित्तीय स्थिति कमजोर होने का तथ्य एक ऐसे समय में सामने आया है, जब शहरीकरण के साथ ही शहरों की जनसंख्या भी तेजी से बढ़ रही है। यदि शहरों का बुनियादी ढांचा नहीं सुधरा तो वे जनसंख्या के बढ़ते बोझ को वहन करने में समर्थ नहीं होंगे।
लिहाजा इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कमजोर बुनियादी ढांचे वाले शहर आर्थिक रूप से अपेक्षित प्रगति नहीं कर सकते। यदि देश को आर्थिक रूप से सबल बनाना है तो शहरों के बुनियादी ढांचे को मजबूत करना ही होगा। यह काम तभी संभव है, जब स्थानीय निकाय वित्तीय रूप से सबल हों। चूंकि हमारे छोटे-बड़े शहरों के स्थानीय निकाय लालफीताशाही और भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं, इसलिए वे वैसे बुनियादी ढांचे का निर्माण करने में असमर्थ हैं।
खैर, असल मुद्दा केवल वित्तीय जरूरत ही नहीं है, बल्कि विकास और सुधार की बढ़ती चुनौती को लेकर हमारे शहरी प्रशासन और प्रबंधन की तैयारी भी है। वैसे भविष्य में भारत में झुग्गी बस्ती जैसे माहौल को बरदाश्त कर पाना आसान नहीं होगा। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कुछ बड़े बदलावों की आवश्यकता होगी। शहरी भूमि व्यवस्था में बदलाव : शहरी भूमि व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन किया जाना चाहिए, ताकि लेन-देन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सके और जमीन का तार्किक इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके। भवन निर्माण और योजनागत प्रतिबंधों पर नए सिरे से विचार होना चाहिए, ताकि अधिक सुगठित, सुगम सार्वजिनक परिवहन प्रणाली और ईंधन की कम खपत वाले शहर विकसित किए जा सकें। इसके अलावा शहरी प्रशासन का विकेंद्रीकरण और सशक्तीकरण भी करना होगा।
दरअसल शहरी सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व प्रशासन ही है। लेकिन चिंता की बात है कि हमारे शहरी प्रशासन एक तरह से शक्तिहीन हैं और राज्यों की राजधानियों के मंत्रालय ही वित्त, खर्च और योजना से संबंधित सभी प्रमुख फैसले लेते हैं। माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक हमारी जीडीपी का अधिकांश हिस्सा शहरों में पैदा होगा और अगर शहर पूरी तरह सशक्त स्थानीय प्रशासन वाले नहीं हुए और उन्हें योजना और खर्च में पूरी स्वायत्तता नहीं मिली तो यह विकास की राह में सबसे बड़ा बाधा होगी।