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गुजरात चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के लिए ‘लर्निंग-पॉइंट’ -उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

सोमवार को यह धुंधलका साफ हो जाएगा कि साबरमती नदी के किनारे अहमदाबाद में गुजरात का मुकुट किसके सिर पर सजेगा? ‘एग्जिट-पोल’ के बाद जनता भाजपा-कांग्रेस के बीच हार-जीत के मार्जिन के बारे में सोच रही है। लेकिन जीत के मार्जिन पर होने वाली बहस देश के दूरगामी राजनीतिक-हितों की नजर से बेमानी है। राजनैतिक-पंडितों के बीच यह बहस समय के रेगिस्तान में रेत के पहाड़ों पर पानी की कुछ बूंदे डालकर समुन्दर पैदा करने जैसा अर्थहीन कृत्य है। भाजपा और कांग्रेस ने जिस तरीके से गुजरात का चुनाव लड़ा है, उसके अनुभवों में एक नही, अनेक ‘लर्निंग-पॉइंट्स’ छिपे हैं। सवाल यह है कि गुजरात में चाहे जो जीते या हारे, क्या चुनाव के नतीजों से देश की राजनीति को ऩई दिशा मिल पाएगी?

गुजरात चुनाव के दरम्यान महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे का यह बयान ‘विकास के एजेण्डे’ पर करारा तमाचा था कि भाजपा अब ‘ब्लू-फिल्म’ दिखाकर चुनाव जीतना चाहती है। राज ठाकरे का बयान हार्दिक पटेल से संबंधित सेक्स-सीडी की श्रृंखला जारी करने के बाद आया था। गंदे राजनीतिक-परिदृश्य में जरूरी है कि राजनेता चुनाव के परिणामों से कुछ सीख कर आगे बढ़ें। गुजरात-चुनाव ने राजनीति को कटुता, कर्कशता और कलह के दल-दल में ढकेल दिया है।

भाजपा के चुनाव अभियानों के आकलन के बाद लगता है कि देश एक मर्तबा फिर 2014 के उसी मुकाम पर जाकर खड़ा हो गया है, जहां उसने विकास की उम्मीदों के साथ नरेन्द्र मोदी की उंगली पकड़ी थी। चुनाव में यह भ्रम टूट गया है कि गरीबी, गुरबत और बेरोजगारी दूर करने वाली विकास की धारणाएं भी राजनीति का मुख्य एजेण्डात हो सकती हैं। राजनीतिक-दल लोकसभा या विधानसभा चुनाव में हारने के बाद  आवश्यक करेक्शन करते है, लेकिन गुजरात के विधानसभा चुनाव में जीतने के बाद भी, जैसा कि एग्जिट-पोल कह रहे हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने राजनीतिक-समीक्षा और सुधार के लिए मुद्दों की कमी नहीं है। भाजपा को विजयी बनाने के प्रयासों में मोदी के राष्ट्रीय-व्यक्तित्व में कई खराशें लगी हैं। दुनिया में मोदी की छवि को विकास-पुरुष के रूप में गढ़ा गया है। चुनाव के आखिरी दौर में ‘धर्म-सम्प्रदाय’ और ‘पाकिस्तान’ और  ‘जात-बिरादरी’ के कथित हस्तक्षेप की तकरीरों ने मोदी की छवि को आहत किया है। उनकी तकरीरों का धुंआ आसानी से ठंडा होने वाला नहीं है। भाजपा को खुद यह सवाल बूझना होगा कि भारत-विजय के अश्वमेध पर निकले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनकी ही उपलब्धियों के तीर क्यों आहत कर रहे हैं? नोटबंदी, जीएसटी, बुलेट-ट्रेन और सी-प्लेन की सपनीली-उड़ानें कटाक्ष बनकर वापस क्यों लौट रही हैं? मोदी की वक्तृत्व-क्षमता का समूचा देश कायल है। उनकी लोकप्रियता कसौटियों की मोहताज नहीं है, फिर भी सोचना होगा कि भाजपा की दलीलों को जनता के गले मे उतारने में मोदी को दिक्कत क्यों हो रही थी? क्या लोगों का विश्वास टूटा है ? अथवा आश्वासनों का अतिरेक मोहभंग बनकर जनता के सामने खड़ा हो गया है?

गुजरात चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अभूतपूर्व आक्रमकता के साथ चुनाव लड़ा है, जबकि राहुल गांधी अपने नए राजनीतिक-अवतार में उभर कर सामने आए है। चुनाव में राहुल गांधी से ज्यादा नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। राहुल के सामने गुजरात में खोने के लिए कुछ नही था, जबकि भाजपा ने गुजरात के छोटे से पहाड़ को 2019 के लोकसभा चुनाव से जोड़ कर हिमालय में तब्दील कर दिया था। राहुल के लिए ‘प्लस-पॉइंट’ यह है कि उनके नए रूप को आमतौर पर नकारा नहीं गया है। इस मर्तबा चुनाव में राहुल के बारे में होने वाली चर्चाओं में ‘पप्पू’ नदारद था। भाजपा को राहुल के नए अवतार को गंभीरता से लेना होगा। वैसे कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले खड़ा करना राहुल के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। ऐनवक्त पर राजनीति के तूफानों को पीछे ढकेलने की जो कूबत भाजपा में है। उस तुलना में कांग्रेस कमजोर है। इस तारतम्य में कांग्रेस को सक्षम और समर्थ बनाने के लिए हिमालयी-प्रयासों की जरूरत होगी। राजनीतिक-अनुकूलताओं को भुनाने के लिए भी संगठन की ताकत जरूरी है।

 

सम्प्रति– लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के आज 18 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।