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बापू का आदर करने के बाद भी क्रांतिकारियों को उनका रास्ता नहीं था कुबूल – राज खन्ना

आजादी के पहले और बाद भी आंदोलन की अहिंसक और क्रांतिकारी धाराओं के बीच के विवाद बहस का मुद्दा रहें हैं। निजी तौर पर बापू का आदर करने के बाद भी क्रांतिकारियों को उनका रास्ता कुबूल नहीं था। उधर बापू ने भी क्रांतिकारियों की किसी भी हिंसक कार्रवाई के विरोध का कोई अवसर नहीं छोड़ा।

राज खन्ना

  सरदार भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु की 23 मार्च 1931 को फांसी के बाद लोगों का गुस्सा उफान पर था। इन फांसियों को रूकवाने से जुड़ी बापू की कोशिशों पर सवाल थे। जनभावनाएं उनके प्रतिकूल थीं। फांसी के सिर्फ छह दिन बाद कराची का कांग्रेस अधिवेशन इसका साक्षी बना। फांसी से कुछ पहले ही शहीद सुखदेव ने बापू को लाहौर के सेंट्रल जेल से एक पत्र लिखा था।मार्च 1931 के मध्य लाहौर सेंट्रल जेल में अपने ताऊ चिंतराम थापर और छोटे भाई मथरादास थापर से मुलाकात के दौरान उन्हें जेल अधिकारियों से नजर बचाकर क्रांतिकारी सुखदेव ने यह पत्र सौंपा था। ये पत्र गांधी जी के नाम था। सुखदेव ने कहा था कि ये पत्र सिर्फ गणेश शंकर विद्यार्थी ही गांधी जी तक पहुंचा सकते हैं। मथरादास पत्र लेकर कानपुर पहुंचे। कानपुर उस वक्त दंगों की आग में झुलस रहा था। कर्फ्यू लगा हुआ था। रेलवे स्टेशन से बाहर निकलना मुमकिन नहीं था। मथरादास को लाहौर वापस आना पड़ा। छोटे भाई ने शहीद बड़े भाई की ख्वाहिश पूरी करने की ठान ली। वे किसी तरह गांधी जी तक पहुंचना चाहते थे। छह दिन बाद ही कराची में कांग्रेस का अधिवेशन था। रास्ते में और कराची के कांग्रेस अधिवेशन में फांसी का मुद्दा छाया हुआ था। लोग गुस्से में थे। गांधी जी से बहुत नाराजगी थी। मथरादास ने , ” मेरे भाई शहीद सुखदेव ” में उस मंजर को बयान किया है। ये पत्र बापू के पास पहुंचने तक फांसी हो चुकी थी। इस ऐतिहासिक पत्र और अपने जबाब को 30 अप्रैल 1931 के ” हिंदी नवजीवन ” में बापू ने छापा। मंजिल एक थी लेकिन उनके रास्ते अलग थे। दोनो को एक दूसरे से शिकायतें थीं। अपने रास्ते को सही ठहराने के उनके तर्क भी थे। सुखदेव का पत्र और बापू का जबाब इन सब पर रोशनी डालता है।

   मथरादास जिस ट्रेन से कराची रवाना हुए, उसे रास्ते में जगह जगह रोक लिया जाता। लोग ट्रेन के आगे बैठ और लेट जाते। गुस्से भरी आवाजों के बीच महात्मा जी को बुलाओ , कहां हैं की मांग थी। खुद गांधी जी को लेकर जाने वाली ट्रेन भी मुश्किल से कराची पहुंच सकी थी। 29 मार्च को कांग्रेस के अधिवेशन स्थल पर भी काफी तनाव था। गांधी जी के प्रति नाराजगी के माहौल में किसी अनहोनी की आशंका में स्वयंसेवक गांधी जी सहित प्रमुख नेताओं के शिविरों की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर काफी सक्रिय थे। मथरादास ने गांधी जी तक पहुंचने के लिए डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू, पंजाब कांग्रेस के प्रधान डॉक्टर सत्यपाल,सरदार शार्दुल सिंह कवीश्वर आदि से संपर्क किया। सभी ने असमर्थता जता दी। आखिर में सरदार सिंह उर्फ झंडा सिंह की सलाह पर मथरादास ने अकेले ही कोशिशें शुरू की।

 लेकिन मथरादास की आगे की भी राह आसान नहीं थी। शिविर स्थल पर तमाम कोशिशों के बाद भी उन्हें प्रवेश नहीं मिल रहा था। वहां तैनात स्वयंसेवकों से उन्होंने कहा कि बापू को चिट्ठी दिए बिना वापस नहीं जाऊंगा। कुछ इंतजार के बाद छिपते हुए वे किसी तरह भीतर दाखिल हो गए। शिविरों के आगे लगी नाम पट्टिकाऐं पढ़ते वे महादेव देसाई के शिविर के आगे ठिठक गए। पास में ही गांधी जी का शिविर था।देसाई और गांधी जी के शिविर के बीच तैनात तीन स्वयंसेवक काफी सतर्क थे। छिपने की मथरादास की कोशिश नाकाम रही। एक ने शोर मचाया और फिर तीनों ने उन्हें दौड़ाया। वे डरकर भागे और महादेव देसाई के शिविर के सामने गिर गए। घुटने और कोहनियां छिल गईं। चेहरा और कपड़े धूल से सन गए। मथरा दास ने सोचा कि चुप रहा तो कुएं के पास पहुंच प्यासा लौटूंगा और सीधे सड़क पर फेंका जाऊंगा। इसके बाद महादेव देसाई के बाहर निकलने की उम्मीद में मथरादास ने जोर जोर से चिल्लाना शुरू किया।

भाग्य ने साथ दिया।शोर सुनकर देसाई बाहर निकले। स्वयंसेवको को गुजराती में डपटकर छोकरे को छोड़ने को कहा। खुद ही मथरादास को उठाया। परिचय और आने का कारण पूछा। शहीद सुखदेव का छोटा भाई बताने और बापू से मिलने का उद्देश्य बताने पर शिविर के भीतर ले गए। हाथ – मुंह धोने के लिए पानी दिया। थोड़ा सामान्य होने पर मथरादास ने उन्हें विस्तार से जानकारी दी। देसाई ने मथरादास की लगन की सराहना की। फिर गांधी जी को संबोधित सुखदेव के पत्र को पढ़ा। पत्र पढ़ने के बाद देसाई ने मथरा से पूछा , ” क्या तुम्हे विश्वास है कि यह पत्र मैं बापूजी को ही दूंगा?”

मथरादास ने उत्तर दिया था , ” हां मुझे पूर्ण विश्वास है।” बाद में मथरादास कराची के खुले अधिवेशन में मौजूद रहे। क्रांतिकारियों की फांसी के कारण वहां माहौल बहुत उत्तेजक था। देश के कोने कोने से आए प्रतिनिधि इन फांसियों को रोकने की नाकामी के कारण बहुत क्षुब्ध थे। सरदार पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू तक को लोग बोलने नहीं दे रहे थे। शहीदों के लिए रखे गए शोक प्रस्ताव के समय विवाद और तीव्र हो गया। इस माहौल में अधिवेशन की कार्यवाही आगे बढ़ाने में बहुत दिक्कत आ रही थी। अंततः बापू आगे बहुत आए। बहुत ही धैर्य और कौशल से उन्होंने लोगों के गुस्से को शांत किया था।

  सुखदेव ने बापू को “परमकृपालु महात्मा जी” और स्वयं को “अनेकों में एक” बताते हुए लिखा था, “समझौते (गांधी – इर्विन पैक्ट) के बाद क्रांतिकारियों से अपना आंदोलन बंद करने और अहिंसक उपायों के प्रयोग की आपने कई प्रकट प्रार्थनाएं की हैं। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही स्पष्ट है कि क्रांतिकारियों का आदर्श समाज सत्तावादी प्रजातंत्र स्थापित करना है और जब तक ये ध्येय प्राप्त न हो और जब तक आदर्श सिद्ध न हों ,वे लड़ाई जारी रखने के लिए बंधे हुए हैं। क्रांतिकारी युद्ध जुदा जुदा मौकों पर अलग रूप धारण करता है। कभी गुप्त, कभी प्रकट और कभी जीवन मरण का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में क्रांतिकारियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए। निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिकारी युद्ध में कोई महत्व नहीं होता। सुखदेव ने लिखा , ” मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास करते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं। विनाश और संहार में आनंद मनाते हैं। वस्तुस्थिति ठीक उल्टी है। वे सदैव कोई कदम उठाने से पहले खूब विचार कर लेते हैं। क्रांति के कार्य में दूसरे किसी अंग की अपेक्षा रचनात्मक पक्ष का महत्व समझते हैं लेकिन मौजूदा हालत में अपने संहारक अंग पर डटे रहने के अलावा कोई चारा नहीं है।”

कांग्रेस के आंदोलन स्थगित करने के बाद अहिंसक आंदोलन से जुड़े तमाम बंदी रिहा कर दिए गए। लेकिन क्रांतिकारी कैदियों को कोई राहत नहीं मिली। सुखदेव ने बापू का इस पहलू पर ध्यान आकृष्ट किया ,” 1915 से जेलों में पड़े गदर पार्टी के बीसियों कैदियों सजा की मियाद पूरी करने के बाद भी सड़ रहे हैं। मार्शल लॉ के बीसियों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाए पड़े हैं।यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है। देवगढ़, काकोरी, मछुआ बाजार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी भी जेलों में हैं। लाहौर, दिल्ली, चटगांव,बंबई, कलकत्ता और अन्य जगहों के आधा दर्जन से ज्यादा षड्यंत्र मामले चल रहे हैं। बहुसंख्यक क्रांतिकारी जिसमे स्त्रियां भी हैं भागते फिर रहे हैं। सचमुच आधा दर्जन से ज्यादा कैदी फांसी के इंतजार में हैं। ये सब होने के बाद भी आप उन्हें अपना आंदोलन स्थगित करने की सलाह देते हैं। ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि इस आंदोलन को कुचल देने में आप नौकरशाही की मदद कर रहे हैं और आपकी विनती का अर्थ उनके दल का द्रोह,पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है। “

 . बापू ने उत्तर में लिखा कि स्वर्गीय सुखदेव का यह पत्र मुझे उनकी मृत्यु के बाद दिया गया। ” वे ” अनेकों में एक नहीं हैं। राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए फांसी को गले लगाने वाले अनेक नहीं होते। राजनीतिक खून चाहें जितने निंद्य हों, तो भी जिस देश प्रेम और साहस के कारण ऐसे भयानक काम किए जाते हैं, उनकी कद्र किए बिना नहीं रहा जा सकता। और, यह आशा रखें कि राजनीतिक खूनियों का संप्रदाय बढ़ नहीं रहा है। यदि भारत वर्ष का प्रयोग सफल हुआ, और होना ही चाहिए, तो राजनीतिक खूनियों का पेशा सदा के लिए बंद हो जाएगा। मैं स्वयं तो इसी श्रद्धा के साथ काम कर रहा हूं। लेखक यह कहकर मेरे साथ अन्याय करते हैं कि क्रांतिकारियों से उनका आंदोलन बंद करने की भावपूर्ण प्रार्थनाएं करने के सिवा मैंने कुछ नहीं किया।उल्टे मेरा दावा तो यह है कि मैंने उनके सामने नग्न सत्य रखा है, जिसका इन स्तंभों में कई बार जिक्र किया जा चुका है और उसे फिर से दोहराया जा सकता है।

   बापू के अनुसार क्रांतिकारी आंदोलन ने आजादी के आंदोलन को लाभ की जगह नुकसान पहुंचाया। उसने हमे अपने ध्येय के नजदीक नहीं पहुंचाया बल्कि फौजी खर्च में बढ़ोत्तरी कराई और सरकार के लिए प्रतिहिंसा के कारण पैदा किए। जब जब क्रातिकारी खून हुए उन स्थानों के लोग कुछ समय के लिए नैतिक बल खो बैठे। इस आंदोलन ने जन समूह की जागृति में कोई मदद नहीं की उल्टे इसका दोहरा बुरा असर पड़ा। लोगों पर खर्च का अधिक भार आया और दूसरे सरकारी क्रोध का सामना करना पड़ा। क्रांतिकारी खून भारत भूमि में फल – फूल नहीं सकते क्योंकि भारतीय परंपरा राजनीतिक हिंसा के प्रतिकूल है। क्रांतिवादियों को जनता को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा करनी होगी और अगर ऐसा हुआ तो उलटकर यह हमारा ही संहार करेगा। क्रांतिकारियों की छिटपुट हिंसा के बीच भी अहिंसा टिकी रहती है। बापू के मुताबिक अगर उन्हें पूरा पूरा शांत वातावरण मिला होता तो अब तक हम अपने ध्येय को पहुंच चुके होते।

  सत्याग्रहियों को छुड़ाने लेकिन क्रांतिकारी कैदियों को जेल में सड़ने की छोड़ देने की सुखदेव की शिकायत पर बापू ने लिखा , ” उन्हें छुड़ाने की मैं भरसक कोशिश करने वाला हूं। कार्यसमिति ने श्री नरीमन को ऐसे सभी कैदियों की सूची तैयार करने का काम सौंपा है। पर जो बाहर हैं, उन्हें क्रांतिकारी हत्याएं बंद करके इस काम में मदद करनी चाहिए। ” क्रांतिकारी आंदोलन की वापसी की कोरी भावपूर्ण अपीलों की शिकायत पर बापू का उत्तर था , ” वे मेरी प्रकट प्रार्थनाओं पर ऐतराज करते हैं और कहते हैं कि इस तरह मैं उनके आंदोलन को कुचलने में नौकरशाही की मदद करता हूं। पर नौकरशाही को उस आंदोलन को कुचलने के लिए मेरी मदद की जरा भी जरूरत नहीं है। वह तो क्रांतिवादियों की तरह मेरे विरुद्ध भी अपनी हस्ती के लिए लड़ रही है। वह हिंसक आंदोलन की अपेक्षा अहिंसक आंदोलन में अधिक खतरा देखती है। हिंसक आंदोलन का मुकाबला करना वह जानती है। अहिंसा के सामने उसकी हिम्मत पस्त हो जाती है। यह अहिंसा पहले ही उनकी बुनियाद को झकझोर चुकी है।”

सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।श्री खन्ना इतिहास की अहम घटनाओं पर काफी समय से लगातार लिख रहे है।